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भास्कर
[भाग १८
महर्निश यही सोच थी, सुधरै जैनसमाज । अन्त समय तक धुन यही, कीने बहु २ काज ॥ जैन गजट उन्नति भई, निकले बहु उपदेश । धर्म ध्वजा फहरत भई, याकी देश विदेश ।।
याही धारा नगरमें, थापी एक चटशाल । जामें शिक्षा पाया करें, निज जातीके बाल ॥ जैन शास्त्र संग्रह किये, थापे एक भंडार ।
बिरले ऐसे होत हैं, जातीके हितकार ।। कन्याशाला भी खुली, इनकी कृपा अधार । अबला जन के बीच में, शिक्षा होत प्रचार ।। काशी शालाको कियो, यथा रीति परबन्ध । जाकी देश विदेश में, फैली चहूँ सुगन्ध ।
महासभा के आपही, हितकारी सिरताज । करि अनाथ सबको गये, रोवत जैनसमाज। कर में जैन जहाजकी, थामी तो पतवार ।
गये कहाँ किस भाँति, यहाँको बेड़ापार ।। जीकी, जी ही में रही, किये न, कछु उपचार । काल बलीने क्या कियो, भाख्यो हृदय कुठार॥ सरस्वती भण्डार को, कीनो तो उत्थान । करकमलोंसे नहि भयो, ऐसो कार्य महान ॥
असोसियेशन जैनके, उपनेता थे श्राप । सौंप गये किसपर इसे? क्या क्या करू विलाप । हाय पिताकी उम्र में, तुमने भी तजि दीन ।
जगमें तुमसा कौन है, ज्ञानी परम प्रवीन ।। धर्म ध्यानमें आपने, तजि दीनों संसार । नौका जन-समाजकी, छोड़ि गये मझधार ॥ श्रावण शुक्ला अष्टमी, तुमने तजो शरीर । जैनजाति सुनके भई, याते परम अधीर ॥