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अनुसंधान
मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसूत्त, ५२९) मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
૧૫
संकलनकार : आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरि• हरिवल्लभ भायाणी
D000m
A
PO. OTOV
DODOD.1.1.)
શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृतिसंस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
Jail Education Ternational
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
१५/
संपादको : विजयशीलचन्द्रसूरि
हरिवल्लभ भायाणी
m
શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
१९९९
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अनुसंधान १५
संपर्क :
हरिवल्लभ भायाणी . २५/२, विमानगर, सेटेलाईट रोड, अहमदाबाद - ३८० ०१५
प्रकाशक :
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद, १९९९
किंमत :
रू. ३५-००
प्राप्तिस्थान :
सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद - ३८० ००१
मुद्रक :
क्रिष्ना ग्राफिक्स किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अहमदाबाद - ३८० ०१३ (फोन : ७४९४३९३)
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निवेदन 'अनुसन्धान'नो १४मो अंक जरा अशुद्धिप्रचुर छपायो छे, ते बदल अमने खेद छे. अमां अगत्यनो भाग 'Press' भजवी गयो छे, एवो बचाव करवानो अर्थ नथी ज.
अमारी जूनी फरियाद आजे पण यथावत् छे : सामग्री अंगेनी. नीवडेल/नवोदित अभ्यासी साधुजनो/संशोधको तरफथी सामग्री मळती रहे, तो अमे पण वैविध्य पीरसी शकीए. अमे हजी आ क्षेत्रना अभ्यासीओने आमां रस लेतां करी शक्या नथी, एने अमारी त्रुटि गणीशुं ?
___ अध्येताओने तेमना शोधलेखो तेमज संपादित कृतिओ अनुसन्धान माटे मोकलवा अमारं पुनः पुनः आमंत्रण छे.
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बसूार
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अनुक्रणिका १. अज्ञातकर्तृक "सारस्वतोल्लासकाव्य" -सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 1 २. अज्ञातकर्तृक-संस्कृत-अपभ्रंश भाषामयं स्तोत्रषट्कम् ॥
-सं. मुनि रत्नकीर्तिविजय 27 ३. हर्षकुलगणि कृत ___ कमलपञ्चशतिका-स्तोत्र -सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 32 ४. महोपाध्याय श्रीसकलचंद्रजीगणि विरचित मुनिवरसुरवेली
-सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय 52 ५. वा.यशोविजयप्रणीत शारदागीत -सं.विजयशीलचन्द्रसूरि 66 ६. श्रीमहावीर स्वामी, निशालगरj -सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय 68 ७. स्थूलिभद्र-बारमासा
-सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ८. श्री उत्तमविजयजी-कृत पिस्तालीस
ल आगम-पूजा
-सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 76 ९. श्री प्रेमविजयजीकृत श्री विजयप्रभसूरि बारमास ॥
-सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १०. केटलांक भाषागीतो -सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ११. बृहत्-शान्तिस्तोत्र
-सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १२. ढूंक नोंध
-विजयशीलचन्द्रसूरि बीरबलनां रींगणां, २. मस्तक-लेख,
३. पांच पंक्तिनो कलश १३. शब्दचर्चा
-हरिवल्लभ भायाणी 100 १४. पत्रचर्चा
-मुनि भुवनचन्द्र 107 १५. थोडांक हमणांनां प्रकाशनो
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"सारस्वतोल्लासकाव्य" विशे
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
मात्र १५३ पद्य-प्रमाण आ लघुकाव्य, मध्यकालीन संस्कृत काव्यसाहित्यमां एक अनोखी भात पाडे तेवं मजा, काव्य छे. आना कर्ताए पोतानुं नाम अज्ञात राख्युं छे, अने पोताना गुरुनु नाम (पद्य १५३) निर्देश्युं छे. पोताना गच्छ के गुरुपरंपरानो पण तेमणे क्यांय उल्लेख को नथी. आ काव्यनी मने मळेली एक मात्र प्रतिना आधारे आ संपादन थयुं छे, अने तेथी आमां केटलीक शुद्धिओ थवी आवश्यक लागे छे, जे बीजी प्रति मळे तो ज संभवित थाय. पांच पत्रोनी आ प्रति, अनुमानतः १६मा शतकमां लखायेली जणाय छे.
काव्यनो विषय : श्रीनन्दिरत्न नामना साधुवरना अनामी शिष्यसाधुवर्ये, पोतानी जडताने दूर करवा माटे करेली सारस्वत-साधनानुं हृद्य अने
व्यमय वर्णन-ए आ काव्यनो विषय छे. कर्ता पोते ज काव्यना जाणे के नायक छे, अने ते पोताना अनुभव, बयान आपतां आपतां केटलांक मस्त वर्णन पण आपे छे; आ ज आ काव्यनी खूबी पण छे.
कर्ता पोताने 'कश्चित् जनः' तरीके (पद्य १) निर्देशे छे अने पछी ज्यारे ज्यारे पोताने रजू करवानो प्रसंग आव्यो त्यारे त्यारे 'सः' पदथी पोताने ओळखावे छे. प्रथम पद्यमां ज कर्ता जणावे छे के-"पोतानी जडताथी लज्जित हैये, एक मनुष्य, श्रीगुरुनी शुश्रूषा करवापूर्वक, सारभूत एवा सारस्वत मंत्रने प्राप्त करीने, रात-दिन तेना जापमां मची पड्यो हतो."
. आ पछीनां नवेक पद्योमा जापविषयक स्थिति-पद्धतिनुं मोघम वर्णन छ, जेमां पद्मासने बेसवानी, शौच करवानी, श्वेत वस्त्र-परिधाननी, स्फटिकनी माला वडे जापनी नोंध मळे छे. जापनो पंदरमो दिन दीपावली दिन (११) होवानुं जणावीने, पोतानो आ जाप संभवतः १५ दिननो होवानुं कर्ताए आडकतरुं सूचन आप्युं छे. ए पछीनां पद्योमा दीपोत्सवी पर्व- अने तेमां थता लोकोना व्यवहारोनुं अत्यंत रोचक-रसप्रद वर्णन थयुं छे. आ वर्णन कर्ताने निःशंक सुसज्ज कविनो
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अनुसंधान-१५ .2 दरज्जो बक्षे तेवू थयुं छे. कविने शृंगार-रसनो लगार पण छोछ नथी.
पद्य ५७-५८मां कर्ता बहु महत्त्वनी वात नोंधे छे. दीवालीनी रात्रिना अंत्य प्रहर दरम्यान, पोताने सारस्वत मंत्रनो एक लाख संख्यानो जाप परिपूर्ण थयो ते क्षणे, पोते क्षणभर माटे तन्द्रामा खोवाई गया हता; अने ते ज क्षणे तेमने माता शारदानां साक्षात् दर्शन सांपड्यां. कवि-साधके आ साक्षात्कार केटली बधी सूक्ष्मेक्षिकाथी कर्यो हशे तेनो ख्याल तो ते पछीना ५९ थी १०६ पद्योमा तेमणे करेलां देवी-विग्रह-वर्णन उपरथी मळी शके छे. आ वर्णनमां पण स्तन-वर्णन करतां कविए शृंगाररस अने कल्पनाशक्तिनो भारी ठाठ बनाव्यो छे. परंतु प्रथम दृष्टिए स्थूल कक्षानुं लागतुं आ वर्णन, सूक्ष्म तंत्र-दृष्टि धरावता अभ्यासी माटे एवं ज रहस्यवादी अने तात्त्विक होवू जोईए, एवं सतत लाग्या करे छे. तज्ज्ञो आ वर्णनना मर्म उघाडी आपे तेवी लालच अवश्य व्यक्त करूं. आ दृष्टिए पद्य ७८, ८७, ८९ ध्यानाह जणायां छे.
१०३-४-५-६मां क्रमशः देवीना हाथोमांनां पुस्तक, माला, कमंडलु अने वाहन एवा हंसनुं वर्णन छे. १०७मां तन्द्राधीन साधके करेल देवीना पूजननुं वर्णन छे. १०८ थी ११३मां देवी, साधक द्वारा साक्षात्कार-क्षणे थयेलुं स्तवन छे, जेमां देवीने कारकल्प-रूपे (१०८) वर्णवीने ऎकारने पण (११२) स्मरण करेल छे.
११४ थी ११७ वळी महत्त्वपूर्ण पद्यो छे. तेमां, साधकने देवीनो आदेश मळे छे के "ऊठ, तारुं मों खोल", अने साधके ते प्रमाणे करतां ज, पोताना वैडूर्यमय कमण्डलुमांथी तेना मोंमां अमृतनी धारा वहावी, अने तेनां बिंदु साधकनी जीभ पर लागतां ज पांच-छ वार बीजमंत्रनो उच्चार करावीने (के करीने ?) देवी अंतर्धान थई गयां-एq वर्णन छे.
पोतानी गूढ अने गोपनीय विरल अनुभूति, आq विशद वर्णन करनार साधक कविने आपणे साधुवादना कया शब्द वडे नवाजीशुं ?
पद्य ११८मां साधकनी स्थूल चेतनानुं जागरण अने मातानां दर्शन पछीना वियोगनी खिन्नतानुं वर्णन छे. ११९ थी प्रातः काल-सूर्योदय- वर्णन शरु थाय छे, जेमां दहीनां वलोणां (१२३)नुं तथा कुकडानी बांग (१२४)नुं पण वर्णन छे. १२६मां श्रीवीरनिर्वाणपर्वरात्रिनो उल्लेख, कर्ता जैन साधु होवानुं सूचवी जाय छे.
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अनुसंधान-१५ • 3 १३० मां कविए नवोदित सूर्यनी साथे नूतन वर्षनी लोक-स्थितिने उत्प्रेक्षात्मक रीते सरखावीने सरस अर्थान्तरन्यास (लोकोक्ति) प्रस्तुत कर्यो छे : यातानुयाते कुशलो हि लोकः - अर्थात् लोको तो अनुकरण करवामां निष्णात ज होय ! तो १३१मां वळी, नूतन वर्षारंभे मोमां तांबूल (पानबीडां )नाखीने वर्तता लोकोने नोंधीने कडं के आ दिवसे जो मों लाल-लालीवाळु होय, तो एर्नु आखं वरस खुशहाल जाय ! कवितुं वास्तवदर्शन अद्भुत छे. पछीनां पद्योमां पण नूतनवर्षनी लोक-स्थिति ज निरूपाई छे.
१३९मां कवि, पोते उन्निद्र अने हृदयमां बीजमंत्र ज अनुभवी रह्या होवानी पोतानी ते दिवसनी स्थिति निरूपे छे. १४०मां पण, निद्रा बीजजापने कारणे रूसणे गई होवा विधान काव्यमय रीते थयुं छे. १४५ थी १४९मां मंत्र- रहस्यमढ्युं वर्णन थयुं छे.
१५१-५२मां सारस्वत जाप, तेना प्रभावे थयेल स्वप्न-साक्षात्कार, अने तेना प्रतापे ज पोते आ काव्य रची शक्या होवानी केफियत आपणने संभळाय छे. १५२मां पोताना गुरु 'नन्दिरत्न'नो नामनिर्देश कर्ताए को छे.
काव्यमा प्रयुक्त केटलाक तळपदा लागता शब्दो पण नोंधपात्र छ : लम्बा (लांबी) (१४); सरयः (सर-सरवाणी ?)(१४); करढिकुला (१५) (हाथना ठोंसा?); टंकावली (चांदलां ?)(४१); मेराज्यक (मेरायां) (४५) इत्यादि.
कविओ अने साधको-बन्नेने रस पडे तेवू आ काव्य यथामति शोधीने अत्रे पेश करतां आनंद थाय छे.
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॥ सारस्वतोल्लास-काव्यम् ॥ श्रीभारत्यै नमः ॥
॥१॥
॥२॥
॥३॥
॥३॥
कश्चिज्जनो लज्जितहज्जडिम्ना शुश्रूषितश्रीगुरुपारिजातः । सारस्वतं सारमवाप्य मन्त्रं नक्तंदिवाऽजायत जञ्जपूकः पद्मासनं पूरयति स्म जापं कुर्वन्नपापं यदसौ सशौचः । मेनेऽखिलैरस्खलितप्रसर्पज्जाड्यारिबन्धाय स नागपाशः गोक्षीरधाराधवलं वसानः स(सु)कोमलं वस्त्रयुगं बभासे । जापादुपागत्वरशारदायाः पुरस्सराङ्गप्रभयेव लिप्तः तस्याऽतिलोलावपि लोचनाली नालीकतुल्यं कविमातृवक्त्रम् । उद्दामसौन्दर्यमरन्दलोभाज्जाने जहीतः स्म न जातु जापे भाति स्म तस्य स्फटिकाक्षमाला माला नु कल्पद्रुमकुमलानाम् । त्रपामि साक्षाद्यदि जातु देवीं तत्पूजयामीति करे गृहीता तेनाऽङ्गली पत्रलपाणिरक्ताऽशोकेऽक्षसूत्रस्य मिषेण बद्धा । श्रीशारदातुष्टिवशागमिष्यद्विद्याङ्गनान्दोलनकेलिदोला
॥४॥
॥६॥
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अनुसंधान - १५ • 5
वाग्वादिनी सन्निधिवत्तितत्तद्विद्याव्रजादेकतरां दिधीर्षुः । मन्येऽक्षमालाकमनीयपाणिः
पाशं गताशङ्कमुपाददे सः गम्भीरनाभीनिभकूपकूले तस्य व्यलोकि स्रवदुत्रवारिः ।
अङ्गुष्टपुष्टाङ्गवृषादवाप्तभ्रान्तिर्घटीयन्त्र इवाऽक्षसूत्रम् मेरु त्रिरत्नोज्ज्वलमेखलं नाऽ स्खलज्जपन्नप्युदलङ्कृताऽसौ । विद्याधरेशा अपि यं न शक्ताः स्युर्लंघितुं किं तमनाप्तविद्य: हृत्पद्यतोऽतिप्रणिधानमुद्रा
बन्धेन निर्यातुमपारयन्त्या । तस्य प्रसज्जपहुङ्कृतीनां दम्भादवि श्रुतदेव्यलिन्या
प्राप्तोऽथ सारस्वतमन्त्रजापारम्भाद्दिनः पञ्चदशोऽपशोकः । प्रामुमुदन् तत्र मनांसि नृणां दीपालिकावर्षतटाकपालिः सम्पूर्णचूर्णद्रवसान्द्ररेखा प्रसाधिता यत्र विभान्ति सौधाः । गोक्षीरधारोज्ज्वललो [ल] लक्ष्मीलीलाकटाक्षावलिशालिनः किम् आशङ्क्यते यत्र विलोक्य लोकैलिप्ताऽऽलयप्राङ्गणचूर्णरेखाः । अर्केण कोपात्करकर्त्तरीभिः
-
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॥८॥
॥९॥
॥१०॥
॥११॥
॥१२॥
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अनुसंधान - १५ • 6
कृताच्युतेयं किमु कौमुदीति धन्यात्मनां ध(धा)मसु चूर्णरखाः शुभ्रा न बाभ्राजति यत्र लम्बाः । सोत्कण्ठसत्कर्मजपुण्यसक्ता: प्रत्यक्षलक्ष्याः सरयो वहन्ति
पद्मावतां सद्मसु यत्र जाता: खण्डाज्यवल्लडुकचण्डगोला : । बाढं कुलस्त्रीकरर्दिकुलातः प्रातः पतन्तः क्षुदरिं क्षिपन्ति सन्त्येव गौराः करलालनीयाः स्थूला अशैथिल्यकथास्तथापि । यल्लड्डुकेभ्यः सुदृशां कुतश्चिद्धीना: कुचाः कालमुखास्ततः किम् ॥ १६ ॥ स्याद्यत्रजानां सुकुमारिकाणां स्निग्धात्मनामद्भुतमाधुरीणाम् ।
तुल्यः परं वाडवतप्तसर्पिः
सिन्धोः सुधांशोस्तलितः सबिम्ब: सूक्ष्मोज्ज्वलस्वादुससौकुमार्याः
सारस्ययुग्मोदकपुष्पगुच्छा: श्रीवल्लयो यत्र जयन्ति शुक्ला:
यत्रेश्वराणां तपनीयपाशाः
प्रेङ्खन्ति वर्णोत्तमखेलनीषु । किञ्जल्कपिङ्गानि किमप्रफुल्ल
॥१३॥
॥१४॥
॥१५॥
केषां न हर्षाय यदीयसेवाः ।
किं सोमभासोऽन्यमहो सहिष्णुद्यो: रत्नरुत्कर्त्तरिकाविलूना: ( ? ) ॥१८॥ दधिस्थिरस्थूलदलास्तनीयः
सेवा समन्तो हु ( ? हृ?) त तन्तुपूगा: ।
॥१७॥
॥१९॥
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अनुसंधान-१५ .7
॥२१॥
॥२२॥
॥२३॥
प्रसूनबुद्ध्या मिथुनान्यलीनाम् ॥२०॥ द्यूतेन दन्ता अपि भूपतीनांये पातितास्तैश्चिरसगृहीतैः । कपर्दिकानां कपटेन यस्यां कुन्दावदातैः कितवा रमन्ते वाल्लभ्यतो हिङ्गुल-यूषयन्त्रन्यासच्छलाद्यत्र न मन्त्रविक्तः(त्कः ?) । कुर्यात् कुहूकुंभकुचाकपोलश्रीकारिणी: कुङ्कुमपत्रभङ्गीः तस्याऽभवद्वासरवासवस्याऽवसानसन्ध्यावसरः सुमेध्यः । ध्यानादमुं क्षोभयितुं नु रागैरुत्पादितव्यापकदावशङ्कः तत्राऽरुणीभूतसमस्तभावे हारोऽपि गुञ्जाफलगुम्फकल्पः । काली मुखालीमविलोक्य कालक्षेपादुपालक्षि चलेक्षणाभिः व्योम व्यरोचिष्ट विचित्रचञ्चद्दीधित्यदभ्रस्फुरदभ्रसालम् । वाग्देवताविर्भवनोत्सवाय प्रत्यग्रपट्टांशुकमण्डपः किम् ? ॥२५॥ दीपादिषु स्वं क्षिपताऽऽतपस्वं पलायितुं वेद्मि दिनेन मुक्तः । राज्ञो दलं वीक्षितुमायदाभादस्ताचले शैखरिकः खरांशुः विष्णुं जगुः पर्वतमस्तकेऽज्ञास्तेनाऽस्तभूमीभृतिभानुदम्भात् ।
॥२४॥
॥२५॥
॥२६॥
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अनुसंधान - १५ • 8
दैत्यादृतध्वान्तचमूदयेऽचिश्चकारुणं चक्रमभूत्तदीयम् रेजेऽर्कबिम्बि(म्बं ?) वरुणेभकुम्भः सिन्दूरपूरच्छुरणारुणः किम् ? |. किं तद्वधूकुङ्कुमितास्यपद्मच्छायारुणः स्फाटिकदर्पणो वा
श्रीकण्ठकान्तामगमं न गङ्गामित्यात्मशुद्ध्यै पुरतः सुराणाम् । उत्तुङ्गकल्लोलकरेऽर्कगोलं दधे क्रमादम्बुधिरग्निवर्णम्
पत्युः प्रतीच्यास्तुरगेभगर्भरत्नैर्भृतं मन्दिरमम्बुराशि: । तस्योपरिष्टादहिमांशुबिम्बं (?) शिश्राय शोणोपलकुम्भशोभाम् अम्भोल्पमग्नार्कमिषेण लक्ष्म्याः प्रमीलितायाः प्रियसिन्धुतल्पे । तुङ्गः स्तनः पीडनपाटलः किं जातोऽनिलोद्भूतदुकूलदृश्य:
मन्ये तमोभिः कृतरथ्यरङ्गतुरङ्गरूपै रविरात्मवैरी । नीत्वोपकण्ठं धिगपाति पापैः पाथोधिमध्ये तदनु प्रसस्ने
॥२७॥
॥२८॥
॥२९॥
||३०||
॥३१॥
॥३२॥
कालीं तम:कञ्चलिकां सतारा-मुक्तामदृश्येन्दु-तरण्यु रोजाम् । सन्ध्यानुरागोरगवल्लिरङ्गा
चङ्गा मुखे (s ? ) वस्त कुहूकुलस्त्रीः ॥ ३३ ॥
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॥३४॥
॥३५।।
॥३६।।
अनुसंधान-१५ .9 सर्वप्रकाशप्रवणार्कदीपोत्सर्पच्छविच्छद्मशिखान्तसूतैः । नभःशरावक्षरितैरभारि क्षोणीतमः कज्जलचूर्णपुजैः ध्वान्तावलिश्यामलितां विचित्राकाराञ्चितोद्रुप्रकराभिरामाम्। दीपोत्सवे रात्रिवधूरपि द्यां चक्रे विलिप्योज्ज्वलमण्डनां नुः कोपेन जज्वाल तरङ्गिरागा नूनं वनस्था ततिरौषधीनाम् । प्राणेश्वरः शीतकरोऽकरोद्यना(न)मां करस्पर्शनतोऽपि तोषं स्मेरं मरन्दामृतमिन्दिरायाः सद्माल्परोलम्बकलङ्कपङ्कम् । अन्तः सरस्तारकपत्यपत्यव्रातोपमां कौमुदमाप वृन्दम् उच्चस्तरादम्बरतोऽस्तशैले पातेन तेजो यदभाजि भानोः । दीपालयस्तच्छकलायमानाः प्रत्यालयं दिद्युतिरे तदानीम् लोकेन हेमन्तसमन्तशीतावपीतसीतङ्कतया हुताशः । दा(दी)पावलीदीपकदम्बदम्भादूपे तमःसन्ततिकृष्णभूमौ मा संविगृह्येन्दुरहोदुरन्तैस्तत्राऽह्नि जिग्ये तिमिरैस्ततोऽसौ । नष्टो गृहीतोडुदलोऽथ दीप
॥३७॥
॥३८॥
॥३९॥
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अनुसंधान - १५ • 10
व्याजादभूच्चम्पकपुष्पवृष्टिः
नारीर्निरीक्ष्याभरणाद्भुताङ्गीः शृङ्गज्वलद्दीपकपङ्क्तिभङ्ग्या । टङ्कावलीस्तत्र महे महेभ्यगेहश्रियोऽप्याऽऽमुमुचुः स्वभाले ॥४१॥
दीपोत्सवे नूनमगादलक्ष्मीर्लक्ष्मीश्च वेश्मस्वकृतप्रवेशम् तस्मादलम्भ्यन्त मिथोऽबलाभिद्दीपच्छलात्काञ्चनकन्दलानि
अग्रे निजस्वामिजहासहर्षादावासलक्ष्मीरिति वीक्ष्यते स्म । तद्वारवक्त्रे गृहरत्नराजी ताम्बूलरङ्गारुणदन्तपङ्क्ति:
निर्माप्य मे रात्रिकदीपिकाः स
श्रीपर्वराट् पुम्भिरलभ्यमानम् । अशूशुधद्धेश्मसु शोकशत्रुं शङ्के सपत्राकरणाय रात्रौ
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॥४२॥
ध्वान्तद्विषा च्छिन्नरुचोऽरयो नश्चण्डांशवोऽमी इति शङ्कया किम् । रोषारुणास्तेष्वधिरुह्य तारास्तस्थुः पृथुस्थालगदीपदम्भात्
स्वस्वालयेभ्यो निरयुः कुमारा मेराज्यकै राजितपाणिपद्मा: । कर्तुं नु चामीकरकेतकैस्तज्जापाय दर्भासनजा सपर्याम् (?) ॥४५ ॥
॥४३॥
॥४४॥
॥४६॥
आह्लादलक्ष्मीं बहुलामवाप्य केऽप्यग (ग्र) धामान्तर तिह्यमांतीम् (?)
