Book Title: Aparokshanubhuti
Author(s): Shankaracharya, Vidyaranyamuni
Publisher: Khemraj Krushnadas
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( ६४ )
अपरोक्षानुभूतिः ।
मम् ॥ अभावात्सर्वभावानां देहस्य चात्मता कुतः ॥ ८८ ॥
सं. टी. एतदेव विवृणोति सर्वमिति आत्मता देहस्य नेत्यर्थः स्पष्टमन्यत् ॥ ८८ ॥
भा. टी. जब स्थावर जङ्गम सम्पूर्ण जगत् आत्मस्वरूप मालूम होने लगे है तब सब पदार्थों के अनित्य होनेसे देह जो आत्मा किस प्रकार होस है अर्थात् कभीभी नहीं होय है ॥ ८८ ॥ आत्मानं सततं जानन्कालंनय महाद्युते ॥ प्रारब्धमखिलंभुंजन्नोद्वेगं कर्तुमहसि ॥ ८९ ॥
सं. टी. ननु ज्ञानिनो निष्प्रपंचात्मतया मम किं स्यात् ब्रह्मण्यभोजने नान्यस्तृप्यतीतिचेदतआह आत्मानमिति भोमहाद्युते कामादिपराभवेन स्वहितसाधनोन्मुवस्त्वं आत्मानं प्रत्यगभिन्नं सततं आसुप्तिमृतिपर्यंत जानन् वेदांतवाक्यैर्विचारयन् कालं नयातिक्रामस्व: विचारसाध्यज्ञानानंतरं चाखिलं प्रारब्धं चरमदेहारंभकं कर्म भुंजन सुखदुःखाभासानुभवेन क्षपयन्समुद्वेगं कर्तुनाईसीत्यर्थः ॥ ८९ ॥
भा. टी. हे महामते । सदा आत्मा को जानता हुआ समयको व्यतीत कर समस्त प्रारम्भ किये हुए कर्म्मके फलको भोगता हुआ उद्वेग मत कर ॥ ८९ ॥

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