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वह दूसरा किनारा तुम्हारे भीतर है। एक है किनारा तुम्हारे बाहर और एक है किनारा तुम्हारे भीतर। तुम्हारे भीतर और बाहर इन दो किनारों के बीच प्रवाह है परमात्मा का। जब तुम बाहर की तरफ देखने में बिलकल बंध जाते हो, तो एक किनारा ही रह जाता है हाथ में। तब सब अन्य मालम होते, सब भिन्न मालूम होते। जब तुम दूसरे किनारे से परिचित हो जाते हो तब सभी अनन्य मालूम होते हैं, तब कोई भिन्न मालूम नहीं होता, सभी अभिन्न मालूम होते हैं।
'सबको बनाने वाला ईश्वर है। यहां दूसरा कोई नहीं। ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह पुरुष शांत है। उसकी सब आशाएं जड़ से नष्ट हो गई हैं और वह कहीं भी आसक्त नहीं होता।'
ईश्वर: सर्व निर्माता नेहान्य इति निश्चयी।
अंतर्गलितसर्वाश शांत: क्यापि न सज्जते। सबको जानने वाला ईश्वर है। इसलिए अगर तुम ईश्वर को जानने चले हो तो एक गलती कभी मत करना-तुम ईश्वर को दृश्य की तरह मत सोचना। ईश्वर दृश्य नहीं बन सकता। वह सबको जानने वाला है। वह द्रष्टा है। तो तुम इस भ्रांति में मत पड़ना कि किसी दिन मैं ईश्वर को जान लूंगा। ईश्वर सबको जानने वाला है। इसलिए तुम उसे दृश्य न बना सकोगे।
फिर ईश्वर को खोजने का उपाय क्या है? क्योंकि साधारणत: लोग जब ईश्वर को खोजते हैं तो इसी तरह खोजते हैं कि ईश्वर कोई वस्तु, कोई दृश्य, कोई व्यक्ति है, हम जाएंगे और देख लेंगे और बड़े आह्लादित होंगे, और नाचेंगे और गाएंगे और बड़े प्रसन्न होंगे कि देख लिया ईश्वर को।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि ईश्वर की खोज कैसे करें? कहा मिलेगा ईश्वर? हिमालय जाएं? स्वात में जाएं? क्या है ईश्वर की प्रतिछवि? कुछ हमें समझा दें, ताकि हम पहचानें तो भूलें न; ताकि पहचान लें, पहचान हो सके कुछ रूप-रेखा दे दें।
नास्तिक भी और आस्तिक भी, दोनों में बड़ा फर्क नहीं मालूम पड़ता। नास्तिक भी कहता है दिखलाओ, कहां है ईश्वर, तो हम मान लेंगे। और आस्तिक भी यही कहता है कि हम मानते हैं, हम खोजने चले हैं, कहां है? उसका रूप क्या? उसका नाम, पता, ठिकाना क्या है? लेकिन दोनों की बुद्धि एक जैसी है। दोनों में कोई बड़ा फर्क नहीं।
नास्तिक के तर्क और आस्तिक के तर्क में तुम देखते हो, फर्क कहां है? दोनों यह कहते हैं कि परमात्मा कहीं बाहर है। नास्तिक कहता है दिखला दो तो मान लेंगे। आस्तिक कहता है : मान तो हमने लिया है, अब दिखला दो। फर्क जरा भी नहीं है, रत्ती भर का नहीं है। इसलिए तो दुनिया में इतने आस्तिक हैं-और आस्तिकता बिलकुल नहीं। क्योंकि इनमें और नास्तिक में कोई फर्क नहीं है। शायद एक फर्क होगा कि नास्तिक थोड़ा हिम्मतवर है, ये थोड़े कायर और कमजोर हैं।
___नास्तिक कहता है, दिखला दो तो मान लेंगे। और यह बात ज्यादा युक्तियुक्त मालूम होती है कि मानें कैसे? आस्तिक कहता है कि चलो माने तो हम लेते हैं, कौन झंझट करे! मानने में सुविधा है, सुरक्षा है। सभी मानते हैं। समाज के विपरीत जाने में उपद्रव होता है। जगह-जगह झंझटें आती हैं। चलो माने लेते हैं, अब दिखला दो। लेकिन दोनों का खयाल है, आंख से देखा जा सकेगा। दोनों