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॥४८॥
अनुसंधान-१५ • 11 धीरा निधीकर्तुमिवौषधीच्छाधीनाः खनन्ति स्म वनावनीषु ॥४७॥ दीपावलीपावनरात्रिकाएँ निर्माय मंगल्यमथो नृनार्यः । दीपद्युतादर्पकदोःप्रतापाद्(?) दान्तोदरं तल्पनिकेतमापुः दीपस्तदीयामलदीप्तिदीव्यच्चीरावृताङ्ग्यास्तिलकं किलैकम् । देहल्यनुल्लङ्घनलालसायाः सत्याः श्रियोः दर्शि(श्रियोऽदर्शि) गृहोदरेऽपि ॥४९॥ सद्वर्णपादं गुणगुम्फयोग्यं सज्जं कलावज्जनितं युवानः । भेक्षुस्तथा तल्पममा वधूभिः (?) काव्यं यथाऽलंकृतिभिः सहार्थाः ॥५०॥ गाढोपगूढस्तनपीडनादिक्रीडाः प्रदीपोऽत्र वधू-धवानाम् । पश्यन्मरुल्लोलशिखोऽन्तरन्तः शङ्के शिरोऽन्दोलयति स्म रागी ॥५१॥ पुष्पायुधायुःपरिवर्द्धकं यद्यद्यौवनद्रोः कुसुमायमानम् । यद्रागवाधैरमृतोपमं तत् किं नो युवानो विदधुर्वधूषु क्रमेण जाता यदि घूर्णनेभ्यो निर्णीतनिद्रागतयः प्रदीपाः । किं तर्हि वाच्यं रतकेलिखिन्नोऽन्तरङ्गतारुण्यवधूवराणाम् ॥५३॥ संभोगयुद्धेऽङ्गुलिकुन्तकोटि
॥५१॥
॥५२॥
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अनुसंधान - १५ 12
भ्रूचाप - दृक्तोमरघोरघातैः । प्राप्ता निरैक्षुः किमु सान्द्रनिद्रादम्भादनुत्थां मिथुनानि मूर्च्छाम्
जालाध्वना चक्षुरगोचराङ्गः प्रविश्य सौधेषु समीरचौरः । जरीहरीति स्म शयालुदम्पत्यङ्गश्रमाम्भः कणमौक्तिकानि
उत्थाय रात्रौ बहुधान्यशुद्धिसिद्धयोः श्रयन्तादपि ( ? ) हेतुभावम् । स्वस्वौकसः सूर्यकदारुहस्तौ नार्योऽचकर्षन्नहितागुणज्ञाः
तस्यां निशायामथ बालिशानां धुर्य: स तुर्यप्रहरान्त्यभागे । सञ्जातसारस्वतलक्षजापः प्राप क्षणं स्वापमिवाऽपपापः
उद्धर्वन्दमां तावदभङ्गभाग्यः सौभाग्यशोभालटभाङ्गभङ्गी । श्रीशारदां कोविदकल्पवल्लीमग्रे समग्रे हितदां ददर्श नाऽबोधि कामाधिकदां स्वपुत्रीमादावतोऽपत्यमहत्त्वमिच्छुः । यत्पादयोः पूजयदिष्टपूर्त्यैवेधा न्यधान्नाकिमणीन्नखान्नु
यत्पादयोरुल्लसदंशुदीप्रां कामाङ्कशा: किं सुरकेलिवाप्यः । नित्याऽनमद्विम्बनदम्भमज्जाद्देव्यङ्गरागाविलरक्तनीरा:
114811
॥५५॥
॥५६॥
॥५७॥
॥५८॥
॥५९॥
॥६०॥
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अनुसंधान - १५ • 13
नाऽमी नखा यत्पदयोः सुवृत्ताः किं तर्हि सा मन्त्रठकारमाला । तां लोहितां चिन्तयतां सतां यद्वश्याः कवित्वादिकलामहेला: यत्पन्नखाः प्रेमियूखलेखाशिखामुखा मूर्खमतल्लिकानाम् । कुर्वन्ति दीपा इव हृन्निकेतालोकं तमस्काण्डविखण्डनेन
भवार्णवान्तः सततभ्रमो यत् पादाङ्गलीविद्रुमकन्दलानाम् । लाभेन भो यस्य भवत्यवन्ध्यः सुधीवराणां धुरि वर्णनीयः
हीनोपमानात कविदीयमानात् । यस्याः प्रकोपं किमधारयन्तौ पादौ पादौ स्पदशोणवर्णौ
पादौ यदीयौ जलदुर्गवृत्तेरुज्जाग्रतः षट्पदरक्षकस्य । पाथोरुहोऽप्याहरतः श्रियं चेत्तव्याति (तयाऽपि) यातव्यमवश्यमेव ॥६४॥
द्योभूरुहामीहितमात्रदानां
वाचालतामञ्चति नूपुरं चेदचेतनं यच्चरणे निविष्टम् । तद्युग्मधारी हृदि तर्हि विज्ञ: स्याद्वक्त्रनिर्यद्वरनव्यकाव्यः
॥६१॥
वर्णोऽस्ति शोणस्तरबादिवाच्यस्तेनाऽस्य विश्राम्यति तारतम्यम् ।
यस्याः पदाब्जद्वय एव यत्त
॥६२॥
॥६३॥
॥६५॥
॥६६॥
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अनुसंधान - १५ • 14
द्विश्रान्तविश्वत्रयभक्तिरागम्
ऊर्वातताया यदनर्घ्यजङ्घा वल्ले: सकाञ्चीमणिकौसुमायाः ।
मञ्जीरदम्भादकृत स्वयंभूभम्भोभृतं मेरुभृदालवालम्
रक्तारविन्दं कुरुविन्दमग्निः सिंदूरमित्याद्यरुणार्थवृन्दे । मुख्यौ यदंही तदमू दधेते मूर्ध्नि स्फुरनूपुरहेमपट्टम्
पादा यदीयाः कृतपूजनानां जाड्यं जवान्नाशयितुं जनानाम् । मञ्जीरमाणिक्यमयूखलक्षा: संतन्वते कोपकटाक्षलक्षा:
ऊरुश्रियाऽऽखण्डलकुम्भिशुण्डादण्डाभिमानोद्दलनेऽद्भुतं नः । यस्याः सदा नम्रशिरस्करम्भास्तम्भाभिभूतौ पुनरस्ति खेदः
युक्त्या भुजायामवती यदीयश्रोणीतटे काऽप्यमरी न काञ्चीम् ।
शक्नोति बन्धुं न भवत्यमुष्या दिव्या यदि व्याससमासशक्तिः सम्भाव्यते स्यूतमदे भुवां चेतदर्कतूलातुलतन्तुलक्षैः ।
चेद्देवलोके तदतन्द्रचन्द्रज्योति:कलापैः किल यद्दुकूलम् जैनेन्द्र वाग्या (कृपा) लनपात्रसंविद्दानोत्तमाचार्यपरीष्टितुष्टैः ।
॥६७॥
॥६८॥
॥६९॥
॥७०॥
॥७१॥
॥७२॥
॥७३॥
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॥७४||
अनुसंधान-१५ • 15 पुण्यैः परीतां नु तनूलतां या धत्तेऽवदातद्युतिदेवदूष्याम् आश्रोणि यस्यास्तनुरस्ति पुण्यक्षेत्रं नु गौरोद्गतरुग्(क)प्ररोहम् । यत्रान्तरीयाग्रतरङ्गभङ्ग्या भान्त्यद्भुताः सीरविलेखलेखाः ॥५॥ यस्याः पुरे गर्भगनाभिकूपो यो मेखलामध्यमदीप्रवप्रः । रत्नोत्थितास्तत्र मिथो मिलन्त्यः कुर्वन्त्यलम्भाः कपिशीर्षशोभाम् ॥७६।। काले कलौ गत्वरतत्त्वविद्ये या मेखला हाटकपट्टिकायाम् । रत्नानि धत्तेऽक्षरपङ्क्तिरूपांनीवीमवैम्युत्तमवाङ्मयानाम् ॥७७॥ मध्यो न किं वा न मयैक्षि यस्याः प्राच्यो न तस्य प्रतिमासुवृष्टेः । अन्यस्तु पक्षोऽभिमतो यतोऽहं स्थूलार्थदर्शी स च गाढसूक्ष्मः जानीत यन्मूलतनूलतामप्युन्मीलितां तूलिकया कलातः । नो चेत् कथं मध्यशलाकिकायां तिष्ठत्यपारः स्तनशैलभारः ॥७९॥ सर्वेश्वरी या वरमीश्वरादेः पादेन कस्याऽपि ततिं करोति । नो चेद्वपुर्वालनयावलग्नो भग्नोऽभविष्यद्विसखण्डबन्धुः ॥८०॥ यस्याः प्रभावेन विनाशवन्ध्या
॥७८॥
समार
॥८०॥
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॥८१॥
॥८२॥
अनुसंधान-१५ • 16 सन्ध्यातिमेध्या मुखपूर्णिमेन्दोः । जाघट्टि शोणोपलकुट्टिमं वा वक्षोङ्गणे कञ्चकचक्रवर्ती आकल्पकीति कलितप्रतापां । वक्षोवनीमुल्लसितप्रवालाम् । चर्कर्ति चोलः कुचशैलभूमी यस्याः समीरोद्भुतधातुधूलीम् वैराग्यभङ्ग्या हृदयाद् यदीयाद् यः पुस्तकान्तर्गतकान्तसूक्तैः । कृष्टो बहिस्तिष्ठति रागराशिः शङ्के स लोकेऽजनि कञ्चकाख्यः ॥८३।। काश्मीरदेशस्य ददात्यदोऽत्युत्कर्षं ततः प्रीतिवशात्तदीशा । केदारमेकं हृदि कुङ्कुमस्याऽऽदत्ते स्म या वै मितकञ्चुकं नु ॥८४॥ काठिन्यमुद्धृत्य हृदो बहिर्या वर्यावकार्षीत्] कुचरूपकूटौ । तेनाऽजिजीवज्जनतां यदल्पादप्याश्रितानां करुणां विधाता लावण्यपुण्याम्बुघटौ मनोभूमत्तेभकुम्भौ रतिकेलिगोलौ । मुक्तालतापक्वफले तदुत्थज्योतिर्जले पाटलपद्मकोशौ तेजस्विवाग्बीजमणी समुद्रौ. हृद्धामसद्धर्मविवेकमौली । ज्ञानामरद्रुस्तबकाविति स्याद्यस्याः कुचद्वय्युपमानिघण्टुः ॥८७॥ युग्मम् ॥
॥८५॥
॥८६॥
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अनुसंधान-१५ . 17 श्लिष्यन्नुरोहिङ्गलरङ्गचोलं यस्याः स्तनास्फालजकोपशंसी । शुक्लोऽपि लौहित्यमुपैति हारो वीक्ष्याऽपि को वा सुकुचां न रागी ॥८८॥ कम्बुः किमु स्याद्यदकुण्ठकण्ठस्पर्धाय पूर्णोऽप्ययमुज्ज्वलात्मा । यधुच्चरत्योमिति वाद्यमानः पापापहं नो परमेष्ठिबीजम् ॥८९|| देदीव्य(प्य)ते देव्यधरारुणास्यासिन्दूरपादा कुमुदावदाता । या मानसे सौमनसे न सेवालस्याऽऽलये दिव्यसितच्छदीव ॥९॥ वाद्धि विना विद्रुममुद्बभूवाऽशोकं विनाऽस्योदलसत् प्रवालम् । बिम्बी विना बिम्बमलालगी(लीलग ?)द्वा किं धूतबन्धूकमदो यदोष्ठः ॥९॥ पद्मेन्दनाद्यद्वदनं समासभ्रूश्रीकरी ध(धा)रयते पुरापि । राज्ञो जयाल्लोहितशुण्डदडं (दण्ड-) भालातपत्रं त्वधुना तदूर्वम् . ॥१२॥ आच्छिद्य पुष्पेषुभटाद्दयालुः शङ्के स्वनासामिषतो निषङ्गम् । या न्यग्मुखीकृत्य करोति रिक्तं न्यध्याय्यधस्तद्विजपुष्पपङ्क्तिः ॥९३।। स्वत्यागधत्तूरकृतार्चशम्भोः खेदाय तद्वन्द्यपदामुपास्ते । सूक्ष्मान्तपक्ष्माङ्कुरकण्टकोद्य
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॥९५॥
अनुसंधान-१५ • 18 त्तारालियुग्दृग्दलकेतकीयाम् ॥९४|| दोलाविलासोचितकर्णफाली व्यालीढताडङ्कनिभेन बद्ध्वा । या मुख्यरूपे वहते स्वतेजः कीर्तिद्विषयोमणि-पूर्णिमेन्द्वोः यद्दोर्मयद्योतरवः सपर्यापर्याकुला विज्ञकुलार्पितेष्टाः । । शोणाङ्गुलीपल्लवलब्धशोभा:(भा-) संभारमाबिभ्रति भूषणानाम् ॥९६॥ कोटीरहाराङ्गदकङ्कणाद्यप्रमाणमाणिक्यवतीं विलोक्य । जानामि यां रत्नकरेण रत्नाकरेण वाऽऽरोहितसर्वकोशाम् ॥९७॥ प्रालेयमूर्तेस्तरलार्कबालोन्मीलन्मरीचिप्रचयेन यस्याः । उत्तीर्णवासोग्रतरङ्गधारं जागल्यतेऽङ्गं तनुते न जाने ॥९८॥ आदावभूतां जनकानुरूपे श्रीर्या च दुग्धाब्धिविधिप्रसूते । आचिच्छिदाते नु मिथोऽनुपातश्वेतौ गुणौ क्वाऽपि कलिप्रवृत्तौ ॥१९॥ या वक्त्रपङ्केरुहपातुकानां मालामिव स्तम्भितषट्पदानाम् । वीणां कलक्वाणवितीर्णकर्णप्रीति करे मारकतीं बिभर्ति ॥१००॥ य(या ?) दानगत्याद्यखिलप्रकारैः किं नो करेणोः करणिं करोति ? |
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अनुसंधान-१५ • 19 पार्थक्यमेकाक्षरतः करस्था चेद्वल्लकी नाऽञ्चति सल्लकीतः ॥१०१।। द्विः सप्तविद्योपनिषन्मणीनां या पुस्तिकायाः कपटेन पेटाम् । न्यस्तस्वदृग्(क्) चित्रकवल्लिमाराल्लाति स्म पादानतदीनहेतोः ॥१०२॥ या पुस्तकं वाचयतां जनो यद्भक्तस्तु यद्वाचयिता कुतोऽस्तु ? । येनाऽस्य यादस्पतिसर्वविद्यास्तद्दः पुनः कोऽप्यपरो न यस्याः ॥१०३॥ कण्ठेसु मुञ्चश्चिबुकाग्रचुम्बिस्थूलस्तनस्पर्शजकोपभीरुः । यस्याः करे कश्चिदमुञ्चदक्षस्रग्माल्यमर्चार्थमुरः पुरःस्थे पाणिस्थवैडूर्यकमण्डलुर्यासौवास्यदास्यप्रणयीन्दुपुर्याः । उच्चाटहेतं कटके तलौजाः किं राहुमानीय वहत्युपान्ते ॥१०५॥ नव्यप्रसूता सुरसौरभेयी या भेक्षुषां दोग्धि मनीषितानि । तेनान्तिकं वत्सकवत् स कश्चिद्यस्या न मुञ्चत्युचितं मरालः ॥१०६।। तां मानसोत्थैरथ रूपभङ्गीचङ्गीकृताङ्गीमिह गीरधीशाम् । व्याकोशकाव्याम्बुरुहैः सुवर्णश्रीवर्णनीयैर्महितुं स लग्नः ॥१०७॥ मुकारकल्पां सकलामराणा
॥१०४॥
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अनुसंधान-१५ • 20 मग्रेरस(सर)त्वेन सरस्वति ! त्वाम् जाड्येन चण्डेन विडम्बितः त्वाम् गोस्वामिनी विज्ञपयाभ्य(म्य)विनः ॥१०८॥ जाड्यन पीड्ये जनयित्रि !. चित्रं वेविद्यमानावरणव्रजोऽहम् ! तेनेदमुच्छिन्द्धि निजांहिनिष्ठा
पृष्ठोल्बणाग्निष्टनिषेवणान्मे ॥१०९।। स्वभावस्वत्त्व(सत्तत्त्व?) वती सती मे दभ्रं हृदभ्रं श्रितवत्यपि त्वम् । हत्वा तमः प्रातिभसुप्रभातं नातन्तनीषीदमयौक्तिकं ते ॥११०॥ भाग्योदये कामगवी पुरोगा संपादयन्ती हितमाश्रितानाम् । तस्मादभाग्येऽपि मदिष्टमेकं तेभ्योऽधिकायास्तव दातुमर्हम् ॥१११॥ प्रेखोलनामौलिगचामरालीदण्डाः किरीटाग्रनिविष्टरत्नाः । जाड्यं हरन्ते तव कर्मकों ऽप्यैङ्कारवर्योपमया स्मृताङ्ग्यः ॥११२॥ तेनैतदल्पार्थकृतेऽर्थना तेनाऽर्हा फलायेव मरुल्लतायाः । मातर्ममाऽतः करुणाकटाक्षं मुञ्चोपरिष्टाद् घटितेष्टलक्षम् ॥११३॥
स्तवनम् ॥ विज्ञप्तिमेवं कृतवन्तमाख्यत्तं मूर्खमुख्यं विधुजिन्मुखी सा । उत्तिष्ठ पात्रीकुरु वक्त्रमित्थं
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अनुसंधान - १५ • 21
चक्रे च वक्रेतरकर्मकोऽसौ
देवी तदा तस्य दिनोदयाब्जस्पर्द्धाकरस्तोकविकासिवक्त्रे । दत्ते स्म वैडूर्यकमण्डलूद्यनीलाब्जनालीममृतस्य धाराम् ॥११५॥
याऽनर्गले निर्गमितेऽद्य मान्द्ये वागीशया गौरद्गौषधेन
रेजेऽस्य किं पथ्यपरायणायाः
शास्त्रेषु बुद्धेः स्फुरणाय यष्टिः
तस्यां च किञ्चित्कृपणाज्यधारान्यायेन जिह्वोपरि लग्नवत्याम् । सा पञ्चषोच्चारितबीजवर्णा विद्युद्वदान्य (न्या) व्यवधत्त देवी यस्याः प्रसादेन मुखादवापे स्वप्नोऽयमीदृग्घनपुण्यलभ्यः । साऽपि प्रमीलाऽस्य जगाम दूरे धिग् वेधसोऽभीष्टवियोगदत्वम्
तावद्वियत्तालतरौ विशाले पिङ्गाङ्गभाः पश्चिमभागरागः ।
म्लानोडुपुष्पाद्विपुलाभ्रतल्पादुत्थाय यान्त्यां रजनिप्रियायाम् ।
॥११४॥
॥११६॥
॥११७॥
प्राचीकटद्वासरमर्कटेश:
प्राचीशिखायां शिखिशोणमास्यम् ॥११९॥
पूर्वायुवत्या निदधेऽस्य जापावसानमङ्गल्यकृते स्वमौलौ ।
बालार्करुग्घट्टपटीपटीयःपाटल्यनिर्धादि (टि?) तधातुरागा
॥११८॥
॥१२०॥
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अनुसंधान-१५ • 22 भ्रष्टांशुकः श्राग् विललाग भूयो रागाविलः शीतकरोऽम्बरान्ते ॥१२१॥ जहार हारावलिहेतवेऽहः - श्रीस्तारमुक्तौघमभूत्तदा किम् ? । भूयस्तरां स्तात्पुनराप्स्यतीयंश्यामा समुद्रप्रियपुत्रपत्नी ॥१२२॥ पाथोधरध्वानमपार्थयन्तो ये स्म प्रथन्ते दधिमन्थनादाः । मन्येऽपविघ्नाग्र(ग्रि)मवत्सराप्तिप्रौढोत्सवे ते पटहप्रणादाः ॥२३॥ उद्योगिनां जागरणाय साधा रण्येन दीर्घाः कृकवाकुघोषाः । पुण्यार्थमद्रव्यविभातभेरीभाङ्कारशोभां बिभराम्बभूवुः ॥१२४॥ शोणौ धुनीधन्यवधूमिपाणिप्रेडोलिनौ प्रेमगुणेन बद्धौ । भूयो भवद्योग-वियोगवर्यावासञ्जतां कोकविलासगौलौ (?) ॥१२५।। वर्धापयन्ति स्म सुपर्ववध्वः श्रीवीरनिर्वाणदपर्वरात्रिम् । पेतुः समन्तादिति शाड्वलेषु प्रालेयलेशव्यपदेशमुक्ताः ॥१२६॥ दुग्धाज्ययोर्धामनि चेदियन्तः स्युर्मोदकाः पर्व तदेति मन्ये । स्मराब्जहस्ताभिनयालिगुञ्जा - गीभिर्न कस्को जहसेऽब्जिनीभिः ॥१२७॥ दीपालिकापोषितपूर्जनाना
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अनुसंधान - १५ • 23
मर्को मनोभिः किमु पारणोत्कैः । तमरोषरक्तो - (?)
आकृष्यऽध्यारोह्यत प्रागचलाग्रभागम् कोवेदभानाउ (मु ? ) दिते विभाना - ( ? ) मीशे तमः स्थास्यति दृश्यमुर्व्याम् ।
छायामयस्तु प्रतिवस्तुपुञ्जस्तस्य स्थितः पश्यत दुर्जयस्य
जातेऽथ तेजोऽरुणिते प्रभाते नातेनिरे के सविशेषवेषम् । दृष्ट्वेव नव्यांशुकमर्कमादौ यातानुयाते कुशलो हि लोक:
ताम्बूलरक्ताधरदन्तजिह्वा: सर्वेऽभवंस्तच्छुभमेव तेषाम् । ये तद्दिने सन्मुखरागयुक्तास्तेऽशेषवर्षेऽपि विषादमुक्ता:
भाग्यश्रियाऽऽलस्यगमायपुंसांभाले समुक्ताफलरक्तचोला । लाजाढ्यकालेयजपुण्ड्रदम्भाहोर्वल्लिरुच्चै रचयाम्बभूवे
॥१२८॥
॥१२९॥
॥१३०॥
ताम्बूलबाहुल्यविलोहितास्याः शुभ्रांशुकेन्दुद्युतिदत्तदास्याः ।
सन्तो विलेमुः (सुः) किमिलावतीर्णाः
सौदामिनीसुन्दरशारदाब्दाः
॥१३१॥
॥१३२॥
॥१३३॥
नासाग्रलग्ना क्षतपूर्णपुण्ड्रव्याजाद्र्धरक्तोज्ज्वलबिन्दुबाणम् । भ्रूयामलज्यालिकचापदण्डे
जेतुं कलि (लिं) सन्दधिरे कुलीनाः ॥ १३४ ॥
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अनुसंधान - १५• 24
परस्परेण प्रणयप्रवीणा:
सन्तः प्रणामप्रवणोत्तमाङ्गाः । किं भालभूसम्भृतभाग्यभारा भुग्नीभवत्कन्धरतामधार्षुः
सर्वादरः सुन्दरकूरसङ्गः संवत्सरस्याऽऽदिमवासरश्च ।
धान्येषु धनेष्वपि (धनेषु धान्येष्वपि ? ) राजमाषैरेवाऽऽप्यते स्म त्रिकयोग एषः
॥१३६॥
॥ १३५ ॥
रक्तः प्रतापाद्धृतकूरकीर्त्तिः
स्थालासनः श (स) स्यकुलस्य राजा । भुक्तिक्षणेऽन्दोलितपाणिपद्मो
द्यच्चामरोऽराजत राजमाष:
ढक्कादिगाढध्वनितैरकर्ण
व्यापारिणः केन कृता वदान्याः । नो चेदनाकर्णितचाटुवाचरिछन्दन्ति दौस्थ्यं कथमर्थिपुंसाम् ॥१३८॥
चेत्तानि चित्तान्निरयुस्तदा किं
जातं यदेकं हि हृदालयस्थम् । दातेदमेवाऽस्य समग्रमुर्वी
ध्यातुः पुनस्तत्र दिनेऽस्य निद्रामुद्राविमुक्ताक्षिसरोरुहत्वम् । आसेदुषः स्वान्तसरस्वतिस्थे स्वप्नाम्बुजे बीजमतिष्ठदेकम् जानेऽस्य बीजान्यपराणि जापे
दत्तापमाना वनितेव निद्रा ।
कोपादुपादाय चला पलायाञ्चक्रे नरं कस्य मणिः स्थिरो वा ॥ १४०॥
॥१३७॥
॥१३९॥
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अनुसंधान - १५ • 25
दत्तप्रकाशो रविरग्रहोऽपि
यच्चोत्तमानां चितपञ्चवर्णं विघ्नावलिव्यालविलोपितूर्णम् । कलाशिखाशालिशिरः शिखण्डिश्रीखण्डनं खेलति हृद्धनेषु
पापापनोदे पटुवाद्यमानः सद्यो यदेवोच्चरतीति हेतोः । श्रीवासुदेवः सुतनिर्विशेषं चुम्बत्यबङ्गिप्रबलास्थिकम्बुम्
नाऽलीकसूनोर्लपनः प्रतोलीरालोक्य रुद्धाः सकलान्यवर्णैः । पूतं परस्पर्शभयेन जाने यन्निर्ययौ भिन्नकपोलभित्ति तिस्रोऽपि रेखास्त्रिजगन्ति गौरज्योति: कलासिद्धिशिलाविशाला । सिद्ध: सबिन्दुस्तदुपर्यतो यल्लोकस्य किं रूपकमल्पमातम्
पञ्चार्हदादिप्रथमाक्षरोत्थं
जैना: समग्रागमसारमाहुः । षड्बिन्दुखण्डेन्दु-विरिञ्चिनामोपनं यदन्येऽप्यधिकं त्रयीतः
योगिप्रधान प्रणिधान धारागोदावरीखेलिवितीर्णलक्ष्मि । हालक्षमापालति यत्पुरस्थै र्वर्णद्विपञ्चा[श]दुदारवीरैः
यद्वीजमेकेन्दुकलां दधानां जिह्वादलं यावदलंकरोति ।
॥१४१॥
॥१४२॥
॥१४३॥
॥१४४॥
॥१४५॥
॥१४६॥
॥१४७॥
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अनुसंधान - १५•26
स्यात्तावदास्याम्बुरुहस्य किञ्चित्सङ्कोचिता साऽनुचिता न चिन्त्या || १४८ ||
आमोक्षमेकोऽप्यरिहादिवर्णो
रातीति विप्राणयितुं श्रितानाम् । तत्पञ्चकोत्थं यदवैमि पश्यत्युत्कन्धरं वस्त्वधिकं ततोऽपि
वाग्देवताया वदनारविंदा
तीजमासाद्यत यद्यनर्घ्यम् । तत्पारिजातोऽजनि मंजरीमानिस्सीमसौरभ्यमभूत् सुवर्णम्
आराद्धसिद्धान्तसुरीवरीयःप्रसादजस्वप्नमधोर्महिम्ना । सौघाऽजनि प्रागकरीरसंज्ञा (2)
वीरुल्लन्नद्य कवित्वपुष्पः
॥१४९॥
॥ १५०॥
॥१५१॥
श्रीमन्दिरत्नाख्यगुरुप्रसादप्रासादवासाप्तसुखः स चेदम् । सारस्वतोल्लास इति प्रतीतं स्फीतं गुणैरातनुते स्म काव्यम् ॥१५२॥ सन्तु स्तनन्धयधियोऽध्ययनाय बद्धमेतन्मुखाब्जमणिमण्डनतां नयन्तः । श्रीभारतीति थि (स्ति) मिताक्षरमन्त्रबीजप्रष्ठप्रसादमधिगम्य कविप्रकाण्डाः ॥१५३॥
इति सारस्वतोल्लासकाव्यम् ॥ श्रीः ॥
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अज्ञातकर्तृक-संस्कृत-अपभ्रंश भाषामयं स्तोत्रषट्कम् ॥
सं. मुनि रत्नकीर्तिविजय
चाणस्मा जैन ज्ञानभंडारनी हस्तलिखित प्रतमा २४ तीर्थंकरनी स्तुति व.नो संग्रह छे. तदन्तर्गत नंदीश्वरादि स्तुतिओ तथा वर्तमानचोवीशीना आदिनाथ - शान्तिनाथ - नेमिनाथ - पार्श्वनाथ अने महावीरस्वामी, आ पांच जिनेश्वरोनां स्तोत्रो प्राप्त थयां छे. तेमां, नंदीश्वरादिस्तुतिओमां अनुक्रमे नंदीश्वरद्वीप, सम्मेतशिखरतीर्थ पर सिद्ध थयेला २० तीर्थंकरो, अष्टापद पर्वत पर बिराजमान २४ तीर्थंकरो, श्रीसीमंधरस्वामी भगवान, समकाले थयेला १७० तीर्थंकरो, त्रण लोकनां जिनचैत्यो, १२ अंगस्वरूप ज्ञान अने महावीर स्वामी भगवानना शासनरक्षक सिद्धायिका देवीनी स्तुतिओ छे.
त्यार बाद पांच-पांच गाथा प्रमाण पांचे तीर्थंकर भगवंतनां स्तोत्रोमां तेते तीर्थंकर भगवंतना वर्ण, लांछन, पूर्वभवो, पांचे कल्याणकोना मास तथा तिथि, तथा शरीर प्रमाण व.नुं वर्णन छे.
___आशरे १६मा सैकामां लखाएली पोथी लागे छे. प्रतिनुं लखाण १०मा पत्रना बीजा भागमां समाप्त थया पछी, एक भंसाएली पंक्तिमां "संवत १५९० वर्षे" एवं वांची तो शकाय छे. कर्त्तानुं नाम मळतुं नथी.
आमां प्रथम रचनाने बाद करतां शेष बधां स्तोत्रो अपभ्रंश भाषामां छे, ते उल्लेखनीय छे.
श्रीनन्दीश्वरादिस्तुतयः ॥
नन्दीश्वरद्वीपमितैर्जिनानां प्रासादशृङ्गैर्भुवि भासमानम् । विद्याधराणामसुरामराणां नाथैः स्तुतं मङ्गलदायि भूयात् ॥१॥ सम्मेतशैलामिधभूमहेला - शिरोवतंसास्त्रिजगत्प्रशंसाः । लब्धप्रतिष्ठाः शिवसौख्यलक्ष्मी कुर्वन्ति ते विंशतितीर्थनाथाः ॥२॥ अष्टापदस्था निजमानवर्णा - श्चितैर्युताः श्रीभरतेन भक्त्या । संस्थापिता तरमानतेन्द्राः(?) श्रीआदिनाथप्रमुखा जिनेन्द्राः ॥३॥
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अनुसंधान - १५ • 28
1181
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सीमन्धरं निर्ज्जरकोटिसेव्यं तीर्थङ्करं क्षेमकरं जनानाम् । सद्देशनाप्रीणितभव्यसङ्घ - मनन्तलक्ष्मीप्रदमानमामि कैवल्यलक्ष्म्या तिथिमेयकर्म - भूमी: पवित्राः सममेव चकुः । उत्कृष्टकाले शतसप्ततिस्ते तीर्थङ्करा मे शिवदा भवन्तु स्वर्गे च पातालतले विशाले भूलोकमध्ये बहुतीर्थमाले । भूतानि भावीनि च सन्ति यानि जैनानि चैत्यानि नमामि तानि ॥६॥ संदर्शितानेकभवस्वरूपं शश्वत्पतङ्गप्रमिताङ्गरूपम् । मिथ्यात्ववल्लीलवने लवित्रं ज्ञानं जगद्दीपमहं स्मरामि सिद्धायिका वीरजिनस्य तीर्थ सेवापराणां भविकव्रजानाम् । विघ्नापहा शासनदेवतेयं माङ्गल्यमालामतुलां तनोतु
॥७॥
॥८॥
इति नन्दीश्वरादिस्तुतयः समाप्ताः ॥
( २ ) जय जय पईव कुंतलकलाव विलसंत बहुलकज्जलसहाव । कलहूयकंति मरुदेवि - नाभि- निव-तणय रिसह वसहंक सामि ||१|| धण मिहुण तियस नरनाह देव निव वयरजंघ मिहुणे स चेव । सोहम्म - विज्ज- अच्चुय - चक्कि - सव्वट्टसिद्धि अवयरीअ इत्थि ॥२॥ आसाढबहुल चवीउ चउत्थि कसिणट्ठमि जायउ मासि चित्ति | इक्खा भूमि नयरी विणीय धणु पँचसय तिहि तणुपणीय || ३ || चित्तट्ठमि गिन्हइ सामि दिक्ख चउ सहस समन्निय कसिणपक्खि । इग्यारसि बहुली फग्गुणस्स संपज्जइ केवलनाण तस्स ॥४॥ माह वदि तेरसि उज्जल निय जसि पुव्वलक्ख चुलसीय जूय । जय पढम जिणेसर सूअ भरहेसर करि पसाउ निम्मलचरीय ॥५॥ ॥ इति श्री आदिनाथस्तोत्रम् ॥
( ३ )
वीससेण अइरादेवि नंदण तणुहरण जय अपुव्व हरिणंक अखंडिय तणु किरण | सिरिसिरिसेण कुरु - नर सोहम्म खयर निव
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अनुसंधान - १५ • 29
पाणय सो अपराजीय अच्चुय इंदभव ॥१॥ विज्जाहिव गेविज्ज नरवइ मेहरह
सव्वट्ठ अवयन्नड गयउर संतियह ।
भाद्रव वदि सातमि सामि चवण तुह जिट्ट कसिण तेरसि निसि जीयउ जम्ममहो (ह) ||२|| जिट्ठ चउद्दसि बहुलीय संजम सिरि वरीय पोस सुदि नउमि दिणि केवल वरि वरीय 1 जिट्ठ कसिण तेरसि निसि कंचणकंति तणु मुक्खसुक्ख पहु पामीय छंडीय कम्मवण ॥३॥ चउसट्ठि सहस अंतेउर चुलसीय लक्खय हय-गय-रहवर छन्नवइ कोडि पायक तह य । नवनिहि चऊद रयण छ खंड सभूमिवर धम्मचक्क सोलसमु पंचम चक्कर ||४|| चालीस - धणुह - देहो लक्ख-वरिसाण जीवियं जस्स । सो संतिनाहदेवो करेइ संघस्स सिवसंती ॥५॥ ॥ इति श्री शान्तिनाथस्तोत्रम् ॥ (8)
पंचजनि आउरिय संख जिणि दिणह अज्जवि जसु पय सेवइ लंछणमिसि जिणह । रायमई मणवल्लह सोहग सुंदरह नेमिचरीय न्निज्जइ फलिणी सामलह ॥ १॥ आसि धणो तसु दइया धणवइ सुहमसुर चित्तगइ विद्याहर रयणमइ महिंदसुर । अपराजीय प्रीय प्रीयमइ पायारणह संखनिवो तसु जसुमइ प्रीय अपराजीयह ॥ २॥ नवमभवे सोरियपुरि समुदविजय घरणि सिवादेविराणी नंदण जायुकुल तसुण कन्ती किसिण दुवालसि अपराजीय चवणु
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अनुसंधान - १५ • 30
श्रावण सिय पहु पंचमि मंदरगिरिन्हवण ॥३॥ सीय छट्टि सावण सहस समन्निय वय गहण रेवगिरिवर सामी रायमइ परिहरण । दिण चउपन्न अणंतर आसो मावसह .
