Book Title: Bhagwati sutram Part 02
Author(s): Abhaydevsuri,
Publisher: Agamoday Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी-1 या वृत्तिः२
| १४ शतके |१ उद्दशः
अनन्तराधुपपन्नायु: करणादि सू ५०२
काणां तथा वाच्या कि अणंतरोववनगारपरअणुववन्नगान नेरइया अणता
॥६३२॥
विदिशो दिशं यात्येकेन द्वितीयेन लोकमध्ये तृतीयेनोर्द्वलोके चतुर्थेन ततस्तिर्यक् पूर्वादिदिशो निर्गच्छति ततः पञ्चमेन | विदिग्व्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं यातीति, उक्तश्च-"विदिसाउ दिसिं पढमे बीए पइ सरइ नाडिमझमि । उहूं तइए तुरिए उनी विदिसं तु पंचमए ॥१."[विदिशो दिशं प्रति सरति प्रथमे द्वितीये नाडीमध्यं । तृतीये ऊर्ध्वं तुर्ये निर्गच्छति पंचमे तु विदिशं ॥१॥] इति, 'सेसं तं चेव'त्ति 'पुढविक्काइयाणं भंते ! कहं सीहा गई ?'इत्यादि सर्व यथा नारकाणां तथा वाच्यमित्यर्थः ॥ अनन्तरं गतिमाश्रित्य नारकादिदण्डक उक्तः, अथानन्तरोत्पन्नत्वादि प्रतीत्यापरं तमेवाह| नेरहया णं भंते ! किं अणंतरोववन्नगा परंपरोववन्नगा अणंतरपरंपरअणुववन्नगा?, गोयमा ! नेर० अणंतरोववन्नगावि परंपरोववन्नगावि अणंतरपरंपरअणुववन्नगावि, से केण एवं वु० जाव अणंतरपरंपरअणुववन्नगावि?, गोयमा ! जे णं नेरइया पढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया अणंतरोववन्नगा, जेणं नेरइया अपढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया परंपरोववन्नगा, जेणं नेर० विग्गहगइसमावन्नगा ते णं नेरइया अणंतर| परंपरअणुववन्नगा, से तेणटेणं जाव अणुववन्नगावि, एवं निरंतरं जाव वेमा० । अणंतरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति तिरिक्ख०मणुस्सन्देवाज्यं पकरेंति ?,गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति । परंपरोववन्नगाणं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति ?, गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति तिरिक्खजोणियाउयंपि पकरेंति मणुस्साउयंपि पकरेंति नो देवाउयं पकरेति । अणंतरपरंपरअणुववन्नगाणं भंते ! नेर०किं नेरइयाउयं प० पुच्छा नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव
ARRORSCROCALCCASEASESAMACRE
ते ण नेरइया मते
॥१२॥
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