Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 15
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 79
________________ अनुसंधान-१५ • 74 ताली देई गयो मुज्झ किं वार्लिभ न आवीओ रे २। तूं हतो भोगी भमर किं योग किम भावीओ रे २॥८॥ माह महीनइं मुज्झ किं टाढि वाई घणी रे २। मंदिर सेज तलाई किं लागई अलखामणी रे २। घरमां पामरी चीर कि ओढी ते नवि गमइ रे २॥ चितडं माहरु अहनिशिं तुम्ह पासइ भमइ रे २ ॥९॥ वाइ वाय प्रचंड किं फागुण फरहर्यो रे २। घरि घरि खेलई फाग किं चतुरलोक परवरो रे । लाल गुलाल अबीर किं केसरई कर्यां छांटणां रे । चंग मृदंग डफ वाजइ किं ताल ज अतिघणां रे २॥१०॥ चैत्रइं चंपकमाल किं चतूर गूंथावता रे २। निजनारीनई कंठ कि रंगि सुहावता रे २। तुझ विरहइ फूलमाल कि नाग काला जिसी रे २। कसबाई सब मुज्झ किं लागई अगनि तिसी रे २॥११॥ वैशाखई अंब-शाख कि कीजई कातली रे । खीर खांड घृत भोजन पोली पातली रे २। तुझ विण जिमतां सोर किं न वहई साहिबा रे २। आवि तुं वहिलो जिमाड किं भोजन एहवां रे २॥१२॥ उन्हालई जेठ मास किं ताप करई घणो रे । चंदन शीतल वारि किं जाणे दाह दवतणो रे । कारंज गोखि आगाशी किं बइसवू नवि गमई रे । अनुभवि प्रीतम वात किं ते वीसरइ किमइ रे २॥१३॥ ए गाया बारमास कि कोश्याइं नेहइ करी रे २॥ थूलिभद्र आव्या चोमास कि कोश्याइं गेहई हर्ष धरी रे २। कीधी श्राविका शुद्ध किं मिथ्यात्ववासना टलीरे २। सीधां वंछित काज किं तत्त्वविजय आश्या फली रे २॥१४॥ इति श्री स्थूलिभद्र द्वादशमास संपूर्णम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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