केवलनाणी विहरइ तणु जसु दस धणुह ||४|| जीविय वरिस सहस्सं आसाढे अट्ठमीय सिय पक्खे । संपत्तं सिद्धिसुहं उज्जिते नमह नेमिजिणं ॥५॥ ॥ इति नेमिनाथ स्तोत्रम् ॥
(५)
सामि सामलय तणु कंति किरणावली जयउ विलसंत कल्लाण- घणमंडली । जयउ धरणिंद- फणि रयण रयविज्जला भविय घण मोर नच्चंति हरिसुज्जला ॥१॥ नाह मरभूइ भवि भमीय वणि गयवरो देव सहसार विज्जाहर ब्भूअ सुरो । विज्जनाहो य गेविज्ज कणयापहो चक्कवट्टी य पाणय विमाणच्चुअ ||२|| चित्त चउत्थीइ कसिणाइ वाणारसी नयरि निव आससेणस्स वामासई । पोस दसमीइ कसिणाइ जम्मुत्सवो तास इग्यारसी गिण्हए संजमो ||३|| कसिण चउत्थीइ चित्तस्स तुह केवलं सुद्ध अट्ठमहिं श्रावणह पत्तो सिवं ।
नाह तणुमाण नवहत्थ फणि लंबणो वरिस सउ आउ जिण नयण आणंदणो ॥४॥
जिण विघन विणासण पाव पणासण पास पसन्नउ होउ महो ।
पउमावइ देवी जसु पय सेवी मनवंछित सुह देउ महो ॥५॥ ॥ इति श्री पार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥
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अनुसंधान-१५ • 31
(६) जयउ सो सामी वीर जिणंदो पिक्खिय लंछणि जासु मइंदो । संगम कामिणि मणिमणि वासो काम करी किम करइ उल्लासो ॥१॥ नयसार सोहमि मिरीय सुबंभे कोसीय सुर वसुमित्त सुहम्मे । अग्गिजोई ईसाणग्गिभूई सिरिभारदह महिंद चउगई ॥२।। थावर सुर वसुभूइ य सक्के हरि नारय सीह नारय चक्के । सकीय नंदण पाणय चवीउ देवाणंदा ऊअरि अवयरिउ ॥३॥ सीय छठ्ठि साढह वसीउ बियासी दिणि आणेई हरिणेगमेसी । कुंडगामि सिद्धत्थह नरवइ वालंभ त्रिसला तसु कुखि आवइ ॥४॥
चैत्रसीय तेरसि जायु जम्म मेरु कंपावीय सुणीइ रम्म । छप्पियइ नंदण दईय जसोआ नंदिवर्द्धन पहो जाणे भाया ॥५॥ बहुल दसमि पहु मगसिर मासह दिक्ख लेउ सहीया उवसग सहस । सिय वइसाह दसमिई केवल कित्तीयमावस सुद्ध सीय निम्मल ॥६॥ इय जिण वीरह कणय सरीरह सत्त हत्थु उच्चत्त तणु । जय गणहर गोयम जगि जस उत्तम
फलीप सयल कल्लाणवण ॥७॥ ॥ इति श्री महावीरस्तोत्रम् ॥
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कमलपञ्चशतिका-स्तोत्र ॥
___ -सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
आ कृति ए संस्कृत काव्य-साहित्यना एक अद्भुत नजराणां समान कृति छे. १३० पद्योमां पांच जैन तीर्थंकरोनी स्तवना करती आ रचनानी खूबी ए छे के तेना प्रत्येक पद्यना प्रत्येक चरणमां 'कमल' शब्द गुंथी लेवामां आव्यो छे; अने एनो अर्थ प्रत्येक चरणे भिन्न भिन्न छे. १२८ गुण्या ४=५१२ थाय; ए रीते आमां ५१२ वार 'कमल' शब्द भिन्न भिन्न अर्थमां गुंथी लेवामां आवेल छे. आमां श्लेष आदि अलंकारोनो तथा विविध शब्दसंयोजनोनो आश्रय, अलबत्त, लेवामां आव्यो ज छे. परंतु तेथी कविनी क्षमतामां स्हेज पण ऊणप आवे तेम नथी; खरेखर तो एमां ज कविनी क्षमता प्रगट थई छे. अने आ कारणे, कविए स्वयं प्रयोजेनु 'कमलपञ्चशतिका' एq नाम पण सार्थक बने छे.
___ पराकाष्ठा तो त्यां छे के कर्ताए ४ पद्यो (१२१ थी १२४) प्राकृत भाषामां लख्यां छे, अने तेमां प्रत्येक चरणमां 'कमल' शब्द प्रयोजी बताव्यो छे !
आ रचनाना सर्जक पंडित हर्षकुल गणि, इतिहासकारोनी नोंध प्रमाणे विक्रमना १६मा शतकमां थई गया छे, अने ते गच्छाधीश श्रीहेमविमलसूरिना शिष्य हता. तेमणे सूत्रकृतांगसूत्र पर दीपिका' टीका, मुग्धावबोध-औक्तिकनी टीका, कविकल्पद्रुम, काव्यप्रकाशटीका वगेरे अनेक ग्रंथो रच्या छे. (जैन सं.सा.नो इतिहास-१, -ही.र. कापडिया, पृ. ५१, २८८ व. प्र.ई.१९५६, वडोदरा)
आ स्तोत्रनी एक प्रति छाणीना प्र. श्रीकांतिविजयजी शास्त्रसंग्रहमां उपलब्ध छे (क्र. ७९१). तेनी झेरोक्स कोपीना आधारे प्रस्तुत संपादन करवामां आव्युं छे. प्रतिनां ८ पत्र छे, अने सर्वत्र टिप्पणो नोंध्यां छे, जे उकल्यां तेवां अत्रे पण मूकी आप्यां छे. प्रतिमां लेखन संवत् नथी, परंतु पडिमात्रानी लिपि तथा प्रांते पुष्पिकारूप उल्लेख वगेरेने आधारे कर्तानी पोतानी लखेली के पछी कर्तानी नजर समक्ष लखायेली प्रत होय तेम अनुमान थाय छे. आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ अने महावीरस्वामी-एम पांच तीर्थंकरोनी संयुक्त स्तुतिस्वरूप आ रचनामां एकाधिक स्थले आदिनाथ वगेरे एक प्रभुनुं नाम लखीने, अन्य ४ नामो पण त्यां जोडी देवानी-जोडीने वांचवानी सूचना, कर्ताए आपी छे.
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अनुसंधान-१५ • 33
आ स्तोत्रनो एक अंश, संभवत: २५ पद्यो प्रमाणनो अंश, साराभाई नवाबे संकलन करेल प्राचीन जैन स्तोत्र सन्दोहमां जोयानुं सांभरे छे. परंतु समग्र स्तोत्रनी तो तेमने पण जाणकारी नहोती, ते पण तेमांनी नोंध थकी स्पष्ट थाय छे.
पं. हर्षकुलगणिकृत कमलपञ्चशतिका-पञ्चजिनस्तोत्र सटिप्पण ॥
श्रीनिर्वृतिकमलदृशः करकमलक्रीडनैककलहंसम् । प्रणतापूरितकमलं' प्रातःसमये सुदृष्टमुखकमलम् ॥१॥ जिनपं सश्रीकमलं सुरनायकसेव्यमानपदकमलम् । प्रतिपादं कमलपदैः पृथगर्थैः स्तौमि 'वरकमलम् ॥२॥ युग्मम् ।। अक्षीणलक्ष्मीकमलङ्घनीयवाचं भवामे 'कमलाभिधानम् । दीनोल्लसत्शूकमलब्धदोषं पङ्कप्रणाशे "कमलस्वभावम् ॥३॥ युगादिनाथं 'कमलाङ्कवक्त्रं गीतप्रतापं कमलाननाभिः । संसारदुष्टाऽ कमलप्रमुक्तं स्तवीमि निःशङ्कमलास्यरङ्गम् ॥४॥ अनंतसंवित्कमलं भजे विभुं स्वपाणिदीप्त्या "कमलाऽपलापिनम् । अचाल्यचित्तं 'कमलाविलासतो नश्यत्तमःशोकमलक्ष्मविग्रहम् ॥५॥ मात्राधिकत्वात्कमले न तुष्यसि प्रियप्रदः १५सत्कमलोपलक्षितः । जिनेन्द्र मुक्ताङ्कमलक्ष्यदर्शन: पदं न ननं कमलंभयः शुभम् ॥६॥ बाह्यं तथांतरमसौ कमलं भिनत्ति मात्राधिकं “कमलवं न दधाति माने । एनोगतांशकमलंबपरप्रभाव "भूभृद्वरीकमलसेतरतुल्यसेव्यम् ॥७॥ पश्यन्तमेकमलकाधिपतीभ्यपूज्यं सेवे शिवार्पकमलक्तकरक्तपादम् । क्षोणीविशे कैमलंकपदाब्जसक्त- सच्चञ्चरीकमलकोच्चयवृद्ध्यपेतम् ॥८॥ व्याख्याक्षणे कमलमूश्चतुराननत्वात् ख्यातस्तथा “कमलबन्धुरिव प्रतापी । पद्मापति: कमलनाभिरिव प्रभुस्त्वं ध्यानं करोषि "कमलासनमाश्रितः सन् ॥९।। १. लक्ष्मी, २. शोभा, ३. औषध, ४. जलरूपं, ५. मृगाङ्क, ६. स्त्रीभिः, ७. पापमलेन मुक्तः, ८. नृत्य, ९. कं सुखं मलं निधरति, १०. ताम्र, ११. वराङ्गना, १२. निःकलङ्क, १३. शरीरं, १४. कामे, १५.क्षौम, १६.कलङ्क, १७.रोगं, १८.कामेच्छा, १९.नृप, २०. रङ्क, २१. अरकं पुष्टं, २२. उत्तमभ्रमरं, २३. ब्रह्मा, २४.रविः, २५.कृष्ण, २६.पद्मासन ।
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अनुसंधान-१५ • 34 संक्षिप्तशोकमलयाट्रिजशीतवाक्यं विस्तार्यशोकमलपन्तमवद्यवाचम् । मात्रोल्लसत्कमलसंसृतिकल्पवृक्षं सत्पुण्यतोकमलवद्भिरनाप्यमीडे ॥१०॥ मानाह्यशोकमलमुक्तपरित्यजन्तं संस्तौम्यभीकमलयुक्वनिताङ्गरत्नम् । क्षिप्तार्यनीकमलघुप्रशमोपसेव्यं त्वां मात्रिकाधिकमलं श्रयतां दविष्टम् ॥११॥ संभूषितांतकमलर्कसमं घनाप्तौ त्यक्तातुलांशुकमलज्जमपीशरम्यम् । सत्सेवितांतिकमलव्रजदत्तदुःखं श्रेयोलतासु कमलं किल मात्रयाढ्यम् ॥१२॥ अंहस्तमोऽर्कमलपूज्यसमात्रिकत्वे निर्नाशितान्तकमलक्ष्मिकृतानुकम्पम् । श्रेय:कुलाङ्कमलयोचलकैरगम्यं सक्षिप्तकल्कमललंन्तमिनं वशाभिः ॥१३।। नष्टान्तरायकदलर्कमलार्भमद्रमेघ: समात्रिकतयामलाढ्य देहम् । त्यक्त्वा सुराङ्कमलषन्नपि मे समेतो मोक्षं 'निरङ्कमलभापगमं विधेहि ॥१४|| अनेकार्थान् जल्पनकमलमुखान् शब्दनिवहाँस्तथैवाचक्षाणः कमलवमुखान् वर्णनिकरान् । क्रियाकाण्डे सम्यक्कमलकलितं तारयसि नो मयि श्रेयोलक्ष्मीकरशुकमलस्वार्द्रनयनम् ॥१५॥ जय श्रीमन्नेतः "कमललमहामान्यमहिमा प्रबोधं तन्वानः कमलसदृशाऽमित्रजनयोः । तुषारस्फारश्रीकमलतुलनामेति जिनवाक् चरित्रश्रीकणे कनकमैलवद्भाति भगवान् ॥१६॥ भवं व्यापद्वार्द्धः कमलति भवान् शोषकरणे यशःप्राञ्चत्पुष्पस्तबकमललान्तङ्कहरणे । सुराधीशाभ्यर्य: कमलसदृशत्वेन विदितः सदारिष्टाघाते जयति कमलाधीशमहिमा ॥१७॥
१.चन्दन, २. वृक्ष, ३. मरुदेश, ४.अपत्य, ५. सर्प, ६. वञ्जुल, ७.कलङ्क, ८. निर्भय, ९.विष्टा, १०.मालं कपटे, ११.अन्वय (अन्तक-यम?), १२.कंदर्प १३.कामलं वसन्ते, १४. जन, १५.यम, १६.ध्मात, १७. चेतः, १८.पाप, १९.लड विलासे, २०. रोगीश्वा, २१.मालं वन, २२. अकं दुःखं, २३. मालं वसादि २४.अङ्को नाटकं, २५.लषी कान्तौ-अनिच्छन्, २६.अङ्कः कलङ्कः, २७.अलभा-लाभान्तरायत्यागः, २८.वकाराद्यान्, २९. धारय, ३०.रविः, ३१.मंडल, ३२.मित्र, ३३.एरण्ड, ३४.को वायुः शीतलत्वात्, ३५.मंडः सर्वरसाग्रं सरसत्वात्, ३६.मण्डो भूषणं, ३७.कोऽग्निः, ३८.मण्डो बाणम्, ३९.मण्डल: सर्पविशेषः, ४०.को मयूरः, ४१.तस्य मण्डं पिच्छं, ४२.कृष्णः ।
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अनुसंधान - १५ • 35
गिरीश: श्रीसार्व्वप्रकटकमलाङ्गोद्भवहतौ गभीरः श्रीपार्थः कमलनिधिवत्सद्गुणमणिः । जनान्तर्बाहीकाभयकमलकारः कलिमलं ममच्छिन्द्यादीश! कमलरिपुवद्विश्वविपिने ॥ १८ ॥ ददानः सद्बोधं कमलजनतानामपि विभो ! - ऽ द्वितीयत्वे पूर्णः कमलश इव प्रीतिकरणः । परिस्फूर्जत्कीर्त्ति स्फुरति कमलाभृद्युतिसिता क्रियाणां पुण्यानां तवककमलापं प्रवदतः ||१९|| प्रतीक्ष्यः स्वर्गाधीश्वर कमलनाथादिमसुरैमहातेजस्त्वेन त्वमसि कमलः कर्मदहनः । सतां विघ्नव्यापव्यपगमविधौ “भूषकमलस्तव श्लोकः पूर्णं कमलभवमप्याशु जितवान् ॥२०॥ तमोदैत्यध्वंसे "कमलशयवद् भाति भुवने नमत्पुंसामीशो भविकमल (ला)लीनिर्मितिचणः । परिक्षिप्तन्यक्षाऽहितैकमैलल: पावनगतिर्जगत्प्रौढावासांगणकमललीभूतसुयशाः ॥ २१ ॥
१२
चिरंजीयात्सार्व: "कमलरुहपाणिक्रमयुगः स्वयंभावात्सेवाऽणुर्कमललेंगीर्वाणनिकरः । सदा सम्यग्निर्नाशितनिजयश: स्तावकैमलः चलन्मायुर्दुष्टज्वरकमललाद्यामयहर ( : ) ||२२|| यदाऽहं त्वत्सेवां चकमलभिकर्मीकृतसुखस्तदास्यां सत्पुण्यात्कमलऽसि वधत्याजनकृते । चरित्रस्वीकारे कमलऽयमलोसीन्द्रियदमे
१. स्मर, २. समुद्रः, ३. भैषजकारो वैद्यः, ४. मृगारिः सिंहः, ५. कमरो मूर्ख :, ६. कलश, ७.कलाभृच्चन्द्रः, ८.कलापम्, ९. जलपतिर्वरुणः, १०. . मधूरधारी कार्त्तिकेयः, ११. गणेशः, १२.जलभवश्चन्द्रः, १३.जलशायी कृष्णः १४. भविकक्षेममंडली श्रेणी, १५. रिपु, १६. मंडल: श्वा, १७. मंडलं परिधिः, १८. जलरुहं पद्मं १९. निपुण:, २०. मंडलं द्वादशराजकं २१. मंड: शोकः, २२. मंडलं कुष्टं, २३. अभिलषितवान्- आत्मनेपदमनित्यमिति, २४. कमठं आचष्टे, २५.कमठः कच्छपः स इवाचरतीति कमट् ।
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अनुसंधान- १५ • 36
ममत्वान्निर्मुक्तः कमलपि यथा नैव भवसि ||२३|| शरप्रासप्राञ्चत्कर्मलमुखशस्त्राङ्कितकरो
गृहस्थस्त्वे स्वामी कमलकरणो नैव चरणे । मदको धव्यापत्कमलभरनिर्नाशनचण:
प्रणम्यः श्रेयः श्रीयुवतिकमलस्त्वं तनुमताम् ॥२४॥ यथावर्णज्येष्ट कमलनलमर्वत्यनुदिनं
७
सुरज्येष्टं स्पष्टं कमलनिशमाशंसति यथा । यथा चाहर्नाथं "कमलति नयादर्कयति वा त्वदेकत्राणस्त्वामणुकमलहं स्तौमि च तथा ॥ २५॥ युवापि त्वं स्वामी सुमकमलधिक्कारनिपुणस्तनः ख्यातो गौरीकैमल इव दुष्टान्धकहरः । नवव्याख्याकाले "कमलधरविस्तारिनिनेदः स्वयं पूज्यः स्वामी ननु "कमलया भक्तिवशतः ॥२६॥ निर्निक्तीकृतसत्सहस्रकमल: स्वह्निद्वयस्पर्शनैः पूज्यस्त्वं कमल प्रभादिभिरभूत्त्वद्वाग्रहस्यं विभो ! । जानानः कमलप्रभोप्यपलपत्संसारचक्रभ्रमी श्रीपालं "कमलप्रभेव सुषुवे त्वामीश ! वामोत्तमम् ||२७|| प्रस्फूर्जत्कर्मेलप्रभावजलधिख्यातप्रतापोदयः
श्रीसार्वः "कमलस्वरामृतवरद्वीपानुगच्छद्यशाः । ध्वस्ताऽनीकमलप्रभः प्रथयतात्सन्तापनिर्वापणे सौख्यं जन्मनि निःकलङ्कमलले पूर्णेऽपि शान्तिप्रदः ||२८|| अद्धैणाङ्कविभास्यलीकमलयैस्युर्वीतलं पत्कजैः
१. कमठं मुनिभाजनं वहतीति कमट, २. कमरं धनुः, ३. कमरं कोमलं कोमलशरीरं, ४. कमरश्चौरः, ५. कान्त, ६. विप्रः, ७. कं अग्नि महतीति कमट्-अग्निहोत्री, ८. कं ब्रह्माणमहनीति-ब्रह्मार्च्चक:, ९. सूर्यं १०. कं सूर्यं महतीति कमट् सूर्यार्चकः, ११. अणुकं स्वल्पं मवति माद्यतीति स्वल्पमदोहं, १२ पुष्पधनुः कामः, १३. ईश्वरः, १४, जलधरो मेघः, १५.शब्दः, १६. कालव्यन्त-राग्रमहिषी, १७. शि (श) त्रुञ्जय:, १८. व्यन्तरपत्नी, १९. गुरुः, २०. माता श्रीपालस्य, २१. पुष्करवरोदधि, २२. पुष्करवरद्वीप, २३. रण, २४. मण्डा आमलकी तस्याः फलं मण्ड, २५. ललाट, २६. मण्डयसि ।
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अनुसंधान-१५ • 37 सञ्जातः किल नि:कलङ्कमललाधीशान्वये त्वं जिनः । त्वद्वाचं कमलव्रजा निजगिरा श्रृण्वन्ति हर्षोन्नता: पार्षयेषु कृतान्ततर्कमललप्रादुष्कृतिप्रत्यलः ॥२९॥ संसारश्रान्तलोके कमललवति य: पापतापापनोदादने संवाद्यमानानकमललवदुद्दामतेजाः सुरौघैः । नम्रीभूतक्षमाभृद्रणकमललभृनिर्मलश्लोकराशेः निर्हाराधःकृतश्रीपिकमललभृदायासमे सेवकास्ते ॥३०॥ क्षोणीपावित्र्यहेतोः कमललवदिदं पाद पद्मद्वयं ते नैवाज्ञानप्रवृत्तैः "कमललुधरणैः श्रीयते सौख्यदायि । भक्तप्रत्यूहनाशाम्बिकमलनेमिव ब्रह्मलक्ष्म्यास्तमौघे सर्पालोकप्रवृत्ताम्बिकमलनजनासेव्यपावोऽसि पार्श्वः ॥३१॥ क्षोणीविख्यातकीर्त्यानकैमलयेमुखानेकदेशस्थलोकान् स्वव्याहारेण लक्ष्मीजलधिरनुदिनं बोधयन्बोधिसाधुः । इत्थं स्पष्टार्थमाद्यन्मधुकमलभरैः पूज्यपादारविन्दः श्रीपाश्वो हेमशुद्धाभरणधरतनुः श्रेयसे संश्रितानाम् ॥३२॥ ।इत्येकं श्रीपार्श्वस्तोत्रम् ॥ शतार्थी(र्थि)पण्डितश्रीहर्षकुलगणिप्रणीतम् ॥ श्रेयः सदङ्कमलयोत्रतिमेघनादमुत्सर्पिदर्पकमलोपैमयाऽक्षिपन्तम् । वाचापि "काकमलजं प्रतिबोधयन्तं वीरं गतांधिकमलं जिनराजमीडे ॥१॥ सम्पूर्णशान्तिकमलासिविमुक्तपाणिः सोढुं सुदुःशकमलासनमेः प्रभञ्जन् । मिथ्या सतां वदसि लोकमलप्रभूतं कुर्वन्जगत्कमलधारिवशाभिरर्यः ॥२॥
१. मण्डलाधीशो राजा, २. मृग, ३.मंडलं समूहः, ४.कमण्डलुः प्लक्षवृक्षविशेष: स इवाचरति कमण्डलवति, ५.मृदङ्ग, ६.मंडलं विद्यते यस्य स मण्डलवान् सूर्य :, ७. मंडलं सर्प बिभर्तीति मंडलभृदीश्वरः, ८. मण्डलं श्वानं बिभर्ति वाहनतया स मण्डलभृत् क्षेत्रपालः, ९. कमण्डलुः कुण्डिका तद्वदाचरत् कमण्डलवत्, १०.कमण्डलुधारकैस्तापसैः, ११. अम्बिका पाोपासिकादेवी, १२. मण्डनमलङ्कारः, १३. अम्बिका माता, १४. मण्डनाय अलङ्करिणावो जना इभ्यादयः, १५.पटह, १६.देश, १७.सदकं सदभिज्ञानं मलयं वनं नन्दनादि, १८. अण्डं मुष्कं तस्योपमया- निन्द्यत्वेनेत्यर्थः, १९.काकमण्डजं पक्षिणमपि, २०.अन्धिका कैतवं, अरं अत्यर्थं, २१. अण्डं शरं, असि खङ्गः, २२.अण्डासनं धनुः २३. इ: कामः, २४.पेशी-अण्डं पेशीति वचनात्, २५. प्रकाश, २६.अण्डधारिणः पुरुषाः, २७.प्रथमकाव्यद्वयं पाश्वोपयोगि ।
(
૨૬
२७
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अनुसंधान - १५ • 38
१३
कुर्व्वसमृद्धमिह नि: कमलं स्वभक्तं मात्राधिकत्ववशतः कमलंघनाद्यः । तुल्यीकृतस्फुरदशोकमलाजैमाषमानव्यथासु घनकल्कमलाकवेऽसि ॥३॥ क्षेमैर भीकमलवन् विषयाम्बुशोषे प्रातर्निभाल्यकमलोऽसि यमध्यमत्वे । धन्यो जिनेश "कमलासिचे यत्र दृष्टः सारो भवेऽत्र " कमलामखिलामवैषि || ४ || सर्वस्फुरत्कमलनं प्रवहद्गुणानां को वेत्ति ते "कमलनं नयनन्दितेश ! । प्रौढप्रभावकँमलावदभिष्टुतस्य शीतद्युतेश्च “कमलाशुचिकीर्तिभाजः ॥५॥ वीक्षेऽविपक्ष कमलादपूर्ववक्त्रं सिद्धान्तनिर्मितिकृते कमलाभृदाभ ! | संस्मर्यकार्यविधये कमलाविदादौ धीरश्रिया रुचिर! ते कमलाधिपाङ्क !॥६॥ मात्राधिकत्ववशत: कमलम्भनाय सामर्थ्यभाक्कमललाभसमः क्षमायाम् । संगुप्तसत्कमलद्गुणराशिरीशः सार्वः सपापकैमलाभमभाषमाणः ||७|| मुनिर्मात्राधिक्यात्कैमललतिलीलाशमरतो
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वदन् जन्तूत्पत्तिं नरकॅमलवे कालवशतः । शुभे लग्ने जातः कमलगेजसद्योगकलिते श्रयन् रेखाः पाणौ कमलहेरिहंसाकृतिधरा ॥८॥ बाभास्यमध्यमतया कमलङ्कमुक्तः पर्षद्रतः कमलमीशवचस्तनोषि । देवासुरैः कमलगीतयशाः प्रशस्यो बाल्यस्थित: 'कमलभायितविग्रहस्त्वम् ॥९॥ दुर्वादिनां कमलहं वचसा भिनत्सि शास्त्रोद्भवं कमलधौतशरीरकान्तिः । धान्ये यथा कमलमोसि नरेषु मान्यस्तद्वद्विभुः कमलहंसगतिः प्रतीतः || १०||
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१. कमलारहितं - दरिद्रं, २. कामलं - को यमडास्य ( ? ) स एव आमो रोग:, ३. लङ्घने - उल्लङ्घने, ४. कटुरोहिणी, ५. 'रा', आमा अपक्वा राजभाषास्तत्समो मानः, ६. कल्कं पापं तदेव आमो रोगविशेष:, ७. कम्र, ८. मरुदेशः स इवाचरन्, ९. कमलमित्र कमलं मुखं, १०. इवर्णादेरिति परतो यत्वे-यमध्यमत्वमितिरूपं, ११. कलीकालः स धन्यः, १२. असि त्वं, १३. कला विज्ञानं, १४. कलनं ज्ञानं, १५. कलनं सङ्ख्या १६. कमलावता विदुषा नरेण स्तुतः, १७. कला, १८. कलाभृच्चन्द्रः, १९. कलां शिल्पं बिभर्त्ति इति कलाभृत्सूत्रधारः, २०. कलामूलधनवृद्धिस्तां वेत्तीति कलावित् व्यवसायी तेन कार्यं आदौ स्मर्त्तव्यः, २१. कमलो मृगः मृगाधिपः सिंहः स एव अङ्के यस्य स वीर इत्यर्थः, २२.काम इच्छा, २३. कर्मेत्यर्थः २४. कामो बलं, २५. अनुमति (:), सपापस्य सावद्यस्य कामेऽनुमतौ लाभमभाषमाणः, २६. कामं कन्दर्पं लडति उन्मथयति - लडजिह्वोन्मथते, २७. वीर्य, २८. ज्योतिष् योगो, २९. पद्माकाररेखा, ३० कलङ्ग, ३१. कलं मनोज्ञं, ३२. कलोऽव्यक्तमधुरध्वानस्तेन गीतं यशो यस्य, ३३. कलभो लघुहस्ती, ३४. कलहं ३५. कलधौत, ३६. कलम, ३७. कलहंस ।
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अनुसंधान - १५ • 39
स्वामिन्त्रशोकमलगंर्ददघव्यपाये संसारदुःखकमलालाघयुतं रिपूणाम् । निर्नाशने कमलघोषसमान घोषं भावामये कमलहारिसमं समात्रम् ॥११॥ जन्तोस्तप: स्फुरदशोकमलप्रणाशे ताम्रस्य चम्पकमलन्दसुगन्धिवस्त्रः । उल्लास्यनू कमलशंकमुपास्तिकारी यः स्यात्तव स्वकमलाञ्छनमातनोति ॥१२॥ हृन्मेध्यताक्कमलवत्प्रतिपक्षमात्राधिक्यादलीकमसि प्रशमात्प्रहन्तुम् । उल्लास्यलीकमल वैत्तनुसा धुनम्यः क्षिप्तव्यलीकमलवन् स्थिरतागुणेन ॥ १३ ॥ दुष्टामर्चेन्द्रकमलननुवेलमीशस्पष्टं सितार्कमलपातकतापलोपे । सद्गोस्तनीकैमलतुल्यवच:प्रपञ्चः निर्मोघमाघकमलः सदरिष्टकुष्टे ||१४|| पादावनम्रर्कैमलाङ्गमुखग्रहौघः साधूभवत्कमल भौजनधारिविप्रः । विध्वस्तदुःकैमलसम्भवभीतिरीति: प्रत्यूहसञ्चयतमः कॅमलस्वभावः ॥ १५ ॥ त्यक्तव्यलीकमलेसे "भुजगेश्वरे च राशींश्च मध्यकमलप्रमुखान्वदन्तम् । संवद्धिताधिकमलादिजनस्यधन्यो यस्त्वत्पदान्तिकमलार्यत एव भक्त्या ॥ १६॥ अम्बोदरान्तरतटाकॅमलालशान्तिवल्ली बलाङ्गकमलँङ्गमरङ्गतुल्यम् ।
पूर्णाङ्गितर्कमलवेत्कलितं कराब्जे सम्यग्वितर्कमलयप्रियनादमीडे ॥१७॥ निस्तीर्णपातकमलादिह संयमं यः संसारशोषकमलोचकवैरिवारः । पङ्केरुहाङ्कमलैयोमुदमाप्ययद्वद्यान्तीश तावकमलम्बरिणो मतं तत् ॥१८॥
