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अपरोक्षानुभूतिः। पुरुष है नहीं इसी प्रकार यह संसार परमात्मा ब्रह्मके विषै भिन्न और सत्यसा प्रतीत होय है परन्तु वस्तुतः कुछभी नहीं है ।। ६१॥
यथैवशून्ये वैतालोगंधर्वाणांपुरंयथा॥ यथाकाशे द्विचंद्रत्वं तद्वत्सत्ये जग'स्थितिः॥३२॥
सं. टी. नाममात्रप्रपंचस्य मिथ्यात्ववासनादाढयायेममेवाथै बहुभिलोकप्रसिदृष्टांतःप्रपंचयति यथैवशून्य इत्यादित्रिभिः शून्ये निर्जने देशे वैतालःअकस्मादा भासमानो भूतविशेषः गंधर्वपुरस्यापि शून्याधिष्ठानत्वं ज्ञेयं गंधर्वनगरं नाम राजनगराकारो नीलपीतादिमेघरचनाविशेषः आकाशे स्पष्टमन्यत् ॥ १२ ॥ __ भा. टी. जिसप्रकार निर्जन स्थानमें अकस्मात प्रत्यक्ष होकर वैताल (भूत विशेष ) मालूम होयहै परन्तु वस्तुतः मिथ्या होयहै और जैसे निर्जन स्थानमें नीले पीले मेघोंसे बना हुवा गन्धर्वोका नगर मालूम होने लगे है परन्तु वहभी वस्तुतः मिथ्या होयहै और जैसे आकाशमें किसी समय किसी कारण भान्तिसे दो चंद्रमा मालूम होने लगे हैं इसी प्रकार सत्यस्वरूप आत्मामें जगत सत्यसा प्रतीत होयहै वस्तुतः सत्य नहीं है । ६२॥
यथातरंगकल्लोलैर्जलमेवस्फुरत्यलम्॥