Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 15
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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पं. तत्त्वविजयगणिकृत स्थूलिभद्र-बारमासा ॥
-विजयशीलचन्द्रसूरि
"वाचक जस"ना शिष्य पंडित तत्त्वविजय गणिनी विदग्ध प्रतिभानी झलक दर्शावतुं आ लघु-काव्य "बारमास" एक चिरंतन तेमज चिरपरिचित स्नेहकथाना एक खास बनावने केन्द्रमा राखीने रचायुं छे : स्थूलभद्र अने कोशानो विरह. बार बार वर्षना अखंड साहचर्य अने अद्वैतमढ्यां सांनिध्य बाद, जीवनने हलबलावी मूकनारी एक दर्दनाक घटनाने कारणे बे प्रेमीओनो वियोग थयो. वियोगनी ए क्षणोनी, विजोगण कोशानी घेरी वेदनाने तेम ज प्रियतमनी उत्कट प्रतीक्षाने कविए आ लघु-कृतिमां सुपेरे शब्ददेहे आप्यो छे.
. "हरीआली" ए कोयडो, समस्या, उखांणुं के कूट काव्य तरीके ओळखावी शकाय तेवो, पण आध्यात्मिक, काव्य-प्रकार छे. मात्र शब्दार्थपकडवा जईए तो आनो उकेल नहि जडे. अध्यात्म दृष्टिए विचारीए तो ज तेनो मर्म उकले. आ अर्थमां आने रहस्यवादी काव्य-प्रकार पण कही शकाय.
प्रतिपरिचय : बे पानांनी आ प्रत, ला.द.विद्यामंदिर, अमदावादनी छे. (क्र. २७७६६). तेमां प्रथम "बारमासा" छे, अने ते पछी "हरीआली" छे, जे पण अत्रे मुद्रित करवामां आवे छे, अने तेना कर्ता पण पं. तत्त्वविजयजी ज छे.
प्रतिना लेखक मुनि प्रेमविजयजी छे; ते १८मा शतकना पूर्व भागमां पण विद्यमान होवानुं निश्चित छे, (यशो.स्वा.ग्रंथ, पृ.२८).
पंडित तत्त्वविजयगणिकृत
स्थूलिभद्र-बारमासा ॥ सकलपंडितसभाभामिनीभालस्थलतिलकायमान - पंडित श्री १९श्री तत्त्वविजयगणि चरण कमलेभ्यो नमः ॥
थूलिभद्रतणइं विरह किं कोश्या दुख सहइ रे २। सहि[य]र एक संदेश किं वालंभनि कहइ रे । ऊंभी जोउं वाट किं हूं गोखि खडी रे । हुँ झूर निशदीश किं नींद नावई अधघडी रे २ ॥१॥
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