१. अलगर्छ: सर्पविशेष:, २. संसारदुःखमेव कं जलं मवति बध्नति (मथ्नाति) कमव् - व्योरिति वलोप:, ३. सामर्थ्य, ४. कामलो वसन्तः वसन्तघोषः कोकिलः, ५. कामलो रोग: रोगहारी वैद्यः, ६. पारद, ७. किट्ट, ८.मरन्दो मकरन्दः, ९. उल्लासकृत्, १०. अनूकं शीलं तत्र मठति निवसति स्थिरीभवति इति अनूकमट्- शीलवान्पुरुषः, ११. पुण्यता, १२. अर्क: स्फटिक: मालवत्-मालुः स्त्री तद्वदाचरन्तः प्रतिपक्षा यस्य, १३. अवितथ, १४. अड उद्यमे, १५. भाल, १६. मालुः पत्रवल्ली कृत्वा तथा तद्वदाचरन्ती तनुर्येषां १७. अप्रिय: १८. मरुः पर्वत : १९. चन्द्रकमलं- कर्पूरपानीयं यत्कर्णरोगंनाशयति, २०.साकरवाणी, २१. द्राक्षारसः, २२. कमलं जलं जलयोरव्यभिचारित्वात् कमलो रसः, २३. निर्मोघं सफलं माघपानीयं माहवाणी इति, २३अ. प्रसिद्धं शत्रुञ्जयनीरं कुष्टहारित्वात्तत्सदृश इत्यर्थः २४. कमलवत् अङ्गं यस्य स कमलाङ्गो रक्ताङ्गो मङ्गल इत्यर्थः, २५. ताम्रभाजन, २६. कमल इव कमलः वृत्तत्वात्-रक्तत्वात् तत्संभवो यमः, २७. कमल इव कमल: सूर्य : २८. व्यलीकं - अलीकं, २९. अलसीउं, ३०. नागराजे च, ३१. मध्ये को यत्र ईदृशो मलशब्द: मकर इति स्यात्, ३२. कमल श्रेष्ठी, ३३. पार्श्व, ३४. अरार्यते- प्राप्नोति, ३५. मराल, ३६. वसन्त, ३७. अरङ्ग, ३८. तर्को वाञ्छा, ३९. अरवत्- चकं, ४०. वनप्रियः कोकिलः, ४१. अरोचको दीप्तिमान्, ४२. कमलोत्सङ्गं प्राप्य यथाऽलयोमुदं यान्ति, ४३. अडम्बरिणः संसारप्रपञ्चं मुक्त्वा तव मतं प्राप्य मुदं यान्ति ।
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अनुसंधान-१५ . 40 जनुष्यासीत्तेऽमःकमकलल(कमलकल?) राशिर्महमयः । क्षमामध्ये क्षान्तः सपदिकमलाकेलिकरणा । वदन्वेदार्थोघं जिनकमलहँसांकसदृशः भवाब्धेः संशोषे कमलशभवः शम्भवचणः ॥१९॥ कमलमुखविपक्षो मध्यमाऽभावतस्त्वं कमलमुखकुरङ्गैः सेवनीयो वनान्ते । कमलचरणभक्तैनॆवलक्ष्यस्वरूपः कमलभयविमुक्तः प्राणमत्कन्धराणाम् ॥२०॥ कमलजनकतेजाः सौख्यसम्पत्प्रदाता कमलजननरोव्यागेऽपि सन्तापहारी । कमलमितमनन्तं मुक्तिसातं भवन्तं कमलमुखसमस्तव्यन्तरेन्द्राज़मीडे ॥२१॥ सकलकमलयातप्राज्यलब्धिप्रपञ्च: सुमृदुकमलणे श्रीन्यकृतस्वर्णवर्णः । विशदकमलकान्तस्थायिसन्नीरभाषः प्रसृमरकमलङ्कोपद्रवद्रावकोऽसि ॥२२॥ सरुचिकमलबालव्यालरौद्रे प्रघाते निशितकमलपत्रच्छिन्नवीरोद्धजाते । हरिभरकमलेणुव्याप्तरूपे जयन्ते विश इह "कमलाले नामभाजो लभन्ते ।।२३।। अरुणकमलशाख: कल्पशाखीव विश्वे दधिकमलबकाभव्याहृतिः शान्तिदाता ।
कुरुबकमलञ्जोद्यानवासी व्रतस्थो १.कलकील(कल)राशिः, २. कलाकेलिः कामः, ३.कलहंसाङ्को ब्रह्मा, ४.कलशभवोऽगस्तिः, ५.कमलमुखाः कृष्णाऽऽननाः, ६.कमलमुखा वानराः, ७.कालो-महाकालः, ८.कालो यमः, ९. कालो यमस्तस्य जनकः पिता सूर्यः, १०.कालो मरणं, ११.कालमनेहसं, १२.कालो व्यन्तरः, १३.करो हस्तः याता प्राप्ता, १४. करणं शरीरं, १५. करको नीरपात्रं, १६.करकः, करवाल, १७.करपत्र, १८. प्रत्रास्य, १९. करेणु, २०.नराः, २१.कराले, २२.करशाखो नखः, २३.करम्बः, २४.करञ्जः ।
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अनुसंधान-१५ . 41 गृहपतिकमलोटन्यादारी सकृच्च ॥२८॥ कमलमिव दिनेशः प्राप्य दत्ते कुयोगं तदिव कमलपूजां वामदेवो जनानाम् । कमलभमिव पूर्णं पूर्णिमासीसु योगं त्वमपि कमलरम्यो भक्तिभावं नतानाम् ॥२५॥ कमलमिव खगेनाब्जेन युक्तं सुकालं जनजनकमलेखं वर्तमाख्याति सिद्धिम् । कमलभवकृतं सद्दुळवायं क्षिणोति तदिव "कमलजातप्रायधीरैः श्रितस्त्वम् ॥२६॥ सङ्क्रीडतीव उषया कमलाङ्क ईश ! त्वं वीरसिद्धिरमया कमलाभिरामः । तद्वच्चिरं कमलमाधिकसद्गुणः सन् दद्यान्महांसि "कमलाङ्करुचिप्रतापः ॥२७॥ विश्वत्रयीकमलनप्रतिमान्तिमार्हन् गतिराम्बकमलद्युतिकिण्वहारी । संसारतारकमलेखेकपुष्यमुख्य नक्षत्रपेटकमलार्जकमीश विश्वम् ॥२८॥
राज त्वदम्बकमलस्तनुषे वदस्त्वं अंहःपुलाकमलवन्नघनिम्नगानाम् । १-२-३. मध्यमाभाव इति सर्वत्र योज्यं, करोटं भाजनविशेषस्तेनाऽन्यदपि पात्रं लक्ष्यते तत्र न्यादकारी-भोजनकृत, ३अ.एकवारं, ४.कं यमं देवतात्वेन मलति धरति कमलं भरणी नक्षत्रं, ५. तथा, ६.मस्तकपूजां, ७.ईश्वरः, ८.कमग्नि देवतात्वेन मलते कमलं-कृत्तिका नक्षत्रं, ९.कं आत्मानं मलति कमलं शरीरं तेन रम्यो-रमणीयः, ९अ.नतानां भक्तिभावं प्राप्य सुयोगं दत्से, १०.कमलं ब्रह्माणं मलति-कमलं रोहिणी नक्षत्रं, 'रोहिणि चंददिवायर हाथिष्का दोघडीआई'इत्युक्तत्वात्, ११.सूर्येण, १२.अब्जेन-चन्द्रेण, १३-१४.मश्चन्द्रः स लेखो देवताऽस्य तत् मलेखऋक्षं नक्षत्रं मृगशरो नक्षत्रं, व इवार्थे, यथा मृगभं सूर्येण चन्द्रेण च सिद्धिमाख्याति तथा त्वमपि, १५.कमलं भरणीनक्षत्रं तस्माद्भवो राहुस्तत्कृतं दुर्व्यवायं दुष्टं विघ्नं क्षिणोषि, १६. कमलं रोहिणी नक्षत्रं, तस्माज्जातो बुधग्रहः, १७. कमलो मृगः ऋष्यनामा सोऽङ्के यस्य स कमलाङ्कोऽनिरुद्धो यथा उषया क्रीडति तथा त्वं सिद्धिरमया क्रीडसीति, १८.कमलशब्देन पद्माभिधानः संख्याविशेष: कमल इति मासंख्यातोऽप्यधिकगुणाः, १९.उत्सवान्, २०. कमलाङ्कः पद्मप्रभजिनस्तस्य कान्तिस्तद्वत्प्रतापोयस्य स, २१. कं मस्तकं तस्य मण्डनं मुकुटः, २२.अनिन्द्यः, २३. अम्बकं नेत्रं तस्य मण्डनं कज्जलं, २४.अर्थात् कृष्णं, २५.मो रुद्रः स लेखको देवता यस्य तत् मलेखकमार्दानक्षत्रं, २६. अराजकमनाथं, २७.अम्बकं लोचनं तस्मात्, महुड वृद्धौ मंहते धातूनामनेकार्थत्वात् जायते इति अम्बकमन् चन्द्रस्तद्वल्लसतीति क्विपि स्वादिदीर्घाभावे अम्बकमण्डलः, २८.सङ्क्षेप, २९.मरुः पर्वतः स इवाचरन् मरवन् ।
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अनुसंधान-१५ • 42 विद्वच्चकोरकमलक्षणमुक्तदेह सन्देहहारकमलस्य वचोविलासः ॥२९।। वरतनु तारकमलणः सत्यान्धकमलणभान्धकदघौघे । नरकमलणाभनरकध्वंसे समकमलणाद्विरत: ॥३०॥ भूतिकमलकहरणः प्रणमद्देशकमलबद्धसार्वायुः । सूर्पकमलणविमुक्तः प्राणिभ्यो भावुकमलासीत् ॥३१॥ चरणमनङ्कमलासीत्सत्यागदयाढ्यनन्दकमलायः । कमलाख्यमपि ददानस्तथा निधानं महाकमलम् ॥३२॥ आनम्रपाकमलणः स्वामी मध्यकमलं निधि यच्छन् । नन् पृथुकमलणगोयायजूकमलणोद्भवं दुरितम् ॥३३।। मध्यकमलकेतुहतः प्रसन्नतारकमलजदविष्टः । दानत्रिकमलतुल्य: सहस्रकमलसुतगुणौधः ॥३४॥ रिपुरङ्कपञ्चकमल: श्रेयश्रीवल्लरीकमलतुल्य: । गाम्भीर्यकमललश्रीः षट्कमल इव व्रती सार्वः ॥३५॥ निर्मलसहस्रकमलाजलवत्कमलश्रियाऽस्तपूर्णशशी । जगति चतुःकमलसमः समवसृतौ सुकमलभ्यपद(:) ॥३६॥ सार्वः कमलजनादः श्रेयोनिर्माणपञ्चकमलसमः ।
कमलजकेतुजिनोक्तावतारकमलजनिधि यच्छन् ॥३७॥ १.चन्द्रलाञ्छन, २.सन्देहहरणे शिवो महेशः शिवो हि संहारदक्षः, ३.शिव, ४. रस्यं आस्वादनीयं, ५.तारकदैत्यस्य मरणं यस्मात्स कात्तिकेयः, ६.अन्धकमरणो ऊडः, ७.नरकमरणः कृष्णः, ८. समे समस्ताः का: प्राणिनस्तेषां मरणं हिंसा, ९.मरको मारि, १०. कमलमिव कमलं मस्तकं दशकमलो रावणः, ११.सूर्पकदैत्यमरणः कामः, १२.भद्रं मङ्गलं दत्तवान्, १३.चारित्रं नि:कलङ्कं अलासीत् गृहीतवान्, १४.नन्दकः खङ्गः तं मलते नन्दकमलः कृष्णः स इवाचरतीति नन्दकमलायतीति नन्दकमलायः १५.पद्मनामा निधिः, १६.महापद्मनिधानं, १७.पाकदैत्यस्य मरणं यस्मात् स पाकमरण इन्द्रः, १८.मध्ये को यत्र स मल शब्दः एतावता मकराख्यो निधिः, १९. पृथुको बालस्तस्य मरणं हत्या, यायजूको ब्राह्मणस्तस्य मरणं हत्या, २०. मकरकेतुः कामः, २१.नेत्रः, २२.मलो देवादिपूजायां अश्राद्धः, २३.दूरः, २४. कमलमिव कमलं मस्तकं त्रिकमलशिराः धनदः, २५.सहस्रकमलो सहस्रमस्तकः शेषाहिः, २६.वैरिमृगे, २७. सिंह: पंचाननः, २८. कं पानीयं मलते धरति कमलो मेघ:, २९.कं जलं तस्य राशिर्यस्य स कमण्डलः समुद्रः, ३०. षण्मुखः कात्तिकेयः, ३१.सहस्रमुखी गङ्गा, ३२.मुख, ३३.ब्रह्मा चतुर्मुखः, ३४. सु शोभनाः काः प्राणिनस्तैर्लभ्यपदः, ३५.कमलं जलं तत्र जायते कमलजः शङ्ख, ३६. पञ्चमुख ईश्वरः, ३७.शंखकेतुर्नेमिजिनः, ३८.शङ्खनामा निधिः ।
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अनुसंधान-१५ • 43 आरक्तकमलयुगलो वीरोऽर्हन् गूढकमलभीतिहरः । कमलजभृद्यति दितिजध्वंसे ध्यातो हृदयकमले ॥३८।। कमलादितपोदेष्टा कविभिः कमलादिचित्रवर्ण्य गुणः । नाभिकमलस्वरूपं शंसति सत्यं च कमललये ॥३९।। कमलवदन्तर्येयं सेव्यं च सहस्रनीलकमलगणैः । चम्पकमलजातिनवश्रीतिलकमलादिसुमपूज्यः ॥४०॥ वाग्जितपूपकमल को नैषि वशं त्वकमलभुवां स्त्रीणाम् । जनदीपकमलकोकिलकाकमलादीन् प्रबोधयसि ॥४१।। विश्वप्रकाशकमलप्रभुद्युतिः कनकमलतनुः सार्वः । मानामयजतुकमलल्युपदेष्टा प्रशमिनां कमलकायः ॥४२॥ गीतिः ॥ प्रणतमहाकमलाह्वयचक्रधरः कमलहरिनतः सार्वः । पूरयति कमलवासां सनामलवाहनाध्येयः ॥४३॥ यः सार्वकनकमलसत् तावकमलयति मुखं स्म तस्यैव । नष्टेन साकमलसत् दुर्गतिमयमधिकमलसच्च ॥४४॥ भक्त्या पावकमलसत्त्वां नायकमलचयत् शुचिं सस्वम् । क्षारकमलावयद्यस्तस्य भवोदकमलवदीश ॥४५॥
१. कमल इव कमलः पादः, २. गूढपादः सर्पः, ३.कमलजं शङ्कं बिभर्तीति कमलजभृत्कृष्णः स इवाचरतीति कमलजभृद्यति, ४.कमलाकृतिकत्वात्पञ्चपदानि ध्यायेत, ५.कमलनाम्ना तपः, कमलनी ओली प्रसिद्धा, ६.चित्रालङ्कारं, ७.को वायुस्तस्य मलो धरणं रोधनं पवनसाधना तस्य लसे ध्याने नाभिकमलस्वरूपं-नाभौ कमलाकारो वर्तते , ८.कमलतपः तपस्विभिः, ९.नीलकमलं नेत्रं सहस्रनेत्र इन्द्रः, १०.पुष्पजाति, ११.पुष्प, १२.पदैकदेशे पदसमुदायो-पचारान्मलो दलामलो दमनकः, तथैव द्वितीयवारे दलामलो दमनकः, १३. मण्डकः, १४. पदैकदेशे पदसमुदायोपचारान्मलो हेमलः स्वर्णकारः, १५.हेमलः सरटः, १६.विमलजिनः, १७. विमलं निर्मलं पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् अत्र ग्राह्य, १८.हिंगु, १९.एकदेशविकृतमनन्यवदितिन्यायात्-कमलं कोमलं एकदेशविकृतस्योपलक्षणत्वादनेकदेशविकृतस्याऽपि अनन्यवदावात्-को इत्यस्य स्वरव्यञ्जन समुदायस्यापि ग्रहणात्-मल-कोमलमिति - एवं अग्रेऽपि ज्ञेयं, २०.महापद्मचक्री, २१.पद्म वासुदेवः, २२.लक्ष्मी, २३.राजहंसवाहनः, २४.रसण आस्वादनस्नेहनयोः - कनकं धत्तूरं अरसत् आस्वादितवान्, २५.तस्य तव मुखमरिरिवाचरति स्म, २६.विंट, २७.अरसत् सुतवान् रसशब्दे, २८.क्रीडितवान्, २९.पवित्रं, ३०.अलसत्-श्लेषितवान् लसश्लेषणक्रोडनयोः, ३१.अरचयत्, ३२.पक्षिपाशं, ३३.लव इव आचरत् अलवत्.
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अनुसंधान-१५ • 44 कर्मातङ्कमलघयदुर्गतिकार्मकमलोहयद्यच्च । भवकूपकमलने त्वं निःशङ्कमलज्जवोऽसुमताम् ॥४६।। विनयोदर्कमलासीदेकागारिकमलाटयद्वीरः । सेवकमलालयत्कुलनंदकमलयस्यपि स्म जगत् ॥४७॥ न्यकृतजतुकमलाराट् तव पदयुगलकमलेञ्जयद्रव्यान् । तण्डकमलक्षमाण: कुगतेस्त्वं स्वकमलक्षय: सिंहात् ॥४८॥ पुण्याद्रङ्कमलाजत्पुण्यमृते क्षोणिनायकमलङ्कत् । मुखमकलङ्कमलाजद्येन च जैवातृकमलाञ्छत् ॥४९॥ परिचारकमलेलरङ्क श्रेणिकमलराजदीशधर्मेण ।। मुक्तव्यलीकमलतन् मुक्तावस्तोकमलवयन्महसा ॥५०॥ पापकमललापवचो गतसर्वारे कमलवणायत तत् ।। उदकमलाच्च भवस्याऽसुमत्कदम्बकमलादिनः ॥५१॥ कीर्तिध्वजांशुकमलोपयदात्मवंशे भव्याङ्गिमोदकमलापि वचः सुचारु । नो कर्मपेटकमलात यतीश तस्य यस्तच्च तावकमलोपयति प्रमत्तः ॥५२॥ अज्ञैनरैः सकलमङ्कमलेखयद्यो मुक्त्या च साकमललास न तीर्थनाथः । कान्त्या तथाऽधिकमलार्हततीहितार्थदाता जिनैकमलसि स्म च मर्त्यलोकम् ॥५३॥ यो वैनायकमलाघत कर्तुं सूतकमलोकयत्तव च । परमं लोकमलाघीत् स प्राप्तुं वर्णकमलब्ध ॥५४॥
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१.लघु अकरोत्, २.कर्मशीलः कार्मकः, ३.यत्कर्म लोहमिव आचरत्,४.धारणे, ५.रज्जुरिवाचरः अरज्जवः, ६.अरासीत्, ७.एकागारिकं चौरं अराटयदुःखं कारितवान्, ८.सेवकमलालयत्-विलासं कारितवान्, ९.मण्डयसि, १०.लाक्षा, ११.अराराट्, १२.अरञ्जयत्, १३.मायावन्तं, १४.सिंहात्स्वकं आत्मानं अलक्षयः अङ्कितवान्, १५.अराजयत् राजानं अकरोत्, १६.रङ्कमकरोत् अरङ्कयत्, १७.अराजत् शोभितं, १८.येन मुखेन चन्द्रमलाञ्छत् लाञ्छितमकरोत्, १९.रङ्कमाख्यत् धर्मेण रङ्कमपि प्रतिबोधितवान्, २०.रति अकरोत्, २१.रविरिवाचरत्, २२.पापकं वचः न ललाप, अकारो निषेधे, २३.सन्देह, २४.रसत्वेन लवणमिवाचरत्, २५.भवस्य संसारस्य उदकमराद्दत्तं-संसारस्य जलाञ्जलिर्दत्त इत्यर्थः, २६.अरक्षत्, २७.अरोपयत्, २८.लपितवान्, २९३०.तद्वचः प्रमत्तः सन् न लोपयति-अकारो निषेधे, ३१.अङ्कं शास्त्रमलेखयत् लेखितं, ३२.साकं सार्धं न ललास न-अपि तु क्रीडित एव-अकारो निषेधे, ३३. रा., ३४.अरजिन इवाचरति स्म, ३५-३६. राघृङ् सामर्थ्य-विनयं कर्तुं समर्थोऽभूत्, ३७.जन्म, ३८.लाघङ् सामर्थ्ये ।
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अनुसंधान - १५45
वर्णेन सूतकमले च यदस्य कीर्तिस्तेजः कदम्बकमलोचत वैर्यसह्यम् ॥ स्रुत्याक्षतान्धिकमलाविभवांश्च येन निःशेषमीश निजतङ्कमलोपि तेन ॥५५ ॥
समारूढो वैनीतकमलहयद्यामगृहणे वनं बिभ्रत्सारं भ्रमरकमलंस्ताक्षरपदे । पदार्थं विश्वायां कमलहयति श्रीजिनवरो वशाराज्यस्वर्णादिकमलहयत्तार्णगणवत् ॥८७॥ मौक्तिकमलरौफलमिह निःशेषं मोहसौप्तिकमलोठत् । माक्षिकमलोर्डयनिजभक्ते वसुरांशुकमरौडत्( लौडत् ? ) ॥८८॥ अङ्कमलो भीन्नहि यः पश्यंस्त्ववकोमलविष्ट । काकमलैयिष्ट गोलाद्यथातथास्मादकमलाफीत् ॥ ८९ ॥ नाणकमलते लातुं यतिनां तमसा न च स्वकमलेपीत् । शौकमलयते त्वत्संनिधेस्तथौ कमलंफति च ॥९०॥ त्वां हितकमलङ्कृतयः सदिष्टसाधकमलङ्घयतेऽन्यैः सः । येन त्वकमलले सोऽपि भवोदकमलैङ्घिष्ट ॥ ९१ ॥ ऊष्मकमलङ्घदाप्त्वा पल्वलमार्द्रकमलैङ्गिकर्मीस्यात् । मण्डकमलेलङ्घ यथा त्वन्नाम्ना शान्तिकमलाघि ॥९२॥
१८
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१. पारद, आतङ्क, ३. वाहनं शबकादि ४. अरहयत्, ५. व्रतग्रहणे, ६. अरंस्त रमिं क्रीडायां मुक्तिपथे, ७. कं पदार्थं न रहयति न जानाति अपितु सर्वान् वेत्ति - रहुण् गतौ गत्यर्था ज्ञानार्था इति, ८. अरहयत् त्यक्तवान् रहण त्यागे तृणसमूहवत् ९. मौक्तिकं फलं ररौ दत्तवान् अकार: [पादपूर्ती ], १०. सौप्तिके रात्रिधाटी, ११. ल (लु)ठ उपघाते, १२. रोड अनादरे- निजभक्तेन माक्षिकंमधु अरोडयन् त्याजितवान्, १३. रोड अनादरे- सुरांशुकं देवदूष्यवस्त्रं अरौडत् न आदृतवान् इत्यर्थः, १४. अङ्कं नाटकं पश्यन्न अलोभीत्-न गृद्धो बभूव, १५. यथा गोलात् काकं-काकसमूहं अडयिष्ट उड्डीनम् १६. तथाऽस्मात्पुरुषात् अकं दुःखं अराफीत् गतं - रफगतौ, १७. यतिनां नाणकं लातुं अलते निवारयति अली भूष[ण-पर्याप्ति - वारणेषु ], १८. तमसा अपि न स्वकं आत्मीयं आत्मानं न अलेपीत्- न लिप्तं चकार, १९. शौकं शुकानां समूहः त्वत्समीपान्न डयते नोड्डीय याति त्वद्वचनमिच्छव इत्यर्थः, २०. उक्ष्णां वृषभाणां समूह औक्षकं त्वत्समीपात्र रम्फति, २१. यस्त्वामलङ्घत उल्लङ्घितवान्, २२. सोऽन्यैर्नलङ्घ्यते, २३. येन त्वं ललकार आमन्त्रणे, २४.स भवोदकमलङ्घिष्ट, २५. ऊष्मकं उष्णकालं आप्त्वा प्राप्य यथा पल्वलं अलङ्घत्, २६. शुष्कं लघु शोषणे, २७ - २८. मण्डकं आमलकं ललङ्घ शुष्कं तथा त्वनाम्नाऽशान्तिकममङ्गलं अलाघि शुष्कम् ।
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आदितः ॥ ८६ ॥
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अनुसंधान-१५ • 46 यदलिपिकमलालण्नादतः सादमुक्तः कलमकमललाडत्ते नय: पावनत्वात् । अपि भृतकमलालट् संसृतेः क्षोणिपं च अनुपधिकमलालस्वंतयेनापदस्ताः ॥९३।।. दाम्भिकमलरीत्यगति सूचकमलरांचकार 'तान्तिपदम् । दांडाजनिकमलति च विभवं शीत कमलारयति ॥९४॥ अलकर्मकमलचयसि रुचा जित कमलाबूयसे भवाम्बुनिधौ । फुल्लकमलरचदपि तो अंगारकमलवयज्जिनो भृतकम् ॥१५॥ क्षिप्ताङ्गारिकमलवचश्रितं वचस्तेऽलिपकमलेष्टि । आसेचनकमलोगं त्वामीडेऽनणुकमलघिष्ठम् ॥९६।। क्लृप्ताकल्पकमलसस्तुल्याङ्गारिकमलेट् करद्वितयम् । कृत्वा वचःप्रमोदं कमलभ्यङ्कमलभत नासौ ॥९७॥ पादाम्बुजैरपि तुरुष्कमलञ्चकार जेतुं मुखेन च शशाङ्कमलम्बभूव । लीलाविनायकमलक्ष्मणमाततान ध्यानेन कण्ट कमलक्ष्यघसिर्जघान ॥९८॥ त्वं निः शलाकमलयं श्रयसीश लब्ध्वा निःसङ्ख्यहाटकमलामिनः प्रकुर्वन् । तत्त्वप्रकाशकमलब्ध सदोपयोगमापन्निवारकमलोहित लोहितांशः ॥९९।। नाथस्त्रिलोकमललञ्जदनञ्जनश्री: सत्याभिवादकमललन्ध्रयशःप्रसारम् ।
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४०
१.लडि जिह्वोन्मन्थने यङ्लुकि अलालड्, २.विषाद, ३.शालिभेद, ४.अललाडत् मन्थं अकारयत्, ५.कर्मकरं, ६.अलालट् - रक्ष् पालने ह्यस्तन्या दिवि रूपं, ७.निर्दम्भं यथा, ८.मथिताः, ९.अररीति, १०.खलं, ११.अरराञ्चकार, १२.मायाविनं, १३.इक्षुकाण्डं, १४.प्रमत्तं, १५.अरारयति, १६.लित्पद्मकेसरं, १७.रचयसि, १८.आश्चर्य, १९.मङ्गलं, २०.सेवकं, २१.उद्यमवता, २२.भृङ्गं, २३.भ्रमरशब्दमलविष्ट, २४.अरोगं, २५.अनिन्द्यं, २६.महान्तं, २७.अहर्ष, २८.तुल्याअङ्गारिकाः किंशुककोरका यस्य तत्तुल्याङ्गारिकं करद्वयं रक्तत्वात् मुकुलभूतत्वात्-एवंविधं करद्वयं कृत्वा यस्तव वचः अलेट् आस्वादितवान् श्रुतवानित्यर्थः, यः किविशिष्टः अलस: लसः श्लेषः - अनाश्लेष इत्यर्थः, २९. स कं अलभ्यं प्रमोदनं अलभत-अनन्तप्रमोदं लब्धवानित्यर्थः, ३०.देशं, ३१.अदरिद्रं, ३२.वैरिकं, ३३.अलक्ष्या अदृश्या घसिराहारो यस्य, ३४.अ इति संबोधने - त्वं निःशलाकं निर्व्यञ्जनं लब्ध्वा लयं ध्यानं श्रयसि, ३५.न विद्यते रैः धनं यस्य स अराः तं अरायं, ३६.अलोहितं अरक्तं, ३७.लोहितं रुधिरं यस्य, ३८.अललञ्जत्-लज-लजुण प्रकाशने, ३९.स्तावकं नरं, ४०. निवड ।
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अनुसंधान-१५ • 47 कुर्वतॄणां तुकमलाञ्छितमूर्तिरेतद्वाञ्छावतां दददशमलक्तचेताः ॥१००।। धर्माक्षेपकमलमं साम्यविडम्बकमलम्यदुर्गतिगम् । त्वदनाक्षेपकमलजं कुरुषे स्वस्तावकमलाप्यम् ॥१०१॥ कर्मान्तकारकमलनसि भूमिपीठं व्यापत्प्रमायकमलत्पदिमुख्यधातून् । सार्वेशनामकमलं विमलावबोधे द्रव्यात्मनाऽपि कमलं कथयन्नयश्रीः ॥१०२।। वक्त्रेण य: कमलवैरिणमाजिगाय काष्टास्यलोकमलयन्त पुनर्नवौघः । सुस्थापनाकमलमुज्ज्वलमङ्गलश्रीनिक्षेपतः कमलमीश वदश्च भावात् ॥१०३।। कमललीशभवेऽपि शिवे तथा कमललिन्यतिहावैवशीकृतः । कमलमाथितनुश्रुतिराशिता कमलवस्तुपरित्यजकः श्रिये ॥१०॥ कमलधारिनिषेव्यपदाम्बुजः कमलवाचकमीश्वर निक्षिपन् । कमलमुच्यसि देशमनेहसं कमलभव्यमहो कमलं वदन् ॥१०५।। कमलचक्रधनूरथवज्रभृत्पदयुगः कमलव्रजवर्जितः । कमलवत्यखरांग कथान्तरे कमलेसेननृपं प्रतिपादयन् ॥१०६॥ कमलनामकमीश पुरं तथा दयितयानुगतं कमलाख्यया । सुतवरं प्रवरं कमलाकरं कमलसामजमादिजिनेशितः ॥१०७।। युग्मम् ॥ कमलमीश यथा कमलाकरे कमलभृत्यपि वाकमलं यथा । तदिव सज्जननीकमलोदैरे वससि पुस्कमल: श्रितवैभवः ॥१०॥
