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इसका प्रतिबिंब मुझमें है। बड़ी दूरी पैदा हो जाती है। जैसे शरीर अनंत दूरी पर हो जाता है।
शानी शरीर से बड़ी दूर हो जाता है। ज्ञानी शरीर में होता ही नहीं। जैसे-जैसे ज्ञान सघन होता है, ज्ञानी शरीर से दूर होता जाता है। और आश्चर्य की बात यह है कि जेसे-जैसे ज्ञानी दूर होने लगता है, वैसे-वैसे प्रतिबिंब सुस्पष्ट बनता है।
तो जब बुद्ध के पैर में काटा गड़ेगा, तो शायद तुमने सोचा हो उन्हें पीड़ा नहीं होती - मैं तुमसे कहना चाहता हूं उनकी पीड़ा का बोध तुमसे ज्यादा स्पष्ट होगा स्वभावत: उनका दर्पण ज्यादा निर्मल है। जिस दर्पण पर धूल जमी हो, उसमें कहीं प्रतिबिंब साफ बनते? जिस दर्पण पर कोई धूल नहीं रही, निर्विकार हुआ, उस पर प्रतिबिंब बड़े साफ बनते हैं।
बुद्ध की संवेदनशीलता निश्चित ही तुमसे कई गुना अनंत गुना ज्यादा होगी। फिर भी क्लेश नहीं होगा। दर्पण शुद्ध है, प्रतिबिंब साफ बनते, लेकिन क्लेश बिलकुल नहीं होता। क्योंकि क्लेश का अर्थ तुम समझ लो। क्लेश का अर्थ है; शरीर का, आत्मा का तादात्म्य । जैसे ही तुमने अपने को शरीर से जोड़ा और कहा, मुझे भूख लगी- क्लेश हुआ। क्लेश न तो शरीर में है न आत्मा में, शरीर और आत्मा के मिलन में है। जहां दोनों ने भ्रांति की कि हम एक हुए, वहीं क्लेश का जन्म होता है। शरीर और आत्मा की जो गांठ है, जो विवाह है, जो तुमने सात फेरे डाल लिए हैं- उसमें ही क्लेश है। निर्विकार गतक्लेशः सुखेन एव उपशाम्यति।
और अष्टावक्र कहते हैं कि और अगर इतनी बात साफ हो जाए, इतना निश्चय हो जाए कि मैं भिन्न, कि मैं सदा भिन्न, कि मैं कभी पीड़ा, सुख-दुख, आने-जाने से मेरा कोई जोड़ नहीं, गांठ खुल जाए, ऐसा तलाक हो जाए शरीर से, ऐसा भेद और फासला हो जाए तो सहज ही शांति उपलब्ध होती है।
सुखेन एव उपशाम्यति।
तो अष्टावक्र कहते हैं फिर इस शांति के लिए कोई तपश्चर्या नहीं करनी पड़ती कि सिर के बल खड़े हों, कि हवन जलाए और आग के पास धूनी रमाएं और शरीर को गलाएं और कष्ट दें-यें सब बातें व्यर्थ हैं।
सुखेन एव .............|
बड़े सुखपूर्वक बड़ी शांतिपूर्वक, बिना किसी श्रम के बड़े विराम और विश्रांति में जीवन की परम घटना घट जाती है।
जिसको झेन फकीर कहते हैं- प्रयास - रहित प्रयास - अष्टावक्र के सूत्र का वही अर्थ है।
कई बार सोचता हूं कि झेन फकीरों का अष्टावक्र के सूत्रों की तरफ ध्यान क्यों नहीं गया? शायद सिर्फ इसलिए कि अष्टावक्र के सूत्र बुद्ध से संबंधित नहीं हैं। अन्यथा झेन के लिए अष्टावक्र
सूत्रों से ज्यादा और कोई परम भूमिका नहीं हो सकती। अष्टावक्र का सारा कहना यही है कि श्रम के हो जाता है, बिना चेष्टा के हो जाता है। क्योंकि बात सिर्फ बोध की है, चेष्टा की है नहीं । कुछ करना नहीं है; जैसा है वैसा जानना है। करने की बात ही फिजूल है।