Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 15
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 19
________________ अनुसंधान - १५ • 14 द्विश्रान्तविश्वत्रयभक्तिरागम् ऊर्वातताया यदनर्घ्यजङ्घा वल्ले: सकाञ्चीमणिकौसुमायाः । Jain Education International मञ्जीरदम्भादकृत स्वयंभूभम्भोभृतं मेरुभृदालवालम् रक्तारविन्दं कुरुविन्दमग्निः सिंदूरमित्याद्यरुणार्थवृन्दे । मुख्यौ यदंही तदमू दधेते मूर्ध्नि स्फुरनूपुरहेमपट्टम् पादा यदीयाः कृतपूजनानां जाड्यं जवान्नाशयितुं जनानाम् । मञ्जीरमाणिक्यमयूखलक्षा: संतन्वते कोपकटाक्षलक्षा: ऊरुश्रियाऽऽखण्डलकुम्भिशुण्डादण्डाभिमानोद्दलनेऽद्भुतं नः । यस्याः सदा नम्रशिरस्करम्भास्तम्भाभिभूतौ पुनरस्ति खेदः युक्त्या भुजायामवती यदीयश्रोणीतटे काऽप्यमरी न काञ्चीम् । शक्नोति बन्धुं न भवत्यमुष्या दिव्या यदि व्याससमासशक्तिः सम्भाव्यते स्यूतमदे भुवां चेतदर्कतूलातुलतन्तुलक्षैः । चेद्देवलोके तदतन्द्रचन्द्रज्योति:कलापैः किल यद्दुकूलम् जैनेन्द्र वाग्या (कृपा) लनपात्रसंविद्दानोत्तमाचार्यपरीष्टितुष्टैः । ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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