१.अपत्य, २.अपत्य, ३.निन्दक, ४.अर[मं], ५.अर[म्यं], ६.अर[जं], रजः पापं अयमकारान्तोऽपि, ७.मडु भूषायां मण्डन्, ८.आपनाशकं, ९. मण्डति धातुः आदिधातुः, १०.नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्, ११.कमलद्रव्यं, १२.कमलवैरीचन्द्रः, १३.जितवान्, १४-१५.काष्टा दिशस्तासां आस्यं मुखं तत्र मण्डयन्त: आदर्शस्तद्वत् पु[न] नवा नखा यस्य,१६-१७.भावकमलं, १८.कः कामस्तं मन्दयति. कमन् तं आचष्टे कम्-अलड् अवाञ्छकः, १९.कं जलं तत्र मङ्गतीति कमन् मीनः तां हितवाक्यैः आचष्टे कम्, २०.ललो विलासो यस्याः सा ललिनी स्त्री-अकारो निषेधे, २१.मुखविकारः, २२.कः सूर्यस्तस्य मण्डं शोभां मथतीति, २३.कं चित्तं मलते धरतीति कमलं सच्चित्तं वस्तु, २४.कं सुखं, अण्डधारिणः पक्षिणः, २५.कमलशब्द, २६.कमलं देशं कमलं कालं च निक्षिपन् निक्षेपेण वदन्, २७.उच्यसि-उचच् समवाये-सुखं मेलयसीत्यर्थः, २८.कमलशब्दज्ञानयोग्यमपि कमलमेव वदन्, २९.शरीरस्वेद, ३०.कमलवती कमलिनी तद्वत्[अ]खरं कोमलमङ्गं यस्य, ३१.कमलसेननृपं कमलाराज्ञानुगतं कमलाकरं पुत्रं तस्य कमलानाम्ना सामजं हस्तिनं कथाविशेषेण प्रतिपादयति, ३२.पद्म, ३३.पद्मसरसि, ३४.धनुर्धरौ, ३५.धनुः, ३६. कमलशब्दः शोभार्थे, ३७.पुरुषपुण्डरीक:-कमलं पुण्डरीकं ।
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अनुसंधान-१५ • 48 जयति नाकमलक्रमपूजितः शुकमलत्यपहः प्रतिबोधयन् । शुचिविरोकमलण्यकृतव्रतं कमलवंसुरवंह्याचरीकर ॥१०९॥ अयति नेमिविभो कमलाप्रदारुचितशाकमलोच्छनिषेवितम् । शितिकलाकमलल्यति तेजसं कमललन्तु निराश्रवमात्मवित् ॥११०।। कमललब्धगतिः प्रथमाधिपः कमललप्रतिबोधितसज्जनः । जिनमहीकमलङ्गजमानहा कमलने निपुणोऽस्यचिरात्मजः ॥१११॥ चरकमऽलाताभर्मुखा महंति तोकमलसावपितरः । स्वसविरोधकमलसँतरुं खगवत्त्वां कमलन भजन्ते ॥११२।। कमललैरुचोमहेलास्तुरुष्कमलशोभिताः सकमलाढ्याः । मात्राढ्यकमलभूषितशिरसः शुभवेदनकमलगीनेशम् ॥११३॥ उद्यद्विरोकमलल कमलवंतीविजयकथितसुविचारम् । पद्मसरोजादिरवान् कथयन्तं कमलपर्यायान् ॥११४।। रागोत्कलिकमलमैकद्युतिर्गुणानेड कमलमकवत् । बिभ्रद्रुचकमलवपं दोषेनुत्तलिकमलसकं स्तब्धम् ॥११५।।
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१.नाकं स्वर्ग मलति धरतीति नाकमल इन्द्रः, २.अर[ति], ३.कान्ति, ४. अर[ण्य], ५६-७. कं अरवं मूकं सुखं, अ न, अचरीकः कृतवान्-सर्वस्य मूकत्वं निर्गमितवान्, ८.सम्पत्, ९.अरुचितं अनभीष्टं शाकं यस्य स-यस्य शाकमनिष्टं स्यात्, १०.अण्डोच्छौः पक्षिभिनिषेवितं, ११.कृष्णाकला यस्य स कृष्णवर्णः स्यादिति विरोधलेशः, १२.मण्डलं विद्यते यस्य स मण्डली सूर्यस्तद्वत्तेजो यस्य सः, १३.मंडलं वृत्ताकारविशेष: मंडल-मंडलवतोरभेदोपचारात् मंडलं कुंडलंततः कस्य सुवर्णस्य मंडले कुंडलं यस्य गृहस्थावस्थायां स तथापि निराश्रवो निर्दोष एवेति, १४.कं परब्रह्म तस्य मंडो विभागः मदुड परिवेष्टने - विभाजनेऽपि परमते, १५-१६.कः शब्दस्तस्य मानं मः तत्र ललौ जिह्वा विषया क्रिया तेन प्रतिबोधितं, १७ पृथ्वी-मस्तक-मड् निवासी, १८.कलस्य मंडनं विभागः, १९.ग्रन्थविशेषः, २०.उत्सुक, २१.परमतिनः, २२.अपत्यं, २३.अरोगवंतं, २४. वृक्षभेद, २५.ज्ञानधर, २६.सुवर्णवलय, २७.सुगन्धद्रव्यपरिमलः २८.सजलमरुबक, २९. कामलो मुकुटः, ३०.मुखमाहति, ३१.भा, ३२.मंडलं, ३३.विजयनाम, ३४.रागस्योत्कलिका कल्लोला यस्य, ३५.अलका पद्मकेसर तद्वद् द्युतिर्यस्य, ३६.गुणेषु अनेडमूकं अलमको भेकस्तद्वत्, ३७.रुचकं ग्रीवाभरणं बिभ्रत्, अकारः पादपूरणे, ३७अ. रवणः शब्दनः ३८.दोषविषये, ३९.अनुत्कलिकं अलीलं तनोषीति, ४०.अलसो वृक्षविशेषस्तव स्तब्ध नरं ।
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अनुसंधान-१५ • 49 तत्त्वन्मां कमलान्तजमुखमथवायौ कमलवसानमिनः । पाहि कमलान्तबान्तं दधतं सकमलवसानमेयन् ॥११६॥ प्राग्नाशं कमलस्य नूतनसरस्याख्यापयन् वादिनां प्रध्वंसात्कमलस्य सारसरसि प्रक्षीणनीरे क्षयम् । अन्योन्यापगमं तथा च कमलस्याख्यासि वद्भावथात्यन्ताभावमवैषि नाथ कमलस्यासारभृत्पल्वले ॥११७॥ कमलमकमलं वा भावयुग्मं जगत्यां कमलमिति यनित्यं पर्ययं भाषमाणः । कनककमलवल्लीचित्रिते चारुसौधेप्यरतिरकमलस्या त्वेष विद्वेषभाजः ॥११८॥ कमलान्तबादिमं मां क्रीडॉकन्दुकमलान्तजाग्रण्यं । अयशःपङ्कमलान्तजसमवचसा क्षालयन्पुनीहि विभो ! ॥११९|| कमलसि समस्तभविनां कमलवदातस्तवोत्तमः श्लोकः । कमलष्टमूर्तिभक्तः स्यात्तदसेवी कमलबोधः ॥१२०॥ अमिअपरक्कमलद्धी अवगयपकमललंतगुणरासी । अणवैक्कमलद्धजओ अणुर्वकालक्ख जिअकालो ॥१२१॥ संवच्छरप्पसरविक्कम लायतुल्लं विनायवोममेणि संकमलेग्गवेलं ।
१-२.कंकिलक्षणं अलांतजमुखं अल इति वर्णद्वयं अंते यस्य एवंविधो जो जकार एतावता जाल इति समुखे आदौ यस्य ककारस्य, एतावता जालकं गवाक्षं तुल्यं मां कस्मिन् विषयेऽथ वायौ पापागमे गवाक्षतुल्यं मां पाहीत्यर्थः, ३.कंकिलक्षणं अल इति अंते यस्य स, बो बकार सबल इति अंते यस्य एतावता कंबलं, सकं अलवसानं सकलं वस्तु अयन् जानन् । ४५. अल इत्यवसाने यस्य एवं भूतं कं कलमित्यर्थः, ६.प्रागभावं, ७.प्रध्वंसो क्षयं-प्रध्वंसाभावं, ८.अन्योन्याभावं, ९.कं जलं अट्टते हिनस्ति कमड् अप्कायविराधकः । न ईदशो य: स अकमड्, स वैरिणः रिपून् अस्यतु क्षिपतु, १०.अलांतः बः बालः इति द्वयं वर्णयोरादिमं यस्य-कस्य तं बालकं मामित्यर्थः, १०अ. क्रीडायां कन्दुको मुखं यस्यस्तं मां, ११.अलं अंतेयस्य ल इतिवर्णस्य एवं जल इति जडानां मूर्खाणामग्रणी, १२.जलं नीरं तत्समवचसाऽयश: पंकं क्षालन्, १३.कम् अव्ययं सुखार्थे अडति-उद्यमं करोति कम्(कमड् ?), १४.शैवः, १५.स कमड् स्यात्, कं सुखं अट्टते अतिक्रामति सुखरहित इत्यर्थः, १६.पराक्रमो बलं, १७.अज्ञातप्रक्रमः, १८.प्रस्तावः, १९. अप्रक्रमः कमोल्लङ्घनः न ईदृशः अनवक्रमः, २०.निरुपक्रमः लक्ष्यजीवितकालः, २१.व्योममणिः, २२.सङ्क्रमः, २३. लग्नवेला ।
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अनुसंधान-१५ • 50 अक्खोह विक्कमलवंगसुगंधसासं दुव्वाइवग्गवयणक्कमलद्धलक्खं ॥१२२।। आयंकमलणयं सुहभावाणुक्कमलसंतसोहग्गो । सुरकयंमहनिमलव-पावपडिक्कमलयविमुक्को ॥१२३।। असुहाइकमलम्मो विहिअउवक्कमललामसारिच्छो । भुवर्णमि पुज्जकमल सयकमलयस्सेणिनमणिज्जो ॥१२४॥ पूर्वं श्रीकमलासतीसमभवत्त्वद्धर्ममाहात्म्यतो माञ्जिष्टद्युतितः सदाप्यकमलायन्त प्रभो ! ते नखाः त्वत्सेवानिरतो नयादऽ कमलाकाम्यज्जनो यश्चिरम् । स श्रीमान् जगतीशनावकमलावल्लीलयालिङ्गिता:(त:?) ॥१२५॥ कमलकाम्ययतीव तपस्तथा भवदरस्त्वदुपासनकाम्ययेत् । अकमलायिभवद्वदनेन नो अकमलासिषुराश तवाङ्गनाः ॥१२६।। त्वद्वक्त्रं कमलाञ्चकार कमलन्ती लोचने नाथ ! ते संवीक्ष्यातितमामभूवकमलं व्यापद्विलासोज्झितः । त्वद्वाक्येऽनिशमोमकार्षकमलं कायश्रियां निर्मिती धन्यस्तावदहं बभूव कमलां मुञ्चन् हि मध्यामिति ॥१२७॥ त्वत्कीर्तिकान्ताकमलं जगाहे परप्रेतापं कमलोत्तराभम् । विशिष्य जिग्ये कमलाद्येमन्दंच्छन्दः समूहै: कमलार्चनीय ॥१२८।।
१.अक्षोभ, २.पराक्रम, ३.देवसुम, ४.दुर्वादिवर्गवचनाक्रम, ५.लब्धलक्षं, ६.आतंकमर्दनकं, ७.अनुक्रमः परिपाटी, ८.निःक्रमलवः चारित्रकालः, ९.कर्मविनाशः, १०.रजः पापं, ११.अतिक्रमः, १२.रम्यः, १३.बल, १४.क्रम, १५.सरजपदकमलं, १६.क्रमलता-उत्तमनराः, १७.नाम्ना, १८.कमलमिवाचेरुः, १९.कमलां लक्ष्मीमैच्छत-अकमलाकाम्यत्, २०.कमलावन्तमाढ्यं नरमाचष्टे स्म अकमलावत्- एवंविधे सलीलया लक्ष्मीवन्तमपि न जल्पयतीत्यर्थः २१.यथा तपा उष्णकाल: कमलकाम्ययतीव-जलस्य इच्छां कारयतीत्यर्थः, २२-२३.तथा तेन प्रकारेण भवदरः संसारभीतिः त्वदुपासनकाम्ययेत्, त्वत्सेवा[या] मिच्छां कारयति-संसारभीता-जीवास्त्वत्सेवाभिलाषुका भवन्तीत्यर्थः, २४.कमलमिवाचर्यते स्म, २५.लक्ष्मीरिवाचरितवत्यः, २६.कमलमिवाचचार, २७.कमल-मिवाचरन्ति, २८.अलं लकाररहितं विलास इत्यत्र लकारापगमे व्यास इति, २९.अहं त्वद्वाक्यं स्वीकृतवानित्यर्थः, ३०.अरं काय अर नामा जिनस्तस्यां को ध्वजो नन्द्यावर्तों तद्वदाचरित यः तस्य सम्बोधनम्, ३१.जात, ३२.वैरिप्रतापं किंभूतं कुसुंभं कमलोभरं-तद्वर्णभ्रष्टवर्णम्, ३३. कमलनामा पिंगलप्रसिद्धच्छन्दः तैर्विशिष्यो वर्णनीयः, ३४. महिला ।
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अनुसंधान-१५ • 51 एवं य: कमलाभिधानसुमनःस्तोमैः श्रिया निर्मलैनिर्माय प्रवरार्थसौरभभरैः स्तोत्रस्रजं सद्गुणाम् । भक्त्या श्रीवृषभाख्यविष्टपविभोरारोपयत्यादरात् तस्यासौ वरमालिकां शिवरमाकण्ठे निदेधीयते ॥१२९॥ भक्त्या श्रीयुतशान्तिविष्टपविभोरारोपयत्यादरात् । एवं पार्श्व-नेमि-वीराणामपि नामानि क्षेप्यानि
सद्योगैः कमलादिमैः कृतजनिर्दिष्टे विशे(शि)ष्टे स्फुरलक्ष्मीसागरउल्लसत्सुमतिसाधुप्राप्यसद्दर्शनः । तेजोराजिविराजिहेमविमलप्राज्यप्रतापोदयः सश्रीआदिजिनः सहर्षकुलजः कुर्यादहार्याः श्रियः ॥१३१(३०)। सश्रीशान्तिजिन-इत्यादि स्वयं ज्ञेयम् ।
पं हर्षकुलगणि कृता कमलपञ्चशतिका ॥ श्रीसोमविमलसूरिणा
स्वकृते शोधिता ॥श्रीरस्तु॥
१.कमलं पद्मं तस्योपलक्षणत्वात् शेषपुष्पग्रहणम् ॥ २. कमलयोगो जन्मपत्रिकायां सतां जायते, स ज्योतिर्विदां प्रसिद्धः । ३.स्यात्काल: समयो दिष्टः काल इत्यर्थः ।।
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महोपाध्याय श्रीसकलचंद्रजीगणि विरचित
भुनिवरसुरखेली
-सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय
आ मुनिवरसुरवेलीनी रचना सत्तरभेदी पूजाना कर्ता तरीके जगप्रसिद्ध एवा महोपाध्याय श्रीसकलचंद्रजी गणिए करेली छे ।
नाम प्रमाणे ज आमां २४ तीर्थंकरोना शासनमां थयेल विविध साधुभगवंतो तथा महासतीओनी स्तवना करवामां आवी छे । तेमां मुख्यत्वे ठाणांग, भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, अंतगडदसा, इसिभासिआई वगेरे आगमोना आधारे २४ तीर्थंकरोना गणधरो तथा साधुओनी संख्या कही छे; अने ऋषभदेव भगवानना पुत्रो तेमनी परंपरामां मोक्षे तथा अनुत्तरविमाने गयेला असंख्यात राजाओनी अने २३ तीर्थंकरोना शासनमां थयेल घणा उदारचरित साधुभगवंतो, साध्वीजीओ तथा महासतीओनी स्तवना करी छे । तदुपरांत महावीरस्वामी भगवाननी पाट - परम्परामां आवेला श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण सुधीना स्थविर भगवंतोनी स्तवना करी छे ।
छेल्ली ढाळमां २० विहरमान जिनेश्वर भगवंतोने नामपूर्वक वंदना करी छे अने प्रान्ते, पांचमा आराना छेडे थनारा आचार्य श्रीदुप्पसहसूरिमहाराजने वंदना करी सुरवेलीनुं समापन कर्तुं छे ।
वच्चे वच्चे मधुर प्राकृत गाथाओथी मिश्रित आ सुरवेलीमां कुल २१ ढाळो छे, जेमां १४४ कडी छे । छट्ठी ढाळ प्राकृतभाषामां छे अने छेल्ली ढाळ संस्कृतमां छे । प्राकृत गाथाओ १६ छे ।
प्रतिनां कुल ८ पत्रो छे, अने तेनुं लेखन वि. सं. १६८२ ना कार्तिक सुदि १५ना दिवसे थयुं छे तेवुं अंते लखेली पुष्पिकाथी जणाय छे।
मुनिवरसुरवेली
॥ नमः ॥
तुं जिनवदनकमलनी देवी तुं सरसति सुरनरपति सेवी ।
तुं कविजन - माता सुअदेवी तिइ मुझ निर्मल- प्रतिभा देवी ॥१॥
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अनुसंधान-१५ • 53. मिइं मुनिवर-सुवेलि करेवी तेणि कारणिइं मिइं तु समरेवी । तिहां पूरवमुनिसेणि गणेवी तस गुणगति नित भविक जपेवी ॥२॥ त्रिविधई तस करणीत तुलेवी तिणिइं निज पातक रवोणि हणेवी । ते मुनिवेली कंठि करेवी तेणे भवजलनिधि वेलि तरेवी ॥३॥
(१) ढाल - (राग-कांनडु) संसारे सुणि जीव अपारे अतिदुर्लभ मानवअवतारे । विवेकदीवो मति अवतारे लाधू गुणठाणुं मम हारे ॥४॥ आपइं आप सरूप विचारे जगि दुर्गतिनां दुख संभारे । मिथ्यामतिमत-मोह निवारे एहित सीख सदा अवधारे ॥५॥ ममता माया मान विदारे रमि पुरुषोत्तम-ध्यानाचारे । त्रिभुवनजन-प्रतिबोधागारे नित वंदन करि सम अणगारे ॥६॥ अशरण सम षट् जीवाधारे समता-सुचि-गुण-पारावारे । निर्जित-दुर्जय-मदनविकारे वंदन करि जिनपति मुनिसारे ॥७॥
(२) ढाल-सरसति-अमृत ऋषभादिक चउवीस जिणिंदा, जस सेवइं नित चउसठि इंदा,
प्रणमिइ जस गोविंदा । अट्ठाणवईअ नमि मुणिचंदा, वेआलिअसुअमुअ(मुप)शमकंदा,
ऋखभसुआ गोविंदा ॥८॥ पुरिमतालपुरे जिणि सिक्खिआ, पुंडरीकपमुहा जिणि दीक्खिआ
___ भरतपुत्र नमो तस सत्तसई ॥९॥ पुंडरीकपमुहा चउरासी, गणहर तिम मुनि सहस-चउरासी,
कलपसूत्र इम भासी ॥१०॥ लबधिवंत गुरु गण-कुलवासी, मुनिवंदनि जस मति नवि वासी,
__तस मति कुमति विणासी ॥११॥
नाग-गोअसवण(ण) थिविराणऽहो, महफलं भणिअंच गुणावहो, वंदणं नमणं पडिपुच्छणं, बहुलपातकसंततिमुच्छणं ॥१२॥
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अनुसंधान-१५.54 (३) ढाल (मृगापुत्रनी) (काइं निसान हो-) लाख चउरासी छंडिआजी, हय-गज-रथ नर-कोडि । चउसठिसहस अंतेऊरीजी, नव-निधि रयण विच्छोडि ॥१३॥
_ नमो भवि भरहो रायरिसी; तस आठ पटिइ केवलीजी, निसुणो तेहनी लीह नमो० ॥१४॥ त्यागी शिर चूडामणीजी, चडीउ भावणि भावि । आपइं आप विचारताजी, तरीओ समता भावि नमो० ॥१५॥ आरीसाघरि केवलीजी, पूरवलाख निरीह । दश सहस-नृपस्युं संयमीजी, विचर्यो मुनिनो सीह नमो० ॥१६॥
(४) ढाल (हविइ तुम नथीअ जिन) ऋषभनो वंश रयणायरो, तस नररयणनां नामो रे । ऊगतिइ दिनकरइ लीजीई, यम सीझसइ[स]वि कामो रे इक्खागवं०॥१७॥ आइच्चजस मुनी केवली, भरथनरेसर-पूतो रे । महायस अतिबल महाबलो, तेजोवीर्य ति पूतो रे इक्खाग० ॥१८॥ कीरत्तिवीर्य ते केवली, दंडवीर्य तिम जाणो रे । आठमु जलवीर्य केवली, इंम ठाणांगि वखाणो रे इक्खाग० ॥१९॥ बंभीअ-सुंदरि बोहिउ, केवली बाहुबलीसो रे । एवमसंख्य ते मुणिवरा, ते प्रणमो निसदीसो रे इक्खाग० ॥२०॥ प्रणमीइं सिद्धनी दंडिका, जाव ति अजितनी बीजी रे । सिद्ध-मणुत्तरसुरगती, विणु तिहां गति नही बीजी रे इक्खाग० ॥२१॥ अजित पंचागुंअ गणधरा, मुणिवर एक ज लाखो रे । सकलमुनीसर सुरलता, सेवी तस फल चाखो रे इक्खाग० ॥२२॥
(५) ढाल (सफल संसारनी) राग-गुडी एकशत दोइ जिनसंभवे गणहरा लाख दो मुणवरा सयल पातकहरा । एकशत सोल अभिनंदणे गणहरा लाख तिम तीन मदहीन मुनि शुभकरा ॥२३॥
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अनुसंधान-१५.55
सुमतिजिन एकशत मतिधरु गणहरा वीस सहस्सग्गला तीन लखा पुरा । एकशत-सात पऊमप्पहे गणहरा तीस सहस्सग्गला तीन लक्खा घ(व)रा ॥२४॥ जिणसुपासस्स पंचाणूंआ गणहरा तीन लक्खा नमो साहू सोहाकरा । सामि चंदप्पहे त्राणुंआ गणहरा अढीअ लक्खा तहा साहू धम्मागरा ॥२५॥ असीअ अट्टग्गला सुविहिजिणि गणहरा दोइ लक्खाऽणगारा य मंगलकरा । सीतले नमसुं एकासीआ गणहरा एगलक्ख मुणीणं नमो भविवरा ॥२६॥
___ (६) ढाल (सामलिआनी) राग-मल्हार अजितजिणिदतित्थं नमो, नमो सगर मुर्णिदो । नमह मघवं च चक्की मुर्णि, सणंकुमर नरिंदो ॥२७॥ संति-कुंथु-अरजिणवरं, पउमं दिरिसेणं । जेहिं मुक्कं च चक्कित्तणं, नमह तं जयसेणं ॥२८॥ विमलतित्थंमि जं दीक्खिअं, महाबलय मुणीसं । सेठिसुदंसणं तं पुणो, महावीरजिणसीसं ॥२९॥
गाहा अचलं विजयं भई, वंदे सुप्पभ-सुदंसणं सिद्धं । आणंदनंदणं च, पउमइय अट्ठ बदेवे(वंदेवे ?) ॥३०॥ जेणुग्गतवं तत्तं, अवराहं दटुं नियप(स)रूवस्स । तुंगिअगिरिवरसिहरे, सो राममहामुणी जयउ ॥३१॥
(७) ढाल (परममुनिनी) राग-सामेरी सामिसेआंस बावत्तरि गणहरा सहस चउरासीआ पवर-जोगीसरा ।
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अनुसंधान - १५•56
वासुपुज्जस्स छासट्ठि वरगणहरा सहसबावत्तरि साहु संतीकरा ॥३२॥ विमल पंचास सत्तग्गला गणहरा सहस अडसट्ठि साहु सुबोहंकरा । चउदमइणं तिपंचास गणहराऽरया सहसछासट्ठि अणगार भवपारया ||३३|| धर्मभगवंत त्रेताल वरगणहरा सहसचउसट्ठि वाचंजमा तववरा । संतिजिणनाह छत्तीस गणहारयया सहस बासट्ठि निग्गंथ सीलागरा ||३४|| कुंथुजिण पणमि पणतीस वरगणहरा सहस सट्ठी बिसिट्ठि मुणाणंभरा ( ? ) । अरजिणे जाणि तेतीस गणहारया सहसपंचास साहुअ उवगारया ॥३५॥
(८) ढाल (सुणि जिन त्रिभुवनविंदनी ए - ढाल) ज्ञाताधर्म्मकथांगिइ मल्लिजिणेसरिइं, जातीसमरण पामीआ ए । पडिबुद्धी मुखिराय अंगनरेसर, कोसल- चंपासामीआ ए ॥ ३६ ॥ संखो रूपीराय अदीणसत्तुअ छट्ट जितशत्रु मिल्यो ए । मल्लिजिणेसर पासिई संयम अणुसरी, सुअपूरव पुरुषो कल्यो ए ||३७|| षटकेवली मुणिंद सिद्ध (द्धि) वधू वर्या, ते प्रणमो मुनिराजीआ ए । विष्णुकुमारमुणिंद लबधि-तपीसर, जस लबधिरं गुरु गाजीआ ए ||३८|| पंचसया एगूण खंदगसीसाण, अंतगडा नवि वीसर ए । मुणिसुव्वयजिण पासिहं कत्तिअसिट्ठिअ, अट्ठसहसस्यूं नीसरई ए ॥३९॥ (९) ढाल (सकल गुणरासिनी )
अट्ठवीसं च मल्लिस्स ते गणहरा, सहस्स च्यालीस निग्गंथ सोहाकरा । मह अट्ठारसं गणहरा सुव्वए, तीस सहसा सुसाहूरया सुव्वए ||४०|| सतर शुभ गणहरा नमिजिणे गतमरा, वीस सहसा य वाचंयमा सुअहरा ।
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अनुसंधान-१५ • 57 नेमिनाहमि अट्ठार नमि गणहरा, प्रणमि अट्ठारसहसा य तस मुणिवरा ॥४१॥ घोरउवसग्गि जस नो वि समयावली, वाघिणी-खज्जमाणो वि जो केवली । मुणि स(सु)कोसल तहा कित्तिधरथी मली,
कर्मनी रासि सुग्गिलगिरिइ सिव मली ॥४२॥ (१०) ढाल देशाख (वंदो मेरे भाइनी) नेमि समीपिइ दीख गहीनिइ, भरी आउए समरंगि रे । जे यादव सीधा सेत्तुंजिई, ते नमि आठमि अंगिइ रे ॥४३॥ अंधगविष्णि-धारणी पूता, गौतम समुद्रसागरा रे । गंभिरो थमितो अचलाभिध, अक्खोभ कंपिल नागरा रे ॥४४॥ प्रसेन विष्णु कुमारा दसए, आठ तिजी वधू कोडी रे । भिक्खु पडिमा बार वहीनिइं, जेणि भवदुखतति तोडी रे ॥४५॥ विष्णि-धारणीना आठ नंदन, अक्खोभ समुद्दसागरा रे । हिमवंतो अचलो अभिचंदो, पूरण धरणा धीवरा रे ॥४६।। आठ आठ कोडि तिजी रमणीनई, नेमिइ दीख्या दीधला रे । सोल वरीसी पाली दीख्या, सित्तुंजगिरिवरि सीधला रे ॥४७॥ सुलसा-नाग देवकी षट् सुत, अणीअजसादिक तामिला रे । कोडि बत्तीस बत्तीस तिजीनइ, रमणि बत्तीसी वामिला रे ॥४८॥ धारणि वसुदेवा गजसारण, कोडि वधू पंचासो रे । चउद पूरवी मुनिवर सीधा, तोडी भवदुख पासो रे ॥४९॥ गजसुकमाल देवकीनंदन, तिजि दिजकुमरी राजो रे । नेमि दीख एकराई पडिमा, बलीउ लिइ सिवराजो रे ॥५०॥
गाहा तं वंदे रहनेमि चउरो वच्छरसयाई जस्स गिहे । जो वरिसं छउमत्थो पंचसए केवली जो उ ॥५१॥
(११) ढाल - असाउरी (देखण दे) सुमुख दुमुख मुणि कू(रू?)प अणाढिअ, दारुक रामकुमारा रे । तिजि पंचास कोडि तिम रमणी, मुणि सीधा कृतपारा रे ॥५२॥
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__ अनुसंधान-१५ • 58 जालि मयालि वयालिअ नामा, पुरिस वारिसेण वीरा रे । ए वसुदेव-धारणी जाया, वधू पंचास तिजीया रे ॥५३॥ प्रद्युमनो हरि-रुपणि पूतो, संबो जंबूव तीनो रे। . अनिरुधो प्रद्युम्नतणो सुत, जायो वैदरभीनो रे ॥५४॥ सिवा-समुद्रविजयना पूता, सत्यनेमि द्रढनेमी रे । पंचास पंचास तिजी वधू, सीधा दीखित नेमी रे ॥५५॥ पदमावति गोरी गंधारी, सुभलक्खल(म)णा सुसीमा रे । जंबवती सत्यभामा रूपिणि, हरि-वधू आठ सुनामा रे ॥५५॥ महामति संबतणी दो धरणी, मूलसिरी मूलदत्ता रे । पवेसे वीस वरीसी दिक्खा, पाली सिवसुह-पत्ता रे ॥५६॥ आठमअंगि छठि वरगिई, महावीरजिण पा(भा)सइ रे । ऋद्ध-समृद्ध-मकाई प्रमुखा, सोल गया सिववासिई रे ॥५७॥ सेठि मकाईअ अर्जुनमाली, कमिउ कासव खेमा रे । धृति धीरो कलिसहरि वंदन, वार तिस्यूं गतपेमा रे ॥५८॥ साहु सुदंसण पूरणभद्रो, सुमणभद्र सुपतीठा रे । मेघो अतिमुत्तो अ अलक्खो, सोल अंतगडि दीठा रे ॥५९॥
गाहा जो वासुदेव पुरओ, पसंसिओ दुक्ख(क)रं करेउ त्ति । सिरिनेमिजिणवरेणं, तं ढंढणरिसिं नमसामि ॥६०॥
