Book Title: Aparokshanubhuti
Author(s): Shankaracharya, Vidyaranyamuni
Publisher: Khemraj Krushnadas

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Page 35
________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासहिता । ( २९ ) अर्थात् मेरा अन्त नहीं है और शुद्धहूं और अजरहूं अर्थात् बूढा नहीं होऊं हूं और अमर हूं अर्थात् मेरी कभी मृत्यु नहीं होय है नाशवान् देह नहीं हूं ऐसा जो ज्ञान है उसको पण्डितजन तत्त्वज्ञान कहैं हैं ॥ २८ ॥ स्वदेहे शोभनं संतं पुरुषाख्यं च समतम् ॥ किं मूर्ख शून्यमात्मानं देहातीतं करोषि भोः ॥ २९ ॥ सं. टी. नन्वात्मा प्रत्यक्षदेहरूपो न भवति तर्हि शून्यत्वमात्मनः स्यादित्याशंक्याह स्वदेहे इति । भो हे मूर्ख शून्यवादिन स्वदेहे पुरुषाख्यं पुरि- मनुष्यशरीरे उषति अहमाकारेण वसतीति पुरुष इंत्याख्या नाम यस्य तं अतएवशोभनं मंगलं शरीर विलक्षणत्वादति मंगलं तथा संमतम् " अयमात्मा ब्रह्म" इत्यादिवाक्यनिर्णीतं चकारात् " उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः " इत्यादि स्मृतिनि तं द्रष्टृहद्रष्टृत्वेन देहातीतमात्मानं सततं भावं संतं सर्वव्यवहाराधिष्ठानं शून्यं खपुष्पादिवत् अत्यंताSभावरूपं किंकरोषि कथं मन्यसे मामन्यथा इति भावः। कचित् स्वदेदमिति द्वितीयांतः पाठस्तस्मिन् पक्षे देहात्मवाद्येव वदति उक्तलक्षणं मनुष्यदेहं त्यक्त्वा समानमन्यत् ॥ २९ ॥ भा. टी. हे संसारी मृढ ! तू अपने देहमें विद्यमान मङ्गलमय

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