Book Title: Aparokshanubhuti
Author(s): Shankaracharya, Vidyaranyamuni
Publisher: Khemraj Krushnadas
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• (५६).
अपरोक्षाऽनुभूतिः। शंक्यावस्थाभेदेनोभयमपि भासत इति सदृष्टांतमाह सदैवेति तत्रज्ञानिनः सदैवात्मा विशुद्धः अज्ञानतत्कायंप्रपंचमलरहितत्वानिष्प्रपंचोस्ति अज्ञानिनस्तु सदैवाशुद्धोऽस्तीति भ्रमाद्विभाति वैहीति . तत्प्रसिद्धौ उभयत्रापि दृष्टांतः यथेति यथा रज्जुानिनः सभा वतया निर्विषत्वेनाभयंकरी अज्ञानिनस्तु सर्परूपतया विपरीतत्वेन भयंकरीति द्विविधा भाति अयंभावः ब्रह्म यद्यपि स्वयंप्रकाशत्वेन सदा भात्येव तथापि वृत्त्यारूढत्वेन पुरुषार्थोपयोगीति ज्ञानिनः प्रतिभाति नाज्ञानिनः सूर्यदीपादिरिवचक्षुष्मदंधयोरितिदिक ।। ६८॥
भा. टी. जैसे एकहीरञ्जु अज्ञानी पुरुषोंको नमसे सर्प मालूम होयहै और ज्ञानवान् पुरुषोंको रज्जही मालुम होजाय है इसीप्रकार एकही परमात्मा सर्वदा ज्ञानियोंको शुद्धस्वरूप
और प्रकाशवान् मालूम होयहै और अज्ञानियोंको शुद्धस्व रूप और प्रकाशवान् नहीं मालूम होयहै वस्तुतः परमात्मा शुद्धस्वरूप और प्रकाशवान है ॥ ६८ ॥ यथैवमृन्मयः कुंभस्तदेहोपिचिन्म
यः ॥ आत्मानात्मविभागोयं सुधैवक्रियतेऽबुधैः ॥६९॥
सं. टी. नन्वात्मा यदि सदैव निष्प्रपंचत्वेन भाति तर्हि किमर्थं देहात्मभेदो वर्णित इत्याशंक्याविवेकिनो

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