(१२) [ ढाल ] राग-केदार-गोडी अंतेउरी ए तेर नमो भवि, अंतेउरी ए तेर । श्रेणिकनरपति वालडी रे, मुक्या भवना फेर ।
हा रे जिण मुकी किरिआ तेर नमो रे० ॥६॥ नंदा नंदवती सती रे, नंदुत्तर मरुदेवि । सुमरुत मरुता तह सिवा रे, णंद सेणिआ सेवी ॥६॥ भद्रा सुभद्रा सुसणादेवि, देवि सुजाता वंदि । भूतदिना नमि तेरमी रे, सिद्धिगई चिर नंदि ॥६३॥
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अनुसंधान- १५•59
श्रेणिकनी अंतेऊरी रे, दस अने (अंते) उरी जाणि । तप उपशमना कुंपला रे, पुहती सवि निर्वाणि ॥६४॥ काली रयणावलि तपि रे, कनकावलीइं सुकालि । कृष्णा महासति महसीहिं रे, लघुसीहिंडं महाकालि ॥६५॥ सत्तमी प्रतिमा वही रे, कृष्णा देविइ च्यारि । सर्वभद्र लघु- महाकृष्णा रे, वहती पुहनी (ती) पारि ॥ ६६ ॥ सर्व थकी महाभद्र करीन, वीर सुकृष्णा नारि । भद्रा वर प्रतिमा वही रे, राम सुकृष्णा धारि ॥६७॥ पितु कृष्णा मुगता वली रे, आंबिल तप व्रधमान । महसेणा कृष्णा करी रे, लुणीआं दुखनिदान ॥६८॥ (१३) ढाल (परममुणि झाणनो )
तिजीअ बत्तीस वरइब्भकुलबालिको सहसपुरिसेहिं सम संजमं पालको । चउदपूरवधरो नेमिजिण-रत्तओ कुमरथावच्चर सिद्धिसुह पत्तओ ॥६९॥
गाहा
सुच्चा जिणं (णि) दवयणं, सच्चं सोअं ति पभणिओ हरिणा । कि सच्चं ति पव्वुत्तो, चि ( चि) तंतो जाइसरणाउ ॥७०॥ संबुद्धो जो पढमं, अज्झयणं सच्चमेव पन्नवइ । कच्छुलनारयरिसिं, तं वंदे सुगइगइपत्तं ॥ ७१ ॥ नारयरिसिपामुक्खे, वीसं सिरिनेमिनाहतित्थंमि । पन्नरस पासतित्थे, दस सिरिवीरस्स तित्थंमि ॥७२॥ पत्ते अबुद्धसाहू, नमिमो जे भासिऊं (उं) सिवं पत्ता । पणयालीसं इसिभासिआई अज्झयणपवराई ॥ ७३ ॥
(१४) ढाल ( त्रिभुवन जिनपति वीर नइ ) राग - सिंधुओ सहस पुरुषस्यूं संयमी, सिरिथावच्चा गुरु पासिइ रे, पासिइ रे ।
ते पूरव सम अभ्यासीआ रे ॥७४॥
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अनुसंधान - १५• 60
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सेतुंजगिरि सिरि शुकमुनी, करी अणसणि सीधो रे, सीधो रे । तिहां सेलगमुनि शत पांचसूं रे ॥७५॥ सेलगत पडिबुद्धो रे, मुनि तिजीअ सरीरो सीधो रे, सीधी रे ते शुभध्यानि विमलाचलिई ॥७६॥ ऊजलगिरि सुरपति नम्यो, बहुवरिससयाइ तवसी रे, मुवसी रे । ते सारण केवल प्रणमीइ रे ॥७७॥ हणिओ पणि दुर्योधनि, पण पंडवि पणि थुणिउ रे, सुणिउ रे । दमयंत मुणी जगि सो नमो रे ॥७८॥
रामसुर कुंजवालुओ, सो बारवतीमां बलतो रे, [बलतो रे] । कहई चरमशरीरि हूं कह्यो रे ॥ ७९ ॥ उपाडी सुरि आणीओ स ( स ) रि नेमि तणे ते पासिइ रे, वाम्यो रे । सो संयमि केवलसिरि वड्यो ए ॥८०॥
पंच वि ते मुणि पंडवा सूणी नेमि तणूं निर्वाणूं रे, जाणू रे । ते बहु मुनिस्यूं मूगति गया रे ॥ ८१ ॥
(१५) ढाल ( पियारु ए लयदिय महम सिवराज )
संमिलिआ केसी - गोयम गणहर दोइ । सावत्थी नगरमां अंबर, कौतक बहु सुर जोइ ॥८२॥ सोल सहस मुनि दस गणधरस्यूं, प्रणमूं अ पासजिणंद तस पावलि सुअ चउनाणी, केसिअ कुमर मुणिंद ॥ ८३ ॥ जेणि प्रतिबोध्यो राय पएसी, राजपसेणिअ साखि । वीर तणूं शासन पडिवजिऊ, उत्तराध्ययन इम भाख ॥८४॥ कालावेसिअ मुनिवर नमिओ, लोकपालि सुर च्यारि । पादोपगमनि खाइ सीआली, मुंगिले गिरि मनि धारि ॥८५॥ कालिअपुत्तं मेहलिथेरं, आणंदरक्खिअथेरा ।
ए सवि पासावच्चिअथेरा, नमि जस नहीं भव फेरा ॥ ८६ ॥
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अनुसंधान-१५ • 61 कालावेसिअपुत्तं आया, सामायिअ मुणि सीद्ध । कुंडरीक भाया पुंडरीओ, उपशमस्यूं व्रत लीध ॥८७॥
(१६) ढाल-राग मल्हार ............ .......... वंदति पहु देवानंदा । पीन पयोधर खीर झरंती, मातिन मनि आनंदा रे ॥८८॥ समवसरणि गिरि उग्यो देखती, प्रभु मुख पूनमचंदा रे । ऋषभदत्तमाहणस्यूं देखती, गोअममाइ मुणिंदा रे ॥८९॥ एकादश वर गणधर गिरुआ, चउद सहस यतींदा रे । वीर वदइ हम मातपिता ए, दीख भए सुखकंदा रे ॥१०॥ करकंडु दुमहो नमीराया, तह निग्गई (नगगई ?) नरिंदो रे । ए प्रत्येक मुनिवर सवि सीधा, सीधा प्रसन्नचंदा रे ॥११॥ वलकलचीरी अइमुत्तो मुनि, कुमरा केवलि जाया रे । लोहज्झो मुणि खुडुगकुम(मा)रो, केवलि पवयणि गाया रे ॥१२॥ दढपहारि महातवसी सीधो, कूरगडु चउ खवगा रे । पनरससयां तावस मुणि केवल, गोयम बोहिअ सिवगा रे ॥९३॥ प्रणमह तं सिवराय रिसीवर, नमीइं दंसणभद्दा रे । मेतारज अ इलाईअपुत्तो, केवलणाणसमुद्दा रे ॥१४॥ केवलि इंदनाग मुणि भगवति, मृगापूत सिवपत्ता रे । धर्मरुची महापउमो मुनि वर, महासुक्कि सुर पत्ता रे ॥९५।।
गाहा उवसम-विवेग-संवर-पयचिंतणवज्जदलियपावगिरि । सोढुवसग्गो पत्तो, चिलाइपुत्तो सहस्सारे ॥९६॥
(१७) ढाल-गांठडी तेतलीसुत मुनि केवली, जितशत्रु मुनीस रे । उदगबुद्धि सुधी धीनिधी, तस चरण नमीसि रे ॥९७॥ अद्दकुमारो गयबंधणो, तहा पुत्त पेढाल रे । श्रीसुजातो मुनि केवली, सुदंसण व्रत पाल रे ॥९८॥
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अनुसंधान-१५ • 62 गंगजल विमल गंगेअउ, जिण पालि उसग्गि रे । धर्मरुचि अणाकुट्टिओ, सरवारथि सग्गि रे ॥१९॥ साहु जिणदेव ते केवली, कपिलकेवली जोइए रे । पंचसि चोर ते बोहिआ, सुणइ कौतक होइ रे ॥१००॥ तपसिहरि केसिउ सुर भज्यो, इखुकार नरिंदो रे । तस घरणी कमलावती, सती सुभगनो कंद(दो)रे ॥१०१॥ भृगुप रोहितजसा भारिया, तस वरसुत दोइ रे । ए षट संयमि केवली, मुगति एकठां होइ रे ॥१०२॥ खित्ति मुणि पडिबोहिओ, मुनी संपतीराय रे । उत्तराध्ययनि मोटूं चरी, सुणिहं कौतुक थाइ रे ॥१०३॥ सेणिअसुत अणाथीमुणी, समुदपालिउ सीध रे । जय-विजयघोष साहु हवे, सिवरमणी अ लीध रे ॥१०४||
(१८) ढाल (जिन त्रिभुवन कीरति विस्तरी) गंगाजल भर विचि केवली, अनिकासुतथि वरइ सिवकली । आज तिहा प्रयाग तीरथ वली, करीउ तिहां महीमा सुर मली ॥१०५।। कटुतुंबी धर्मरुचिं गली, तेणि कर्मतती तिहां बहु दली । देवलासुत रायरिसी गणूं, कुरमासुत दो रयणी तणूं ॥१०६।। मुणि चंडरुद्दसीसो सुणूं, तस खंतिगुणा केता भणूं । निजगुरु जेणे पडिबोहिओ, तेणेइं गुरु पणि वर केवल लीओ ॥१०७|| जेणिइं वर बत्तीस रमणि तिजी, जेणि उज्झिअभिक्खा भर भजी । सोइ वीरपसंसिअ धण मुणी, सरवारथ सिद्धिइ सो गुणी ॥१०७॥ थुणि सीतलसूरी अ केवली, तस चउ भाणेजा तिम वली । दस सुत विपाक धूरि जाणीइं, मुणि दाणि सुबाहु वखाणीइं ॥१०८।। नव भद्दनंद पमुहा तहा, रोहा मुणि पिंगलमुणि कहा । एकादशअंगी अ भगवती, कहीउ खंदगतावस यती ॥१०९॥ जिण वीर सीस ती-सय मुणी, बहु वरिस छ? तवसी सुणी । मासं संलेहिअतणूं वरो, जाओ सामाणिअसुरवसे ॥११०॥
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अनुसंधान-१५ • 63 कुरुदत्तसुउ बहुतवजुओ, चउबुद्धिनिधी अभड सुउ । तह मेघकुमर सेणिअसुतो, गुणरयणतवो विजए गतो ॥१११॥ सेणिअसुत तव संजमजुअ, विणूवेरा हल्ल-विहल्लया । गुणरयणा एगऽवतारया, विजयंतविमाणे ते गया ॥११२॥
(१९) ढाल-गुडी(अंबरथीति) जिन-गुरु रागिइ ततु, तिजीसरगि गयु सहसारिइ । एक अवतारीअ प्रणमीइं, सार्वनु(सर्वानुभूति अनिगारिइ ॥११३।। तेजोलेसि-गोसालीइ, बलिउ मुनि सुनक्खित्तो । अच्चुअसरग ते पामी, जिनगुरुभगतिसु जुत्तो ॥११४॥ वीरजिनौषधदायगो, धिन सीहो अनगारो । रेवतीगिह पडिलाभीउ, रडिउ रागि अपारो ॥११५॥ सालिभद्र धिन धनमुणी, जेहि तजी महारिद्धी । वैभारि अणसण गया, ते सरवारथसिद्धी ॥११६॥ रायरिसी जिन वीरना, चरम उदायी सीसो । केंवल वर मुगति गयु, प्रणमो सो निशिदीसो ॥११७॥ जंबू मुणी नवजोवणो, तिजी नारी बहु कोडी । गुणनिधि चरम ते केवली, मुगति गयु दस तोडी ॥११८॥ प्रभवो गुरु सिज्जंभवो, जसभद्दो संभूती । विजय भद्दबाहु गुरु, चउदसपूर्वी विभूती ॥११९।। शीत सही मुनि सुर थया, भद्रबाहु चुर सीसो । महागिरि गुरु सुहत्थी गुरु, जिनकलपादि जगीसो ॥१२०॥ नारिबत्तीसी अ जो तिजी, नलिणीगुलमविमाणि । कुमर अवंतीअ सुर थो, मुणि सीआलिअ खीणि ॥१२१॥ उक्तं च
सोऊण गुणिज्जंतं, सुहत्थिणा नल(लि)णिगुम्ममज्झयणं । तक्कालं पव्वइओ, चइत्तु भज्झाउ बत्तीसं ॥१२२।। तिहिं जामेहि सिवाहि, अवच्चसहियाहिं सहिअउवसग्गो ।
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अनुसंधान - १५ • 64
साह (हि) अकज्जो तिअगेहि, महिओ अवंतिसुकुमालो ॥ १२३॥
गाहा
एगो गुहाइ हरिणो, बीओ दिट्ठीविसस्स सप्पस्स । तइओ उ कूवफलहे, कोसघरे थूलभद्दमुणी ॥ १२४ ॥
भयवं पि थूलभद्दो, तिक्खे वंकंमि (खग्गंमि ) [ग]ओ न उण छिन्नो । अग्गिसिहाए वुत्थो, चाउम्मासं नवि अ दड्ढो ॥१२५॥
(२०) ढाल ( थावच्चानी )
बहु पद पन्नवणा पन्नवणा, निज्जूढा भगवंति ।
वीसमय पटधर जाणो, सा (सो? ) मसूरि गुणवंतिइ ॥ १२६ ॥ भविआ प्रणमो भवि उपगारी
थिविरावलिइ कह्या जे थेरा ते प्रणमो गणधारी ॥ सीह गिरिना सीस मनोहर, धणगिरि वयर सुसीसा । जेथे ते प्रणमो गणधारी अरिहदत्त गुरु सि ( स ) मितायरिआ, भद्र सुगुप्त मुनीसा॥ १२७॥ पढमणुओगि जिणभव चक्की, दसारभद्द चरिआइ । कालयसूरि लोग निमित्तं, कासीसो जगत्ताई ॥१२८॥ अज्जसमुद्द थेर दुबलिया, पुत्तसमं गणधारी । पंचसया तावस पडिबोहग, मुणि समितं उवगारी ॥१२९ ॥ नहगमणी वेउव्विअलद्धी, जेणि धरी नयऋद्धी । सुयधर चरमो जाइअसरणो, वयरसामि बहु बुद्धि ॥१३०॥ वयरखुड्डगं अणसणसहिअं, लोगपालि रहवत्ते । रहावत्त तेणइ नाम पवत्तो, लस नमि सिरसावत्ते ॥१३१॥ वयरीशाखा जेणि पवत्ती, वयरसेणि सुभ जोगो । हीणबुद्धि मुणि कालइ जाणी, चउहा कय अणुओगो ॥ १३२ ॥ जेणं सो मुणि अज्जरक्खिओ, सुर-नर- किंनरमहिओ । तह दुब्बलिआ पूसमित्तओ, नव पूरवधर कहिओ ॥ १३३ ॥ दुभिक्खे नद्धे अणुओगे, महुराए अणुओगो ।
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अनुसंधान-१५ • 65 खंदिल आयरिएण पवत्तो, ते जण(जिण)सासण जोगो ॥१३४॥ सुअवायण रयणायर गणधर, उवसम-खम-दमभरिओ । खमासमण देवड्डीअ प्रणमो, जिणि आगम उद्धरिओ ॥१३५।।
. (२१) ढाल (धन्यासी) नरगंधसिंधुरं कंबुवरकंधरं वदनवासंतिका-गंधधारि(रं) । सेज्झ-दयाधर(रं) तह दयेंग(?) सीमंधरं त्रिजगदाधार-जातावतारं ॥१३६।। रूपगुणसुंदरं विश्वसि(सी)मंधरं विहरमाणादिमानंदकारं । सकलजिणबंधुरं शुचितश्रुतिकंदरं, रचित गीर्वाणगीतोपचारं ॥१३७॥ धीधना भो जना ! जपत युगंधरं जिनपबाहु-सुबाहु-सुजातं । स्वामिस्वयंप्रभं नमत ऋषभाननं नंतवीर्यं महत सुप्रभातं ॥१३८॥ श्रयत सूरसभं देवविशालकं वज्रधराभिध(धं) स्मरत यूतं । भजत चन्द्राननं चंप्र(द्र)बाहु(ह) तथा जिन जगेश्वरं त्रातभूतं ॥१३९॥ नमत नेमिप्रभं वीरसेनं जिनं महाप्रभावं तथा देवयशसं । अजितवीर्यं अमी विहरमाना जिना मंगलं भवतु वो सुप्रशस्तं ॥१४०॥
पुक्खरवरदीवड्डे धायइसंडे अ जंबूदीवे अ। भरहेरवयविदेहे धम्माइगरे नमसामि ॥१४॥ उस्सप्प(प्पि)णि(णी)इ चरिमं दुप्पसहं गणहरं च वंदामी(मि) । एए अन्ने य तहा चंदनबालाइ समणीउ ॥१४२॥ मुणिएगमंतमालं, सिवयं समायरइ जो सया कालं । सो पावइ य विसालं, पुण्णं पावक्खए मूलं ॥१४३।। सिरिआणंदविमलगुरुपट्टे सिरिविजयदानगुरुपट्टे । सिरिहीरविजयचंदं वंदइ तं सकलचंदमुणी ॥१४४॥
॥ इति साधुवंदना-मुनिवरसुरवेलि समाप्तः ॥ ग्रंथाग्रं-२००॥ संवत् १६८२ वर्षे कार्तिक सुदि १५ दिने सुश्राविका मानबाई पठनकृते ॥
सुभं भवतु ॥
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वा.यशोविजयप्रणीत शारदागीत
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि उपाध्याय श्रीयशोविजयजीनी एक गेय लघु स्तोत्र-रचना प्रस्तुत करतां आनन्द थाय छे. झूलणा छंदमां रचायेल आ गीत-रचना छे, जेमां माता शारदानी स्तुति थई छे. यशोविजयजीनो मुद्राक्षर 'ऐं' आना प्रारंभमां नथी, परंतु नवमा पद्यमां आवतु 'सुयशः' पद, कर्ता- स्पष्ट सूचन करे छे. आठमा पद्यमां 'कान्ति विजयस्मृति' एवो नामनिर्देश छे, ते परथी आ गीत कान्तिविजयजी माटे रचायुं होय एवी अटकळ थई शके. रचना पण प्रगल्भ छे.
शारदागीतम्। प्रणमतानर्गलज्ञानसञ्जीविनी
भारती सारतरभक्तियुक्त्या । बोधसंबोधितस्वीयपरिचारका
चारुकान्ति तमश्चारमुक्त्या ॥१॥ प्रणम० वेदगर्भात्मजां गर्भितार्थस्फुर
दृत्तवृत्तस्तुताम्लानवृत्ताम् । उद्यतान्तष्कृतिप्राज्ञमल्लानन
मण्डपानीतकौशल्यनृत्ताम् ॥२॥ प्रणम० यत्प्रसत्त्या सतां मण्डलीमध्यगोऽ
___ साध्यविद्योमतैर्ग्रहः स्यात् । मानवो वर्णहीनोऽपि वर्णोच्छ्रित
प्रोच्चवाग्मोहवृद्धीनिहन्यात् ॥३॥ प्रणम० चन्द्रिकाधौतशृङ्गारतारद्युतिः
शुभ्रपक्षाधिरोहिण्यघानि । हस्तकृतपुस्तका कच्छपीवादन
स्पष्टबुद्धिश्छिनत्त्यसलानि ॥४॥ प्रणम० १.अमतैः प्रतिपक्षैः मतैर्नयैश्चेति श्लेषः । २. विवर्णः ।
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अनुसंधान-१५ . 67 यां स्तुवन्त्यात्मनीनेच्छवोऽहनिशं
स्वर्गुरुप्राग्रहरनाकिसंघाः । भालपट्टालघुव्याक्तरत्नच्छवि
च्छाकामाङ्कशालब्धरंघाः ॥५॥ प्रणम० मल्लिकास्त्रग्भरापारसद्वासना
प्रीणिताल्यालिरालम्बिकीर्तिः । पूर्णचन्द्रानना प्रैष्यकृतमाननी
___ वर्वृतीतीह या दिव्यमूर्तिः ॥६॥ प्रणम० वेदनं स्याद् यतस्तत्त्वमार्गस्ततः
सक्रियातस्ततो मोक्षसम्पत् । सौरव्यमस्यामजयं यतस्तस्य तु
कारणं केवला या निरापत् ॥६॥ प्रणम० इत्थमच्छीकृतिः कान्तिविजयस्मृतिः
सारदा सारदा संचिनोतु । भूरिभाग्योदयोत्ताललीलाप्रदा
सेवितुर्मोहनिद्रां धुनोतु ॥८॥ प्रणम० इदमष्टकं पठति यः प्रमना
उपसि प्रसूतसुयशस्तनुजः । स गिरा गिरः सुरगुरुप्रतिभः
सुधयेव तोषयति सूरिंगणान् ॥९॥ वाक्स्तुतिः ॥
३.प्राप्तवेगाः ।
४. अनपायि ॥
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निशालगरणुं : भूमिका
५-६ वर्ष पूर्वे थोडां फूटकल हस्तप्रतनां पत्रो प्राप्त थयां. तेमां 'निशालगरणो' नामनी संपूर्ण कृति प्राप्त थइ. तेना आधारे संपादन कर्तुं छे.
सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय
अन्त्य पंक्तिमा 'सुर' एवा उल्लेखथी जणाय छे के आ कृतिना कर्ता 'सुर' मुनि छे. 'गुजराती' साहित्यकोश खंड १ मध्यकाल' पृष्ठक्रमांक- ४७० पर 'महावीर निशालगरणुं पद'ना कर्ता तरीके 'सुर - सुरजी 'नो उल्लेख छे. ते आ पद परत्वे ज होवानुं लागे छे.
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कृतिने अन्ते संवत आदिनो निर्देश नथी. मुनि हेमविमलजीए आ पोथी लखी छे एम जणाव्युं छे.
आ कृतिमां प्रभु निशाले भणवा बेठा तेनुं वर्णन छे. प्रभु तीर्थंकर हता, सहज ज्ञानी हता, तेमने भणवानी आवश्यकता न हती. तथापि जैनकथा प्रमाणे माता - पिता प्रभुने निशाले भणवा मोकले छे. इन्द्र महाराजानुं आसन चलित थाय छे. सर्व वृत्तान्त जाणीने इन्द्र ब्राह्मणनुं रूप धारण करीने पंडित पासे आवीने महावीरने विविध प्रश्नो पूछे छे, अने तेओ तेना जवाबो आपे छे, तेना उपरथी 'जैनेन्द्रव्याकरण' बन्युं हतुं.
निशाल एटले शाला- पाठशाला. 'गरणो' के 'गरणुं' शब्द प्रायः 'गमन' उपरथी बनेलो लागे छे. गमननुं गमण-गमणुं, तेना परथी गरणु-गयणुं एवं अपभ्रंश रूप बनी गयुं होय.
तीर्थंकर ज्यारे शालाए जाय त्यारे केवा शणगार सजावाय, केवो आडंबर रचाय, केवी शोभायात्रा नीकले, विद्यार्थीओने तथा अध्यापकोने केवां भेटणां अपाय वगेरे क्रियाओनुं शब्दचित्र आ नानकडी कृति द्वारा उपसाववामां कर्ताए घणी कुशलता दर्शावी छे.
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श्रीमहावीर स्वामी, निशालगरणुं ॥
- सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय
निशालगरणो त्रिभुवनजिन आणंदा रे,
माता त्रिशलादेवी नंदा रे, वडु रे वीर जिणंद सोहामणा ए ॥१॥ डु(दु)रगनीया मन दमता रे,
सखी साजनीया मनगमता रे, रमता ते वीरकुंमर मोटा थया ए ॥२॥ जिम जिम वीरकुंमर हसें,
सखी तिम तिम दिलडां उलस्यें, उछरंगे निशालगरणो मांडियो ए ॥३॥ धसमस करती धाई,
सखी बेहनी मंगल गाइ रे, आवे रे नरनारी उतावला ए ॥४॥ धसमस करती मांडी रे,
सखी कुंअर ताणें साडी रे, सुखलडी मांगे लहुँउ मन रली ए ॥५॥ पुत्र जीये हरो वांकडां,
सखी कोटें सोवन सांकलां, वांकडां साव रत्नहीरे जड्यां. ए ॥६॥ आरस मोती अंगा रे,
सखी निरमल रंग सुरंगा रे, जास्युं रे सहु आवे सोहामणा ए ॥७॥
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अनुसंधान-१५ . 70 हाथें सोवनपाटडी
राणी त्रिशला ओढें घाटडी, घाटडी साव रतन-हीरे जडी ए ॥८॥ . बांहे बांधो नीरली
सखी हाथें सोवनमुद्दी (मुद्रडी) मुद्दी(द्रडी) जोता पोंचे मन रली ए ॥९॥ केडें धसमस फाला रे,
तमे म लड्यो बंधव आडा रे, चढावू रे गयवर जगधणी ए ॥१०॥ खांडे भरीयां खडीयां रे,
सखी माणिक-मोती जडीयां रे, खडीयां रे बालकबुद्धे सांचस्यां ए ॥११॥ आण्या धाणी दालीया,
तमें खाउ सघला निसालीया, नीसालीया वीरवर्द्धमान भेला भणे ए ॥१२॥ ल्यो सखी अखी आणंद,
___ सखी लावें भरी भरी भाणाए माणस रे सहु आवे सोहामणा ए ॥१३|| हाथै लामण दिवो रे,
तमें महावीर घणुं जीवो रे, आसीसो आपे सहीरो मन रली ए ॥१४॥ काम सघलु चीतव्यु,
सखी गयवर काधे जइ महावीर सरस्वती भणवा संचरीया ए ॥१५॥ अध्यारु उठी उभा थया,
सखी दोय कर जोडी आगल रह्या,
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अनुसंधान - १५ • 71
महावीरे अध्यारुने भण्यावीया ए || १६ ||
व्याकर्ण जाई तिहां कयुं,
सखी इन्द्रतनुं आसन चल्युं, त्रिण प्रदक्षिणा देइ इंद्र पाये पड्या ए ||१७|| भेर-भंगल वाजें छें,
सखी इन्द्रदल बाजें छें,
महावीर सरस्वती भणी घरें आवीया ए ॥१८॥ घर घर द्यो वधामणां
सखी फइअर ल्यो तमे भांमणां, महावीर गोत्र पाय लगाडीया ए ॥ १९ ॥ त्रीण भुवननो स्वामी रे,
जेणें अविचल पदवी पामी रे. सुर कहें प्रभुजीने चरणें नमुं ए ॥२०॥
इति श्रीनिशालगरणो महावीरस्वामीनो संपुर्ण ॥ लि. - मं. हेमविमलजी ॥
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पं. तत्त्वविजयगणिकृत स्थूलिभद्र-बारमासा ॥
-विजयशीलचन्द्रसूरि
"वाचक जस"ना शिष्य पंडित तत्त्वविजय गणिनी विदग्ध प्रतिभानी झलक दर्शावतुं आ लघु-काव्य "बारमास" एक चिरंतन तेमज चिरपरिचित स्नेहकथाना एक खास बनावने केन्द्रमा राखीने रचायुं छे : स्थूलभद्र अने कोशानो विरह. बार बार वर्षना अखंड साहचर्य अने अद्वैतमढ्यां सांनिध्य बाद, जीवनने हलबलावी मूकनारी एक दर्दनाक घटनाने कारणे बे प्रेमीओनो वियोग थयो. वियोगनी ए क्षणोनी, विजोगण कोशानी घेरी वेदनाने तेम ज प्रियतमनी उत्कट प्रतीक्षाने कविए आ लघु-कृतिमां सुपेरे शब्ददेहे आप्यो छे.
. "हरीआली" ए कोयडो, समस्या, उखांणुं के कूट काव्य तरीके ओळखावी शकाय तेवो, पण आध्यात्मिक, काव्य-प्रकार छे. मात्र शब्दार्थपकडवा जईए तो आनो उकेल नहि जडे. अध्यात्म दृष्टिए विचारीए तो ज तेनो मर्म उकले. आ अर्थमां आने रहस्यवादी काव्य-प्रकार पण कही शकाय.
प्रतिपरिचय : बे पानांनी आ प्रत, ला.द.विद्यामंदिर, अमदावादनी छे. (क्र. २७७६६). तेमां प्रथम "बारमासा" छे, अने ते पछी "हरीआली" छे, जे पण अत्रे मुद्रित करवामां आवे छे, अने तेना कर्ता पण पं. तत्त्वविजयजी ज छे.
प्रतिना लेखक मुनि प्रेमविजयजी छे; ते १८मा शतकना पूर्व भागमां पण विद्यमान होवानुं निश्चित छे, (यशो.स्वा.ग्रंथ, पृ.२८).
