Book Title: Aparokshanubhuti
Author(s): Shankaracharya, Vidyaranyamuni
Publisher: Khemraj Krushnadas

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Page 74
________________ (६४) अपरोक्षाऽनुभूति। द्यात्' इत्यादिभिः प्रपंचस्योपादानमज्ञानं पठ्यते च-. काराद्ब्रह्मापि अत्रायंभावःनकेवलं ब्रह्मैव जगत्कारणनि विकारत्वात् नापि केवलमज्ञानं जडत्वात् तस्मादुभयं मिलित्वैव जगत्कारणंभवतीति "सत्यानृते मिथुनी--- करोति " इत्यादिश्रुतेः तत्रदृष्टांतभांडस्य कटकरकादेमंदिव मृत्पिडइव तत्र जलस्थाने ब्रह्म पिंडीकरणसामर्थ्यसाम्यादज्ञानं तु मृत्तिकास्थाने आवरकत्वसाम्यात् तत्र ब्रह्मणोऽविनाशित्वाद्ब्रह्मज्ञानेन तस्मिन्नज्ञान एव नष्टेसति विश्वता जीवजगदीश्वरात्मकजगद्भाव: कनकाप्यस्तीत्यर्थः ॥ ९॥ : - __ भा. टी. जैसे घटके मृत्तिका और जल दो उपादान कारणहैं इसी प्रकार प्रपञ्चकेभी ब्रह्म और अज्ञान दो उपादान कारण हैं ऐसा वेदान्त शास्त्रोंके प्रमाणसे जाना जायहै और जब उपादान स्वरूप अज्ञानहीका नाश होगया तो फिर संसार कहां और जब संसार नहीं तो कर्मभोगभी नहीं ॥ ९४ ॥ यथारज्जु परित्यज्य सर्प गूनातिवै. भ्रमात् ॥ तद्वत्सत्यमविज्ञाय जगत्प- . श्यति मूढधीः ॥१५॥ सं. टी. मिथुनीभावस्यैव जगत्कारणत्वं सदृष्टांत प्रपंचयति यथारज्जुमिति ॥ ९५ ॥ भा. टी. जैसे श्रम वशसे रज्जुमें सर्पका ज्ञान होजाय और सर्पमें रज्जुज्ञान होनेसे मूढ पुरुष सर्पको पकडलेय हैं

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