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संस्कृतटीका-भाषाटीकासहिता। . (२७) एवमुत्तरत्रापि ज्ञेयं पुनरुक्तिस्तु ज्ञानप्रतिबंधकस्य बुदिमांद्यविपर्ययादेढियान्नाशंकनीया ॥२५॥ ___ भा. टी. मैं निर्विकारहूं अर्थात् सदा एकरूपहूं । निराकार अर्थात् मेरा कोई आकार नहीं है । मैं निरवयहूं अर्थात् आध्यात्मिक आधिदैविक आधिभौतिक इन तीन तापों करकै . रहितहूं और अविनाशीहूं । नाशवान देह नहीं हूं। इस प्रकार ज्ञानको पण्डितगण तत्त्वज्ञान कहैं हैं ॥ २५ ॥ निरामयो निरामासो निर्विकल्पोऽहमाततः ॥ नाहं देहो बसद्रूपो ज्ञानमित्युच्यते बुधैः ॥ २६ ॥
सं. टी. पुनः किलक्षणं ज्ञानमित्यत आह निरामय इति । अहं निरामयः सर्वरोगरहित निराभासो वृत्तिव्याप्यत्वेपि फलव्याप्यत्वशून्यः निर्विकल्पः कल्पनाहीनः आततश्च व्यापकः ॥२६॥ . भा. टी. मैं रोगहीनहूं अर्थात मुझै राजयक्ष्मादिरोग नहीं होयहैं मुझै फलकी अभिलाषा नहीं होयहै मैं कल्पना नहीं करूंहूं और सर्वव्यापीहूं। मैं नाशवान् देह. नहींहूं इस प्रकार ज्ञानको पण्डित जन तत्त्वज्ञान कहैं हैं ॥ २६ ॥ निर्गुणो निष्क्रियो नित्यो नित्यमुक्तो हिमच्युतानाहं देहो ह्यसद्रूपो ज्ञान मित्युच्यते बुधैः ॥ २७॥