पंडित तत्त्वविजयगणिकृत
स्थूलिभद्र-बारमासा ॥ सकलपंडितसभाभामिनीभालस्थलतिलकायमान - पंडित श्री १९श्री तत्त्वविजयगणि चरण कमलेभ्यो नमः ॥
थूलिभद्रतणइं विरह किं कोश्या दुख सहइ रे २। सहि[य]र एक संदेश किं वालंभनि कहइ रे । ऊंभी जोउं वाट किं हूं गोखि खडी रे । हुँ झूर निशदीश किं नींद नावई अधघडी रे २ ॥१॥
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अनुसंधान-१५ . 73
सखि आयो मास आसाढ किं जलहर उं नहीं रे २ । घोर घटा करी गाजइ किं नीर रेलइ मही रे २ । पावस पंथी गेह किं नीर रेलइ मही रे २॥ इणि रति छोडी धण' किं परदेशि कुण फिरइ रे २ ॥२॥ झिरमिर वरसई मेह किं श्रावण शरवलइ रे २ । नेह जगावइं जोर किं दुख ज कुण कलइ रे २ । प्रीतम प्राणाधार किं इम नवि कीजीइ रे २॥ पहिला प्रीत ज जोड किं छेह न दीजीइ रे २ ॥३॥ भादरवानी राति किं हुई विहरणि(विरहणि) समी रे २ । न सुहाई सोल शृंगार कि हूं विरहइं दमी रे २। सुहाली ए सेज कि अनल पर मुझ धखइ रे । हीर चीर पटकूल कि न सुहाइ प्रिउं पखइ रे २ ॥४॥ आसोई हती आश किं नवराति खेलस्युं रे २ । जिमाडिस प्रिउं हाथ स्युं हुं निज गेलस्युं रे २ । जेहस्युं बांध्या प्राण किं ते किम वीसरइ रे २ । सास पहिला तेह किं फिरी फिरी सांभरइ रे २ ॥५॥ आयो कार्तिक मास किं दीवाली सहू करइ रे २। खाजां लाडू सेव कि हरख मनमां धरइ रे २। प्रिउंडो नहीं मुझ घर किं विलपूं एकली रे ॥६॥ माननि मागसिर मास किं मन्मथ पीडई घणुं रे २। नाण्यो नेह लगार किं बार वरस तणो रे २। निसनेही एहवा पुरुष स्यो विश्वास एहनो रे २। वलती न पूछई स्वारथ पूरो तेहनो रे २॥७॥ पोसइ ते पूरव प्रीत किं पिउडां पालीइ रे २। आवी सिंचो नेहनीर किं दुखडं टालीइ रे २।
१. प्रिया ।
२.चोथी पंक्ति लेखनमां छूटी गई होय तेम जणाय छे.
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अनुसंधान-१५ • 74 ताली देई गयो मुज्झ किं वार्लिभ न आवीओ रे २। तूं हतो भोगी भमर किं योग किम भावीओ रे २॥८॥ माह महीनइं मुज्झ किं टाढि वाई घणी रे २। मंदिर सेज तलाई किं लागई अलखामणी रे २। घरमां पामरी चीर कि ओढी ते नवि गमइ रे २॥ चितडं माहरु अहनिशिं तुम्ह पासइ भमइ रे २ ॥९॥ वाइ वाय प्रचंड किं फागुण फरहर्यो रे २। घरि घरि खेलई फाग किं चतुरलोक परवरो रे । लाल गुलाल अबीर किं केसरई कर्यां छांटणां रे । चंग मृदंग डफ वाजइ किं ताल ज अतिघणां रे २॥१०॥
चैत्रइं चंपकमाल किं चतूर गूंथावता रे २। निजनारीनई कंठ कि रंगि सुहावता रे २। तुझ विरहइ फूलमाल कि नाग काला जिसी रे २। कसबाई सब मुज्झ किं लागई अगनि तिसी रे २॥११॥ वैशाखई अंब-शाख कि कीजई कातली रे । खीर खांड घृत भोजन पोली पातली रे २। तुझ विण जिमतां सोर किं न वहई साहिबा रे २। आवि तुं वहिलो जिमाड किं भोजन एहवां रे २॥१२॥ उन्हालई जेठ मास किं ताप करई घणो रे । चंदन शीतल वारि किं जाणे दाह दवतणो रे । कारंज गोखि आगाशी किं बइसवू नवि गमई रे । अनुभवि प्रीतम वात किं ते वीसरइ किमइ रे २॥१३॥ ए गाया बारमास कि कोश्याइं नेहइ करी रे २॥ थूलिभद्र आव्या चोमास कि कोश्याइं गेहई हर्ष धरी रे २। कीधी श्राविका शुद्ध किं मिथ्यात्ववासना टलीरे २। सीधां वंछित काज किं तत्त्वविजय आश्या फली रे २॥१४॥
इति श्री स्थूलिभद्र द्वादशमास संपूर्णम् ॥
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अनुसंधान-१५ • 75
पंडित तत्त्वविजयगणि कृत
हरीआली ॥ पंडित कहयो अर्थ विचारी ए हरीआली कामणगारी । नारी निरुपम तेह ज दीसई देखी नरनारीनुं मनडुं हीसइ ॥१॥ दीसइं नानी गुणमणि-खाणी राय-राणे तेहनि सहू मानी । बइ नारि मलीनइं नर नीपायो तेहनि नरिं निजवंश दीपायो ॥२॥ तेहनो वास अछई वनमांहिं ऊभी अहनिशि रहइ उच्छाहिं । आदरमान बहु तेहनि देई जग सघलई मानि कर लेई ॥३|| कृशोदरीनई बहु पुत्र प्रसवइं पार नहीं तेहनां पुत्रनो पुहवइं । पायविहूनी(णी)करविहूणी पुरण आस करइ ते सहूनी ॥४॥ जेणइ ते नारी समीपइं न आवई ते नरनि कोई नवि बोलावई । तेहस्युं जे घj नेह लगावइं सुख संपति बहूली ते पावइं ॥५॥ च्यारि नारि एहवो पणि तेहनि नर सेवई छई अहनिशि जेहनिं । प्रगट बाल नवि बोलई कहीइं आण अखंडित सहू नीरवहीइं ॥६॥ सात दिवसनी अवधि कहयो नहीतर गरव कोइं मत वहयो । वाचक श्रीजसविजयनि सीसिं तत्त्वविजय कहई मनह जगीसिं ॥७॥
इति श्री हरीयालीया संपूर्णम् ॥ सकल पंडित शिरोमणि पंडित श्री १९श्री तत्त्वविजय ग. । तद्भातृ गणि श्री ५श्रीलक्ष्मीविजय शिष्य मु. प्रेमविजयेन लिपीचक्रे । श्रा. रेही तत्पुत्री बाई देव पठनार्थम् ।
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श्रीउत्तमविजयजी-कृत पिस्तालीस आगम-पूजा ॥
-विजयशीलचन्द्रसूरि "वाचक जस"ना शिष्य गुणविजयजी, तेमना शिष्य सुमतिविजयजी, अने तेमना शिष्य उत्तमविजयजीए रचेली, आशरे ७६ कडीओमां पथराएली आ रचना छे. वि.सं.१८३४मां, सूरत बंदरना संघवी ताराचंदनां पत्नी रत्नबाईनी विनंतिथी, तथा ते चातुर्मासमां सूरतमां श्राविका-समुदाये करेल आगम-तपनी तेमज तेना ऊजमणांनी स्मृतिरूपे आ पूजा कविए बनावी होवा, पूजानी छेल्ली केटलीक कडीओ वांचतां समजाय छे.
४५ आगमो जैन संघनां पवित्र धर्मशास्त्रो छे. तेनुं पूजन अने बहुमान जैनो विशेष रूपे करे छे. ते अर्थे पं.वीरविजयजी तथा पं. रूपविजयजीए, नानी तथा मोटी पूजाओ बनावी छे, जे आजे पण जैनो द्वारा ठाठपूर्वक मंदिरोमां भणाववामां आवे छे. ते परंपरानी ज आ एक रचना छे.
आमां सात ढाळो छे. अन्य पूजाओनी माफक अहीं जलादि अष्ट प्रकारी पूजा वगेरेनुं विधान नथी. मात्र गेय रचना तरीके ज आ पूजा स्वीकारवानी होय तेवू लागे छे. अन्यथा तेनी आठ ढाळ होत, दरेकमां जल वगेरे एकेक द्रव्य वडे पूजानो निर्देश होत, ते अंगेनां काव्य-मंत्र पण होत. ते कशुं ज नथी, ते परथी लागे छे के आमां कर्ताए मात्र आगमोनां नामो तथा महिमा वर्णववानो ज उद्देश राख्यो छे.
आ रचनानी ९ पत्रोनी एक प्रतिनी झेरोक्स परथी आ संपादन थयुं छे. ते प्रतिनो ले.सं. १८९० छे. पाठभेद माटे ला.द.विद्यामंदिरनी एक प्रतिनो आधार लीधो छे, तेनो क्रमांक झेरोक्समां नथी. केम के संभवतः ए पत्रो कोई चोपडाआकारनी पोथीमांथी झेरोक्स थयां जणाय छे.
४५ आगमनी पूजा ॥
दहा ॥ सुखकर साहिब सेवीइं गोडीमंडण पास । श्री संखेश्वर जगधणी प्रणमुं अधिक उल्लास ॥१॥
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अनुसंधान-१५ • 77 ब्रह्मांणी वरदायनी गीरवांणि(णी) जी(जि)नवांण । भगवती भारती सारदा श्रुतदेवी सुख खांण ॥२॥ इंम अनेक अभिधा-धरी पसरी त्रिभुवन माह । ते जिनवाणी नमी करी आगम थुणिइं उच्छाह ॥३॥ जिनपति अर्थ थकी करी(कही ?) गुंथी गणधर-माल । सिद्ध(द्धि)वधू वरवा भणी ज्ञान सुगंध रसाल ||४||
आगम अगम अ घणुं नय-गम-भंग-प्रमाण । स्याद्वाद तम सोधता लहीइं तत्त्व निरवांण ॥५॥ द्वादश अंग थकी अधिक श्रुत नहि जगमां कोय । त्रिपदी पांमी गणधरें विरची' शुभमति जोय ॥६॥ चोरासी आगम प्रथम पंचम आरें जांण । प्रवचन पणयालीस हवे वरते छे गुंणखांण ॥७॥ तेहतणा नाम ज कहुं पूजा-हेतें सार । जस समरण सुखसंपदा पांमें अतिविस्तार ॥८॥ हूं नवि जाणुं श्रुत भणी मंदमती अनांण । तो पिण माहरी मुखरता करज्यो कवि प्रमाण ॥९॥
__ ढाल : प्रथम पूरवदिसि ए देशी ॥ परम मंगलकरूं, सविजिन हितकरूं, जिनवरं इंणी परें उपदिशें ए । भवि-जीव धारज्यो, कर्म-रिपु वारज्यो, तारज्यो आतमा भा(भ)व थकी ए। धुरि अंग आचार तो, सुअरवंध होय धार तो, पणवीस अज्झयणे सोभतो ए। भाव अपूर्ण कह्या, मुनिगुं(ग)णे सद्दह्या, पूजीइं भावथी श्रुत गुणीए ॥१॥
ढाल १ अंग बीजु सूअ(ग)डंग, जिनआणा सूरवड, परवडो मारग देखीइं ए । सूअखंध दोय भला, अर्थ जीहां निरमला, त्रीणसें त्रेशट्ठि मत वला(ली) ए। त्रेवीस अज्झयणा, गाथाबंधे भण्या, मुनि नय ठांण ए गुंण तणा ए ।
१.०वादे तस लाद. । २. विरच्या लाद. । ३."पूजादीठ बदाम एक एक मेलवी अने वासपूजा करता जावी, ए विधिए ज्ञानपूजा भणाववी" इति लाद. ॥ ४. दिसी कृत सुची स्नानको" लाद. ॥ ५. प्रथमाल( मांग )पूजा ला. ॥
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अनुसंधान-१५ . 78 पूजो आ(ग)म धणी, वांणी श्रीजिनवरतणी, नांण वर रयण ए हित भणीए ॥२॥
ढाल २॥ त्रिजु ठाणंग कह्यु, विविध अर्थे लघु, वयं श्रुतधरे बुधिबल थकी ए । एकादी दस ठाणनो, अर्थ वर नांणनो, जांणनो संग करी धारीई ए । अंतगड पज्जवा, [अक्षर अज्जवा], सज्जवा गुरुमुखथी लही ए । परमपूर भणी, सुद्ध चेतनगुंणी, पूजीइं आगम वर-मणी ए ॥३॥
ढाल ३ ॥ चोथु समवाअंग रे, एकादी अंतर सभंग ए, रंग ए अर्थना फरसथी ए । विनय करी धारीइं, कुंमति-मती वारीइं, तारीइं चेतन कुगतिथीइं ए।। गुरु उपगारीया, जेणे बहू तारीया, हारीया कुमती अनाणीया ए । पूजीइं भक्ति धरी, द्रव्य-भावें करी, एह साधन परमपदवी तणुं ए ॥४॥
ढाल ४ ॥ अंग पंचम महोदधी, भगवतीसूत्र विधी, रिधी वर गणधर 'गुण तणी ए । प्रष्ण छत्रीस सहस, श्रुतवर तणो ए नीघस, रस लीयो गौतम गणपती ए । एह थकी अधिक नही, सूत्र सोलस सही, वहीयों गुरुमुखथी ग्रहो ए । अर्थ गंभीरता, सूत्रतणी सरलता, विमलता वंदी आगम भणी ए ॥५॥
ढाल ५॥ अंग छट्ठो गुंण भर्यो, कथानुजोगे कर्यो, वर्यो मुनीवरें शिष्यनें कारणे ए । वीस एक-ऊण ए, अज्झयणा गुंणमए, चुंण लीइ मुनीवर-हंसला ए । दुसम कालमां, मति बहुं आलमां, जालमांथी वली वली काढीई ए । जिनवरवांणीनो, पार नही पाणीनो, महोदयी जिम अंग पूजो सही ए ॥६॥
ढाल ६॥ उपासग सातमुं, दस अझयण नमु, तमोपहा एह अंग ज सही ए । श्रावक दश "तर्या, थिरता गुंणें भर्या, सास्वता अर्थ एहवा इंहां ए । गृहीपणे एहवा, अचलधर्म सेववा, होइं इहां' सुरवरा सुखभर रहें ए । १. द्वितीयांगपूजा ला. ॥ २.पुरुषे लाद. । ३."तृतीयांगपूजा" लाद. । ४."चतुर्थांगपूजा" लाद. । ५.गण ला. । ६. "वही योग गुरुथी ग्रहो ए" लाद. । ७."पंचमांगपूजा" लाद. ॥ ८.एही ए लाद. । ९.“षष्टांगपूजा" लाद. । १०.तणा लाद. । ११. 'हा इम सुर०' लाद. ।
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अनुसंधान-१५ • 79 चेतन सुद्धता, आत्मगुंण बुद्धता, उद्धता वारी आगम अचिई ए ॥७॥
ढाल ७॥ अष्टम अंतगडदशा, कर्मक्षय शिव वसा', वरग आठे करी सोभतुं ए । यादव वंशना, शुभ पुंन्य अंशना, मुगतिरमणी वरी सिद्ध हुया ए । सहू मली अज्झयणा, चउनय वली भण्या, गण्या मुनिवरें सुत्रअर्थे करी ए। आतमज्ञांननें, नीरमल वांननें, श्रुत भणी पूजीइं भक्तिथी ए ॥८॥
ढाल ८ ॥ नवमु अंग अति ऊजलु, अणुत्तरोववाइ भलूं, अज्झयणा तेत्रीस इहां लह्या ए। एक-अवतारका, भवस्थिति वारका, तारका आत्मवीर्ये वसी ए । कर्म रस पाकथी, “पूर्णना वाक्यथी, थकी चवी एअ धर्मे वसें ए । परमपुण्याढ्यता, 'लही शुभ साधता', बाद्धता छोडिने श्रुत नमो ए ॥९॥
ढाल ९r प्रष्ण व्याकर्णंग जें, दसम अंग जे भनें, तजे नवनव वेसनें प्रांणिया ए । द्वार इंहां दश कह्या, पंच संवर लह्या, पंच आश्रव तजी गुंण भजो ए । काटवो क्रोध तें, संजम सोधतें, बोधतें एह आगम थकी ए । आगम एह सेवीइं, परम पद लेवीइं, हेवीइं पूजवा श्रुत भणी ए ॥१०॥
ढाल १०॥११ इग्यारमो अंग सांभलो, मुकी मन-आंमलो, कांबलो नवी लहे रंगनें ए । शुभाशुभ विपाकना, दश दश अज्झयणा, बिहूं मली वीस अज्झयण हूया ए। वात चेतनतणी, जिनवरें भवि भणी, गणी ए गणधर वर गुच्छना ए । वली वली अंग ए, सूंणीइं मन रंग ए, चंग ए पूजो अंग इग्यारमो ए ॥११॥
ढाल ११०१३ दूहा ॥ अंग-देश उपांग जे वीरचे श्रुतधर जेह ।
भाव अधिक करी पूजीई बार उपांग ससनेह ॥१॥ १.“सप्तमांगपूजा" लाद. । २.वस्या ला.लाद. । ३.चउनवई लाद. । ४."अष्टमांगपूजा" लाद. । ५. पूणना नाकथी लाद. । ६.नाकथी चवीय धर्मे. लाद. । ७. साद्धता लाद. । ८."नवमांगपूजा" लाद. । ९.०रणांगजे लाद. । १०. अंगने लाद. । ११."दसमी अं0" लाद. १२. गुथता लाद. । १३."एकादसांगपूजा एकादसमी" लाद. |
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अनुसंधान - १५ • 80
ढाल १| नदि जमुना के तीर उडे दोय पंखीया - ए देशी ॥ धुर उववाई उपांग सूंणो तुंमें गणधरा
सूत्रे रचि सुविशेष जे अर्थथी गणधरा ।
वर्णन सूत्र विचार जगती परिणांमनो
भवि पूजो शुभ भाव आगम मन कांमनो ॥ १२॥ ढाल १ ॥ रायपसेणी उपांग भावें करी पूजीइं
सूरियाभ सुर अधिकार कें भक्तिथी लीजीइं ।
राय प्रदेशी प्रश्ण कें चित्त धारी सिरें
नमो रे नमो भवि प्रांणी दुजो उपांग सिरे ॥ १३॥ ढाल २ ॥ जीवाभिगम उपांग ए त्रीजुं पूजीइं
प्रतिपति दश अध्ययन घणुं सुणी रीझीइं । जीवना भेद अनेक कह्या बहुश्रुत 'भणी
कीजीइं जन्म कृतारथ सूत्र अर्थे भणी ||१४|| ढाल ३ ॥ उपांग चोथुं पन्नवणा मन धारीइं
पद छत्रीस गुंणाकर अर्थ निरधारीइं ।
सिद्धांत के परम रस विचारीइं
पूजी प्रणमी सूत्र ए अज्ञांन मति वारी || १५ | ढाल ४ ॥ पांचमुं जंबुदीवपन्नती दिल धरो
क्षेत्र स्वरूप विचार उदार ते 'गुणें करो ।
जंबुद्वीपमां भाव कह्या जे जगधणी
वंदो श्रुत शुभ भाव कें वांणि जिनतणी ॥ १६ ॥ ' ढाल ५ ॥ छट्टु उपांग 'जे सूरपन्नती श्रुतें भयं
सूर्य तो इहां चार गणित गणीइं गण्युं ।
पाहुडा १ सत्तावन इहां मन आंणजो
ए कालें अतीकठीण पूजी गुंण जांणजो ॥१७॥ ११ढाल ६ ॥
१. गुणी लाद । २. चौदमी पूजा लाद । ३. रहस्य लाद । ४. सूत्र अज्ञानता वा० लाद । ५. पनरमी पूजा लाद । ६. गुणकरो लाद । ७. सोलमी पूजा लाद । ८. ते लाद । ९. श्रुत भणुं लाद । १०. सतावीस आ. । ११. सत्तरमी पूजा लाद. |
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अनुसंधान-१५.81 चंदपन्नती उपांग सातमु ए सही
कालतणी मरजाद ए चार थकी लही । पाहुडा पंचास श्रुतधर बले वही
___ गुरुसेवाथी अर्थ 'लह्यो तुमे उम्हही ॥१८॥ 'ढाल ७॥ नीरियाहीवही (निरयावली) उपांग आठमु हितकरू
देवादिकना भाव कह्या श्रीजिनवरू । गाथाबंध बंधित श्रुत मनोहरू
वंदीइं वारोवार ते आगम सुखकरु ॥१९॥ ढाल ८॥ कपवडिसग उपांग नमुं श्रीसुखकरु
दश अध्ययन छे एहमां वस्तु ते सुंदरु ।। मंगलकरण सिद्धांत ए सदा जयकरू
सेव करो नितमेव भवोभव दुखहरू ॥२०॥ ढाल' ९॥ पूफीआ(पुफिया) उपांग ए दसमुं जिन कडं
एहमां दश अध्ययन छे श्रुत ए नांमें ग्रह्यं । दुख-दोहग सवि 'जाए थाई सुखकरूं
वंदो सूत्रना धारक वली" मुनीवरू ॥२१॥ “ढाल १०॥ पूफचूलीया उपांग इग्यारमुं वंदीइं
गुंण धुणी मुनिमाहंतना आतम नंदीइं। अघवारण सुखकारण जीनवांणी नमो
एहमां दश अध्ययन भणी नीरमल रमो ॥२२॥ 'ढाल ११॥ उपांग बारमुं "वनीदशा भवी सेवीइं
दश अध्ययन सुंणिनें वांछित वर लेवीई । पूजतां परम कल्याण के नांण चरण गुणा
वंदो सर्व उपांग ते" श्रुतधर गुण धुण्या ॥२३॥ ढाल १२॥
१.लहो लाद. । २.अहारमी पूजा लाद. ३. उगणीस्स लाद. । ४.सदा इह ज० लाद. । ५.वीसमी पूजा लाद. । ६.जाइं लादः । ७.वली वली लाद. । ८.एकवीसमी पूजा लाद. । ९.२२मी पूजा लाद.! १०.वह्निः लाद. । ११. के लाद. । १२.तेवीसमी पूजा लाद.
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अनुसंधान-१५ .82
दहा ॥ गुणखांणि गणधर नमो कर्या पयन्ना जेण । जे जे कालें वरतता तेह प्रमाणे कहेण ॥१॥
ढाल : १ ॥ मीठडा जी रे ॥ ए देशी ।। श्रुतदेवी समरी सदा जी रे, हवें पयन्ना सूत्र वखांण रे जी रे, जीनवांणि जीन पूजीइं जी रे, 'काइ आगम अर्थ नीधांन रे जी रे ॥आंकणी।। पहीलो पयनो वंदीइं जी रे, चउसरण नामे सुखकार रे, ॥जी०॥ चार सरण सुधा लही जी रे, पांमीजें भवनो पार रे जी रे ॥जी०॥ २४२ ढाल २॥ बीजो पयनो रेपूजीइं जी रे, कांइ मरणविधि नाम धार रे जी रे ॥जि०॥ समाधिमरण सुधो करी रे, कांइ 'भवोभव दूख निवार रे जी रे ॥जी॥ ढाल ३॥ त्रीजो पयन्नो जाणीइं जी रे, कांइ व्रत पच्चखाण उदार रे । अर्थ थकी नाम धारीइं जी रे, घट काय वर हित धार रे ॥जी०॥ ३२
ढाल १०॥(?) चोथो पयन्नो अर्चता जी रे, नांमें आयुर पचखांण रे जी रे । भाव-आतुरता टालवी जी रे, पच्चखांण धरो जीन-आंण रे ॥जी०॥ ढाल° ५॥ पांचमो पयन्नो प्रतीतथी जी रे, संथारग नामे - सेवर रे जी रे । काल अनंतो गयो वही जी रे, गुणकर एह नीतमेव रे जी रे ॥जी॥२८॥ढाल ६॥ छट्ठो पयन्नो वंदीइं रे, तंदूलवीयालीउं नाम रे । गरभ स्वरूप इहां कह्या" जी रे, उपजे जीव जे काम रे जी रे ॥जी०॥ २९१५,
ढाल ७॥ चंदावीजय नांमे भलो जी रे, पयन्नो सतर्मसुअनांण रे जी रे । रामाधीमरणनें जोगता जी रे, जेट होए मुनिवर राण रे जी रे ॥जी०॥८३०,
ढाल ८॥
१.आ पंक्ति आदर्श प्रतिमां नथी. । २.चोवीसमी २४ लाद. । ३.पूजीए जी० लाद. । ४.भवभव लाद. । ५.निवारी रे लाद. । ६.पंचवीसमी पूजा २५ लाद. । ७.कायने लाद. । ८.धारो लाद. ९.छवीसमी पूजा २६ लाद. । १०. सतावीसमी पूजा २७ लाद.। ११.सेववो जी लाद.। १२.२८मी पूजा लाद. ॥ १३.वेआलीअनामो लाद. ॥ १४.को लाद. ॥ १५.उगणत्रीसमी पूजा लाद. । १६.सत समु नाण आदर्श ॥ १७. योग्यता लाद. । १८.त्रीसमी पूजा लाद. ||
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अनुसंधान - १५ • 83
३१ ॥ ढाल९ ॥
देवींद्रसत' आठमो जी रे, पयनो अर्थ प्रमांण रे जी रे । इंद्रस्वरूपनी वरणना जी रे, कहीइं नमो जीनभांण रे जी रे ॥ जी० ॥ नवमो पयन्नो संथुण्यो जी रे, गणिवीजा नांम गुंणखांण रे जी रे ग्रहनक्षत्र करणादीनुं जी रे, गणित कर गणधार रे जी रे ||जी० ॥ ३२॥ढाल१०॥ दशमो पयनो सांभलो जी रे, वीरथुई उदार रे जी रे ।
।
वीर तणी स्तवना करी जी रे, तुंमे पांमो "भवतणो पार रे जी रे ॥ जी०||३३||६ ढाल ११ ॥
जे जे कालें वरतता जी रे, तीर्थंकरना सीष्य रे जी रे ।
प्रतेकें पयना ते करी रे जी रे, वंदो भवि निसदीस रे जी रे || जी० ||३४|| ढाल १२ ॥ दूहा ॥ छेद तणी पूजा हवें, करीइं चित्त हित आंण ।
सूत्र कह्या षट भेद ए, वंदो संत सुजांण ॥३५॥ (१) ॥
ढाल १॥ तुंमें आव्या नें स्युं लाव्या जी- ए देशी ॥
पहिलो छेद भवि पूजो जी, सुत्रतणा रसिया । व्रतकल्प" नांमें बुझो जी, मुनीवर मन वसीया ।
खडगधारा सम राहे जी सु० । चरणकरण अवगाहें जी मु०१३ ||३६|| ढाल १ || बीजो छेंद हवें जांणो जी सु० । पंचकल्प मन आंणो जी मुं० ।
विवहार इहां पंच भाख्या जी सु० । गांभिर मुनि मन राख्या जी मुं० १४ ||३७|| ढाल २॥ विवहार छेद त्रीजो जांणो जी सु० । मुनि विवहार प्रमांणो जी मुं० । अपवाद ने उछरंग(रंग) साचा जी सु० । वंदो अविचल वाचा जी मुं० ॥ ३८ ॥
ढाल ३||
१६ दिसाकल्प चोथो छेद जी सु० । भाषा भाव अभेदजी मुं. । धन धन ए जीनवांणि जी सु० । वंदो "जिनागम नांणि जी मु. ॥३९॥ " ढाल ४|| १. देवींद्रसत आ० आदर्शे ।। २. एकत्रीसमी पूजा लाद ॥ ३. कह आ. ॥ ४. बत्रीसमी पूजा लाद ॥ ५. भवनो लाद ॥ ६. तेत्रीसमी पूजा लाद ।। ७. ते वंदो लाद । ८. सयाण लाद. ॥ ९. जी, मोरा साजना - ए० लाद ।। १०. तणा रागी लाद ।। ११. वृहत कल्प० लाद. ॥ १२. गुणरागी लाद ॥ १३. चोत्रीसमी पू० ३४ लाद ।। १४. पांत्रीसमी पूजा ३५ लाद ॥ १५. छत्रीसमी पूजा ३६ लाद. २२, १६. दसा० लाद. ॥। १७. वंदो अत्तागम० लाद ॥ १८. साडीसमी पूजा ३७ लाद. ॥
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अनुसंधान-१५.84 लघु निशीथ छेद सारो जी सु० । श्रद्धावंतनें प्यारो जी मुं० । पूजो पंचम छेद जी सु० । टलि मननो खेद जी मु० ॥४०॥ ढाल ५॥ माहानिशीथ छेद छठ्ठो जी सु० । जिनमार। उतकिट्ठो जी मु० । गोपांग(?) कह्या अर्थ एहना जी सु०। रेवंदो सांत सनेहा जी मु०॥४१॥ ढाल ६॥ श्रुतधरनी छे एह आणाजी सु० । आगम अर्थ प्रमाणा जी मु० । ओछी बुधि नवि करवी जी सु० । उत्तम थीरता धरवी मु० ॥४२॥
___ढाल ॥ “नमो नमो श्री सेजा गिरवर - ए देशी ॥ मूल सूत्र पूजो हवें च्यार, साधुनो सुद्ध आचार रे।। जस भावन मन पावन एही ज, सजगती मुगती दातार रे ॥
"नमो नमो आगम सुखकार ॥४३॥ आं०॥ दशवकालक मुल सुत्र धारो, सजंभव पूत्र प्यारो रे । मनकमुनि उपगारने कीधो, आगम रस ए लीधो रे ।निमो०॥ ४४ाढाल २॥ उत्तराध्ययन मूलसुत्र बीजें, अध्ययन छत्रीस कहीजें रे । वीरनी वांणि चीतमां धारी, पूजो भावि हीतकारी रे ।।न० ४५॥ ढाल ३॥ त्रीजी ओघनीरयुक्ती कहीइं, विवीध अर्थे लहीइं रे । भद्रबाहु गुरु वचन वीचारी, पूजो शुभ आचारी रे ।।न० ४६॥° ढाल ४|| आवश्यक मूल सूत्र वखांणो, श्रधावंत चीत आंणो रे । षट आवश्यकनी नीरयुक्ती, गुरु भद्रबाहुनी उक्ती रे ॥नमो० ४७॥११ मूल सूत्र पूजो भवि भावें, रत्नत्रयी गुंण पावें रे । वंदो ए सुजस-गुणनी रचना, सुमतिवीजय गुरु वचना रे ।।नमो० ४८।।
ढाल : भविजन वंदो - ए देशी ॥ आगम अनोपम गुण रयणे भरी, गणवर अर्थनी पेटी । नमो रे नमो सवि भविजन भावें, अनादी अनांणनें मेटी ॥
... १३भवियण वंदो रे आगम सुखकारी ॥४९॥ १.आडत्रीसमी पूजा ३८ लाद. ॥ २.गोपात्त लाद. ॥ ३.ए वंदो सात० लाद. ॥ ४.उगणचालीसमी ३९ लाद. ॥ ५.नमो रे नमो० लाद. ॥ ६.सदगती० लाद. ॥ ७."नमो रे नमो आगम सनेही, प्रभु वाणी गुण गेही रे । आतम अस्थीने हीतकारण सुणीए सुत्र उमेही रे नमो० २॥" लाद.॥ ८. चालीसमी पूजा० लाद. ॥ ९.एकताली समाप्त लाद. ॥ १०.बेतालीसमी पूजा लाद. ॥ ११.त्रेतालीसमी पूजा लाद. ॥ १२.भवीजीन वंदो रेकल्यांणक दीन मीठो - ए देशी लाद. ॥१३ १३.भवीअण भावे रे लाल जीवरवन ( ? )वाणी लाद. ॥
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अनुसंधान-१५ .85
मंगल धुर लहीइं सवि श्रुतनें, नंदीसुत्र आनंदो । आतम ज्ञांनी अनुभव रसिया, नांण सुधारस 'वंदो भ० ॥५०॥ ढाल ॥ बीजो अनुजोगद्वार ज जाचो, अनुजोग रयणे भरीओ। अर्थ गांभिर अपार मनोहर, सयंभुरमण जीम दरीओ भ०॥५१॥ चार नीखेपा जीनवरें "भाष्या, श्रुतमें गणधरे राख्या । ग्वणादिक लिपीनें अभियोगें, भावश्रुतें रस चाख्या भ० ॥५२॥ अष्ट महासिद्धि नवनिधि प्रगटें, कांमकुंभ सुरधेणुं ।। रयण चिंतामणि सुद्धमथी पिण, आगम उत्तम लेंहणुं भ० ॥५३॥
ढाला ॥ एह आगम संथुणतां मुझनें, हरख वध्यो श्रुतनेहें जी। बालक-बोली सम ए रचना, नाम थकी करी एहें जी ॥१॥ आगम तप कीधो सबी सीधो, श्राविका टोली सनेहा जी । सूत्र थकी आगम पणयालीस, सुणतां लाभ अछेहा जी ॥२॥ "सुरतबिंदरमांहि सोभागी, संघ सयल गुण रागी जी । संघवी ताराचंद पत्नी अनोपम, रत्नबाई मति जागी जी ॥३॥ उजमणुं समुदाई करीने, नरभव लाहो लीधो जी । करणि पुन्यतणि शिवरमणी, वरवा हाथो दीधो जी ॥४॥ मंगलमाला लच्छिविशाला, माता मयंगल राजें जी। मनगमती रति सरीखी रामा, पदमनी रूपें छाजेंजी ॥५॥ सुगुणसेवीत नीत पूत्र पुत्रीका, मीत्र मिलें मन 'सुहाला जी । नव नव रंग अभंग रसाला, लहीइं झाकझमाला जी ॥६॥ संवत अढार चोत्रीसनें मानें, कार्तिक शुदि पंचमी ज्ञाने जी । बुधवारे ए आगमस्तवना, पूरण करी शुभ वचना जी ॥७॥ १.चंदो ला. ।। २.चोमालीसमी ४४ पूजा ला. ॥३.५१मी कडी पछी १ कडी ला. प्रतिमां अधिक छे : "खीरखांड घृत इक्षु अनोपम, दधी पय मीसरी मीठी।एहथी पीण अधिकी प्रभुवाणी, जो अनुभवथी दीठी"॥ ४.०वरभाषा ला. ॥ ५.५२ पछी १ कडी ला. मां अधिक: "गणीवर पेटी सुबनी कुची, मुढ संदेहनी सुची । श्रुतनांणी मती जेहनी उची, अर्थ लहे मन खूची॥" ६. ढाल : राग धन्यासी ला. ॥ ७.सुरती बंदीर ला. ॥ ८. मयगल ला. ॥९.सुहीला ला.॥
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अनुसंधान-१५ . 86 तपगच्छनायक गुणनिधि गीरुया, श्रीविजयधर्मसूरीराय जी । जास प्रसादें श्रुतगुंण धुणीओ, जन्म कृतारथ गणीयो जी ॥८॥ 'नायचारीज बिरुदनो धारी, परमती दूर निवारी जी । श्रीजसवीजय वाचक वर शिष्य, गुणविजय जगीस जी ॥९॥ गुरु श्रीसुमतिविजय मुझ पाठक, तस पद मधुकर रशियो जी । उत्तमविजय आगम वंदें, पून्य महोदय वशियो जी ॥१०॥ आगमनांण' जे भणस्यें गणस्ये, तस घर मंगलमालाजी । जगमांहिं जसलच्छि वरस्यें, जय जयकार विशाला जी ॥११॥
इति श्रीपिस्तालीस आगमनी पूजा समाप्तम् ॥ संवत् १८९०ना वर्षे भाद्रवा वदि ५ वार सोमे ॥ लि.डुंगरजी ।। सरसपुरमध्ये ॥ वासणसेरी मध्ये ॥ श्रीरस्तु ॥
१.न्यायाचारीज ला. ॥ २. परमत ला. ॥ ३.सीसा, श्रीगुण. ला. ॥ ४.ए आगम ला. ।। ५.नाम जे ला. ।। ६.
