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(८०) अपरोक्षाऽनुभूतिः। तआरभ्य कलनात्सर्गस्थितिप्रलयाधारत्वादित्यर्थःशेष. स्पष्टम् ॥ १११॥
भा. टी. जिसके निमेपमात्रमें ब्रह्मादि सर्वभूतोंका कलन (सृष्टि, स्थिति, प्रलय,) होयहै इस कारण अखण्ड आनन्दस्वरूप अद्वय ब्रह्मही काल शब्द करके कहाजायहै ॥११॥ सुखेनैवभवेद्यस्मिन्नजलंब्रह्मचिंतनम्॥
आसनं तद्विजानीयान्नेतरत्सुखनाशनम् ॥ ११२॥
सं. टी. आसनं लक्षयति सुखेनैवेति यस्मिन्सुखे सुखरूपे ब्रह्मणि चिंतनं कर्तव्याकर्त्तव्यचिंता नैवभवेत् तद्ब्रह्मासनं विजानीयादित्यन्वयः कीदृशं ब्रह्म अजस्रं कालत्रयावस्थायीत्यर्थः सुगममन्यत् ।। ११२ ॥
भा. टी. जिसमें सदा भलीप्रकार सुखसे ब्रह्म विचार होय उसको आसन कहैं हैं उससे अतिरिक्तमें ब्रह्म विचार नहीं होय है इस कारण आसनसे अन्य सुखकारक नहीं होय है किन्तु सुख नाश होयहै । सो आसन पनि स्वस्तिकादिक जानना ॥ ११२ ॥ सिद्धं यत्सर्वभूतादि विश्वाधिष्ठानम- - व्ययम् ॥ यस्मिन् सिद्धाः समाविष्टास्तदै सिद्धासनविदुः ॥ ११३॥