Book Title: Aparokshanubhuti
Author(s): Shankaracharya, Vidyaranyamuni
Publisher: Khemraj Krushnadas
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(८८) अपरोक्षाऽनुभूतिः। स्फुरणरूप इत्यर्थः उक्तंच “समाधिः संविदुत्पत्तिः परजीवकतां प्रति" इति ॥ १२४ ॥ .
भा. टी. निर्विकार चित्त होकर अपनेको ब्रह्मस्वरूप ज्ञान करके सम्पूर्ण प्रकारके प्रपञ्च भावको परित्याग करना ज्ञानियोंका समाधि कहावे है ॥ १२४ ॥
इमं चाकृत्रिमानंदं तावत्साधुसमभ्यसेत् ॥वश्यो यावत्क्षणात्पुंसः प्रयुक्तः सन्मवेत्स्वयम् ॥ १२५॥ सं. टी. इदानीं यदर्थं सांगमिदं निदिध्यासनमुक्तं तदाह इममिति.अकृत्रिमानंदं स्वरूपभूतानंदाभिव्यंजकं निदिध्यासनमित्यर्थः चकारायथावुद्धि वेदांतविचारमपीति स्पष्टमन्यत् ॥ १२५॥ ___ भा. टी. जबतक पूर्वकहे हुए आनन्दमय ब्रह्मके वशमें नहीं होय तबतक कृत्रिम आनन्द ( निदिध्यासन) उत्तम प्रकारसे अभ्यास करे परन्तु जिस समय निदिध्यासनादि । द्वारा स्वयं ब्रह्मस्वरूप होजाय उस समय निदिध्यासनादिकका कोई प्रयोजन नहीं ॥ १२५ ॥ - ततः साधननिर्मुक्तः सिद्धो भवतियोगिराट् ॥ तत्स्वरूपं न चैतस्य विषयो मनसोगिराम् ॥ १२६॥

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