Book Title: Aparokshanubhuti
Author(s): Shankaracharya, Vidyaranyamuni
Publisher: Khemraj Krushnadas

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Page 46
________________ (४०) - अपरीक्षाऽनुभूतिः । स्यांचिदवस्थायामपि भेदो नयुक्तो नयथार्थइत्यर्थः त- । हिंजीवभेदःसत्यः स्यादित्यत आह जीवत्वमिति जीवत्वं चकारोप्यर्थः मृपा मिथ्या ज्ञेयं तदुपाधेरेवांतःकरणादेमायामयत्वादित्यर्थः । अधिष्ठानसत्यत्वेन कल्पितस्य मिथ्यात्वबोधे दृष्टांतमाह रज्जाविति यथारज्जौ तदज्ञा नात् वक्रतादिसाहश्येन मंदांधकारे सर्पग्रहः सर्पलद्विरव्युत्पन्नस्य भवति न तु व्युत्पन्नस्य तथैवात्मन्या स्माज्ञानात् प्रकाशसाहश्यादविशेषप्रकाशे चिज्जडग्रं थिरूपचिदाभासभ्रमो भवत्यविवेकिनां न तु विवेकिना मिति वेदांतसिद्धांतरहस्यम् ॥१३॥ भा, टी. चैतन्यको (भत भौतिक प्रपञ्चका जो आधान है उसको चैतन्य कहते हैं ) एकरूप होनेसे और आत्माको चैतन्यस्वरूप होनेसे देह और आत्माका भेद कभीभी युक्ति युक्त नहीं है जिसतरह रज्जुमें वह सर्पका नम होय है वास्तव में वह सर्प नहीं होय है तिसीप्रकार आत्मासे भिन्न जीवका मानना वृथा है ॥ ४३॥ रज्ज्वज्ञानात् क्षणेनैव यदद्रज्जुर्हि सपिणी ॥ भाति तद्रचितिः साक्षाद्वि खाकारेण केवला ॥४४॥ . सं.टी. इदानी पूर्वोक्तमेव दृष्टांत विवृण्वन् सर्वस्यापि प्रपंचस्य ब्रह्मरूपतामाह रज्विति । केवलेति विशेषणेन

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