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श्री प्रेमविजयजीकृत श्री विजयप्रभसूरि बारमास ॥
-विजयशीलचन्द्रसूरि तपगच्छपति विजयदेवसूरिना शिष्य पं. दर्शनविजयजीना शिष्य मुनि प्रेमविजयजीए रचेली आ लघुकृति एक गेय रचना छे, अने तेमां २ थी १३ कडीओमां एकेक मासने आवरी लईने गुरुनां गुणगान थयां छे, ते कारणे तेने "बारमास" नाम अपायुं होय तेम जणाय छे.
सामान्यतया "बारमासा" ए विप्रलंभ-शृंगाररस-प्रधान काव्य-प्रकार गणातो होवो जोईए. विरह, मिलनोत्कंठा, प्रतीक्षा - इत्यादि भावो जेमां चूंटता होय, चूंटवामां आवता होय, तेवी रचना ते बार मासा.
हवे, एक गच्छनायक साधुपुरुषने उद्देशीने ज्यारे आवी काव्यरचना थाय, त्यारे तेमां उपर्युक्त भावो केवी रीते समाई शके ? एमां तो गुरुना गुणस्तवन अने गुण-वर्णन सिवाय काव्यदृष्टिए कोई विशेष आयोजन अशक्य ज होय.
छतां कविए आ साहस कर्यु छे, तेने नकारी पण केम शकाय? वात एवी छे के आचार्योना गुणस्तवन-अर्थे जैन कविओमां "गहुंली" रचवानी एक परंपरा छे. आवी गहुंलीमां बार मास पण वणी शकाय, अने बीजुं पण आq घj वणी शकाय. केम के अमां कविनो उद्देश कोई काव्यतत्त्व सिद्ध करवानो ओछो होय छे; अने गुरुना गुण-गान करवानो प्रधानपणे होय छे. वर्तमानमां पण आवी बार महीनाने वणी लेती गहुंलीओ रचाती तथा गवाती होय छे. दा.त. "गुरुजी कार्तिक महिने कमल जेवा छे....." - आवी, १२ मासनी १२ पंक्तिओ के कडीओ, जुदी जुदी रीते, अत्यारे पण गवाय छे.
प्रस्तुत रचना पण आ.ज गहुंली-कुळनी होवा स्वीकारीए, तो तेमां कांई अयोग्य नहि गणाय.
आ रचनानी बे पानांनी एक प्रति ला.द. विद्यामंदिर (क्र. २३२)मां उपलब्ध छे.
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अनुसंधान - १५•88
ढाल फागनो ॥
सारदमाता वीनवुं रे बार महिनां भावस्युं रे सूरीश्वर साहिब आईए हो,
॥
श्री विजयप्रभसूरिराय । सूरी० तुं गुरु रणायरसमोरे
काती मास मनोहरु रे,
मागं एक पसाय । गावा ए उलट थाय ॥१॥ अहो मेरे ललनां,
रत्नतणो नही पार ।
गुरुजीय करत विहार ॥२॥ सू०॥ कामिनी करई अरदास । पूरो पूरो मुझ मनि आस ||३|| सू०॥ गुरुचरणे निसदीस । साहिब माहरो ईस ||४|| सू०|| जो आवई गुरुराय ।
मा िसखर मया करी रे, एक बोल अवधारीइ रे पोसई पोसा घणां करइ रे चित चिंता दूर करई रे asो भाग हम माघ मइ रे चलो सखी वंदन जाइए रे खेलति फाग सखी मिली रे बोलई अमृत वाणि । सासव गण कई कुरू रे ( ? ) वीनतडि मनि आणि ॥६॥ सू०॥
हीयडइं धरिय उच्छाह ||५|| सू०॥
गजगति चालई गुरु मेरो चैत्र आश्या मइ करी रे वैशाखड़ फुलि रे (?) तिम हम मन तुंम उपरिं रे
आवइ विजयप्रभसूरिराय । देखत मुख सुख थाय ||७|| सू०॥ फुलि रही वनराय । पानिकुं जुं मीन ध्याय ॥८॥ सू०॥ जेठ महिनो एह ।
सूर तपइं शिर आकरो रे मिहिर करि संघ उपरि रे आसाढ आशा फलि रे शाम - घटा उमटी घणुं रे श्रावण श्रवण सोहामणो रे गोख समारो सुंदरि रे पाणि पूर वह घणां रे दिन दिन दोलति दीपती रे श्रीविजयप्रभसूरीसरू रे
आवत धरि मनि नेह ||९|| सू०॥ चतुर आए चोमास ।
नरनारि फलि मनि आस ||१०|| सू०॥ दामिनी करति पोकार ।
बेठन गुरु सुखकार ||११|| सू०॥ भरि भाद्रवड मास । भविजन पोचई आस ||१२|| सू०॥ प्रगट्यो पुण्यअंकुर |
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अनुसंधान-१५.89 आसो आशा सब फलि रे तेज तपइं जिम सूर ॥१३॥ सू० ॥ मदनराय तइं वसि किउ रे रूपई हराव्यो काम । क्रोध-लोभनई वसि करी रे माया नासी गई ताम ॥१४॥ सू०॥ छत्रीस गुणे करी सोभतो रे चिरंजीवी गुरुण्य । लोचन अमिय-कचोलडा रे सोवनवन-श(स)म काय ॥१५॥ सू०॥ मुझ मनि तुं गुरु जीवश्यो रे जिम सीता मनि राम । जिम मधुकर, मनि मालती रे तिम समरूं तुम नाम ॥१६॥ सू०॥ तपी तपी तप आकरो रे दुरबल काया कीध । जस घरि प्रभु पगलां ठव्यां रे तस मनवंछित सिद्ध ॥१७॥ सू०॥ तुझ नामथी सुख-संपदा रे दरिसण जयजयकार । श्रीविजयदेव-पटोधरु रे सकल-जंतु-आधार पंडित-साधु-शिरोमणि रे दर्शनविजय कविराय । तासतणइं सुपसाउलइ रे प्रेमविजय गुण गाय ॥१९॥ सू०॥
इति श्रीविजयप्रभसूरि बारमास संपूर्णः ॥
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केटलांक भाषागीतो - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
व्रज भाषा - मिश्रित हिन्दीमां प्रभुभक्तिनां पदो अने गीतो, मध्यकालमां, जैन कविओए पण विपुल प्रमाणमां रच्यां छे. एवां थोडांक गीतो अत्रे प्रस्तुत छे. 'बिनयचंद' नामना (संभवतः गृहस्थ) कविए रचेलां आ गीतो वर्षो पूर्वे कोई प्रकीर्ण पानां परथी उतारी लीधेलां. ते पानां आजे तो हाथवगां नथी, एटले पुनः वाचन के सुधारानो अवकाश नथी. गीतोनो क्रमांक आम गोठव्यो छे : १. अजारा पार्श्वनाथगीत, २. नवपल्लवपार्श्वजिनगीत ( मांगलोर - मांगरोळ), ३. गिरनारमंडन नेमनाथगीत, ४ . ऊनामंडन नेमनाथगीत, ५. गच्छनायक श्रीविजयसेनसूरिगीत, ६. गच्छपति श्री विजयदेवसूरिगीत
छेल्लां बे गीतोना आधारे, बिनयचंद, सत्तरमा शतकमां थया होवानुं मानी शकाय खरं.
'गुजराती साहित्यकोश' मां (पृ. ४०८) पांच विनयचंद्रनो उल्लेख थयो छे, परंतु मारी धारणा एवी छे के आ विनयचंद ते बधा करतां जुदा ज होवा जोईए.
१
श्रीअजारा पार्श्वनाथ गीत
रागः गूजरी ॥
पूजउ जीउ पारसनाथ दयार
मन बच काय करी सुद्ध मेरे छ्योरी चितजंजार पू० १ भीषन घनघोर बोर जर जिसइ बरषती मूसरधार
फुनि फनि फार धरी शिर उपरि ज्यानि छत्राकार पू० २ एक भगति एक दरद देखावत कमठइंद अहि सार बिनयचंद प्रभु पास अझारो सकल जंतु सुखकार पू० ३ इति गीतं समाप्तम् ॥
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अनुसंधान-१५ • 91
मंगलपुर मंडन श्रीनवपल्लवपार्श्वनाथ गीत
गीत ॥
रागः भयरव ॥ पूजउ पासजिनेसर देव नवपल्लव नित करीइ सेव नदीअ निवाण समुंद्र सवि नीर, न्हवण करु नवपल्लव सरीर १ पू० दीप सवे चंगेरी करी अढार भाव(र) वनफूलि भरी तरुवर जाति जगतमाहि जेह बावनचंदन कीजइ तेह २ पू० सुरगिरि शैल अवर सम रूप अगर कपूर कस्तूरी धूप कोडि इंद्र मिली पूजइ सार, तुहि भगति अणुआइ लगार ३ पू० मंगलपुरमंडन जिन पास नवपल्लव नित नमु उल्लास भावसहीत जे पूजा करइ बिनयचंद भवसायर तरइ ४ पू०
गिरिनार मंडन श्रीनेमनाथ गीत
राग : कनडु कल्याण ॥ कागद कहु धुंकई सिकरी लषीइ लिखतई ए कागति न पाउं किनुं आगई दुख भषीइ १ कागद० कहा करूं लेख लखी आलोहें मुखि नीसासा नीकलीइ वइ नीसासा फाससु आवइ कोर बिलोनुं जिलीइ २ कागद० फूनि लेखनकी धरु मनि आसा तउ मुख मूंद न खलीइ नयनां भरि भरि आंजू.आवइ कागद छरु गिल भलीइ ३ कागद० ओरां पासइ ज्याई लखाउं मेरा दुख सुनीवइ दुख पावइ कुंहेतिउं ओ होई यावइ(?) उनका दख किउं बलीइ ४ कागद० बिरह अगनि हूं ज्याई बूझााउं गिरिनारिकुं चिलीइ बिनयचंद प्रभु बिरह निवारी नेम राजीमति मिलीइ ५ कागद० ॥
इति गीतं ॥
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अनुसंधान-१५ • 92
ऊनामंडन श्रीनेमीनाथ गीत
राग : कनडु ॥ समुद्रबिजइ सुत नयनइ देखे प्रीति पाई जिऊं चंद चकोर उन्नतपुरमि उन्नई आए शामघटा घट जिउं घनमोर १ समुद्र० सिव... नयनि राजुल खरी लारि पशुअ पुकार करति तिउं सोर नेमकुमर रथ फेरि सिद्धारे दुःख पावती राजुल अति घोर २ समुद्र० बाउरी भईअ सुनत नही अवनि चाहति नेम चकित चिहुं और जित तित पूछती पीउं कित पाउं कोऊ बताओ नेमकी ठोर ३ समुद्र० गई गिरिनारी राजुल चित प्यारो नेमकुं पाय परति करज्योर कहइ बिनइचंद उन्नतपुर स्वामी नेम आगइ शिवपुर गई दोरि ४ समुद्र०
गच्छनायक श्रीविजयसेनसूरिगीत
राग : गूजरी ॥ वंदउ श्रीविजयसेनसूरिराय जस पद पंकज भविजन-मधुकर अंमृत बचन पीत आय वंदउ० अकबर भूप महामति सुंदर धरम करत चित्त लाय गुरु उपदेस सुणिउ जब तेरो छ्योरे पंखी सब गाय वंदउ० खान मिलक ऊबरे मिली आवत लागत गुरुके पाय गुरु मुखचंद देख्यो जब तेरो भवि चकोर सुख पाय वंदउ० साह कमा-कोडाईनंदन नरनारी गुण गाय बिनयचंद प्रभु विजयसेनसूरी चिहुं खंडि आन फिराय वंदउ० ४
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अनुसंधान-१५.93
गच्छपति श्रीविजयदेवसूरिगीत
राग : सारिंग मल्हार ॥ अब मि पायोरी परम पटोधर श्रीविजइसेनकु श्रीश्रीश्री विजइदेवसूरीसर सुर नर के मनि भायोरी १ परम० ढुंढत ढुंढत सब गछ देखे तुं मेरे चित्त आयो तप तप तपइ तेज तनुं रविकु तिनथई तुहि सवायो री २ परम० अंजन खंजन मीनमृग लोचनी मोतिन चउक बनायो कोकिल कंठि मयूर मधुरस्वरि श्रीतपगछ गुन गायो री ३ परम० ओशवंश अवतंस थिरासुत मात रूपाई जायो बिनइचंद सेवक के साहिब त्रिभुवनि तिला(क) सुहायो री ४ परम०
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बृहत्-शान्तिस्तोत्र
-सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
आ स्तोत्र जैन संघमां अत्यंत श्रद्धेय अने प्रभावपूर्ण मनाय छे. आना प्रणेता वादिवेताल आचार्य श्रीशान्तिसूरि छे, जेमनो समय अग्यारमो शतक छे. आ स्तोत्रनी अत्यारे प्रचलित वाचना तथा ताडपत्र ग्रंथोमां प्राप्त थती वाचनामां खासो तफावत जणाय छे. मूळ रचनानो पाठ संभवतः ढूंको हशे, अने समय जतां तेमां उमेरणो थतां गयां हशे, तेम कल्पना करी शकाय. आजे प्रचलित वाचनामां प्रारंभे मन्दाक्रान्ता छंदमां 'भो भो भव्याः !' एवां पदोथी प्रारंभातो एक श्लोक छे, तथा प्रांतभागे 'शिवमस्तु'. ए पद्य पछी 'नृत्यन्ति नृत्यं०', 'अहं तित्थयरमाया०' इत्यादि पद्यो छे, ते आमां नथी, ते खास नोंधपात्र छे.
अत्रे मुद्रित वाचना, खंभातना श्रीशान्तिनाथ प्राचीन ताडपत्रीय भंडारनी क्र. १२५नी ताडपत्र-प्रतिगत पत्र ७३ थी ७७मांथी उतार्यो छे. मुनि पुण्यविजयजीए नोंध्या प्रमाणे आ प्रतिनो लेखन-काळ अनुमानतः १६मा शतकनो प्रारंभिक गाळो छे. (केटलोग ऑफ पामलीफ मेन्यु. इन ध शां. जैन भंडार, केम्बे, वो. २, पृ.२०६; गा.ओ.सी.बरोडा) आ उपरथी १६मा अथवा तो १५मा शतक सुधी आ पाठ पण चलणी हशे तेवू कल्पी शकाय तेम छे.
बृहच्छान्तिपाठ _ 'भो भो भव्यलोका इह हि भारते समस्ततीर्थकृतां जन्मासम(न) प्रकम्पानन्तरमवि(व)धिना विज्ञाय सौधर्माधिपतिः सकलसुरासुरेन्दैः सह सभागत्य सविनयमहद्भट्टारकं प्रगृह्य गत्वा कनकाद्रिशृङ्गे विहितजन्माभिषेकः शान्तिमुद्घोषयति । नतोऽहं कृतानुकारमिति कृत्वा महाजनो येन संगतः स पन्था इति भव्यलोकै: सह समेत्य स्नात्रपीठे स्नात्रं विधायाधुना शान्तिमुद्घोषयामि । कर्ण दत्वा निशाम्यतां ।
पुण्याहं पुण्याहं प्रीयन्तां भगवन्तोऽर्हन्तः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनस्त्रिलोकनाथास्त्रिलोकमहितास्त्रिलोकपूज्यास्त्रिलोकेश्वरास्त्रिलोकोद्योतकराः ।
रिषभ । अजित । सम्भवः(व) । अभिनन्दन । सुमति । प(य)प्रभ ।
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अनुसंधान - १५ • 95
सुपार्श्व | चन्द्रप्रभ । सुविधि । सी (शी) तल । श्रेयांस । वासुपूज्य । विमल । अनन्त । धर्म्म । शान्ति । कुन्थुः (न्धु) । अरु । मल्लि । मुनिसुव्रत । नमि । अरिष्टनेमि । पार्श्व वर्द्धमानान्ता जिनाः शान्ताः शान्तिकरा भवन्तु मुनयो मुनिप्रवरा रिपुविजयदुर्भिक्षकान्तारे रक्षन्तु वो नित्यम् ।
श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी मेधा विद्यासाधनि प्रवेस (श) निवेशेषु सुगृहीतनामानो जयन्ति ते जिनेन्द्राः ।
आचार्योपाध्यायप्रभृतिचातुर्वर्ण श्री श्रमणसङ्घस्य शान्तिर्भवतु ।
ग्रहाश्चन्द्रसूर्याङ्गारकबुधबृहस्पतिशुकस (श) नैश्चरराहुकेतुसहिताः सलोकपालाः सोमयमवरुणकुबेरवासवादित्यस्कन्दविनायकाः । ये चान्ये ग्रामनगरदेवतादयस्ते सर्वे प्रीयन्ताम् । अक्षीणकोस (श) कोष्ठागारा नरपतयश्च । पुत्रभ्रातृमित्रकलत्रसुहृत्स्वजनसम्बन्धिबन्धुवर्गसहिता नित्यं चामोदप्रमोदकारिणः । अस्मिंश्च भूमण्डलायननिवासि साधुसाध्वी श्रावक श्राविकाणां रोगोपसर्ग व्याधिदुःखदौर्मनस्योपस (श) मनाय शान्तिर्भवतु । वृद्धिर्भवतु ।
तुष्टिपुष्टिरिद्धिवृद्धिमाङ्गल्योत्सवाः सदा अभिहतानि पापानि: (नि) शाम्यन्तु
दुरितानि । शत्रवः पराङ्मुखा भवन्तु स्वाहा ।
श्रीमते शान्तिनाथाय नमः शान्तिविधायिने । त्रैलोक्यस्यामराधीश: (श) मुकुटाभ्यच्चितां ||१|| शान्ति (:) शान्तिकर ( : ) श्रीमान् शान्तिर्दिशतु मे गुरुः । शान्तिरेव सदा तेषां येषां शान्तिगृ (र्ग) हे गृहे ||२|| उन्मृष्टरिष्टदुष्टग्रहगतिदुःस्वपनदुर्निमित्तादि ।
सम्पादितहितसम्पन्नामग्रहणं [ज]यति शान्तेः ॥३॥ श्रीसङ्घपौरजनपद- राज्याधिपराज्यसन्निवेसा (शा) नाम् । गोष्ठीपुरमुख्यानां व्याहरणैर्व्याहरेच्छान्तिम् ||४||
श्रीसङ्घस्तस्य शान्तिर्भवतु । श्रीराज्याधिपानां शान्तिर्भवतु | जनपदानां
शान्तिर्भवतु ।
शिवमस्त्वा (स्तु) सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषा (:) प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखीभवतु लोकः ॥ ग्रन्थाग्रं २५ ॥ छ ॥ इति शान्तिमंत्रं ( ? ) समाप्तम् ॥
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ट्रॅक नोंध
- विजयशीलचन्द्रसूरि
बीरबलनां रींगणां
(१) मुघल शहेनशाह अकबरना दरबारनां नव रत्नो पैकी एक प्रख्यात रत्न ते बीरबल. पोतानी चतुराई अने हाजरजवाबी माटे ते पंकायेलो हतो. तेनी आ ख्यातिने समर्थन आपे तेवा घणा घणा टुचका के हास्य-प्रसंगो प्रसिद्ध छे. आमां केटलाय प्रसंगो एवा पण होय के जे जुदा जुदा स्थळ-समयना बीरबल जेवा नामांकित माणसना नाम साथे जोडाई जाय : भले ते प्रसंग पछी ते व्यक्ति साथे बन्यो होय के न होय. प्राचीन ग्रंथोमां पण क्वचित् आवा टुचका मळी आवतां होय छे, जे परथी समजाय के मुल्ला नसरुद्दीन, बीरबल के तेनाली-राम जेवाना नामे प्रचलित आ टुचका तो अनादि-निधन लोक वार्ता-वैभव- ज अंग / घरेणुं छे. एक दाखलो जोईशुं :
एकवार बादशाहे रींगणांनुं शाक खाधुं, ने पच्यु नहि. तेणे बीरबल आगळ रीगणानी निंदा करी, तो बीरबले सूर पूरावतां कह्यु : अरे जहांपनाह ! रौंगणां ? छीः, एनुं नाम न लेशो; खवाय ज नहीं !..... थोडा दहाडा पछी फरीवार शाहे रीगणां खाधां. भाव्यां ने पच्यां पण खरं. बीरबल आवतां ज शाहे रींगणांनां गुणगान आदरी दीधां. ए वखते बीरबल कहे : अजी सलामत ! शुं कहुं ? आ दुनियामां रीगणां जेवू बीजुं शाक नहि हो ! जामली रंगना जामा उपर कलगी जेवू डीटुं! केयूँ मस्त !
आ क्षणे शाह उकळी पड्या : अल्या, ते दहाडे तो निंदा करतो'तो, ने आजे पाछां वखाण करे छे ? बेवडी वात ? बीरबल हसी पड्यो : कहे, हुं तो आपनो गुलाम छु, रीगणांनो नहि.
हवे आ ज वात अतिसंक्षिप्त रूपमां पण, संभवतः छठी सदीमां रचित मनाती 'दशवैकालिकसूत्र-चूर्णि (अगस्त्यसिंहकृत) माथी प्राप्त थाय छे, ते जोईए :
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अनुसंधान-१५ • 97 "छंदाणुवत्तिणो समक्खं रण्णा भणितं - अवदव्वं वार्तिगणाति । तेण भणितं - छड्डणत्थमेतेसिं बेंटातिं । अण्णदा केणति कहापसंगेण रण्णाऽभिधितं - विसिटुं सालणगं वातिंगणं । छंदाणुवत्तिणा भणितं - रायं ! एते अहड्डा लावगा एवमादि ॥" (दश.चू., पृ.२०३; प्राटेसो. ई. १९७३).
___हा जी हा करनारना देखता राजाए कह्यु : रीगणां नकामां हों ! पेलाए कह्यु : एमां केटलुं बधुं - डीटुं वगेरे - फेंकी देवानुं होय ? (नकामां ज). फरी कोई प्रसंगे राजा बोल्या : रीगणांनु शाक विशिष्ट गणाय हों ! पेलाए (लागलं ज) उमेर्यु : महाराज ! ए तो हाडका विनानां लवां गणाय - पोचां पोचां, मजानां !"
(२) मस्तक-लेख
मुस्लिम शासन-काळमां भारतवर्षनी मूल प्रजाने सौथी मोटो डर जे वातोनो लाग्या करतो, तेमां एक डर हतो पोताना इष्ट देवताओनी मूर्तिओना खंडननो. असंख्य मन्दिरोनो ध्वंस तथा मूर्तिभंजन ए सुदीर्घ समयगाळामां थयां छे, जेने लीधे धर्मने तो सही ज, पण इतिहास अने स्थापत्यना क्षेत्रे पण अकल्प्य हानि थई छे. तो, केटलाक कुशल लोकोए आवा ध्वंस-काळमांये विधविध उपायो शोधी योजीने कोई कोई मतिओने नष्ट थतां रोकी दीधी छे, ते वात पण आपणे याद राखवी जोईए. प्रबन्ध-ग्रंथोमां तथा अन्य स्रोतो थकी, आवा उपायोनी जाणकारी मळी शके. अहीं आमांना ज एक रक्षक उपायनी वात करवी छे.
सत्तरमा शतकमां आगराना जैन श्रेष्ठी सा. सोनपाल तथा सा. कुंरपाल ए जैन इतिहासनां प्रसिद्ध पात्रो छे. तेमणे ते समयमां जिनबिंबो नवां करावी तेनी प्रतिष्ठा पण करावी. ते बिंबोनो कोई मुस्लिम द्वारा ध्वंस न थाय, ते आशयथी, तेमणे चतुराईपूर्वक, ते बिंबोनी मस्तक-शिखा उपर वर्तुलाकारे लेखाक्षरो कोतराव्या. सामान्य धोरण एवं छे के प्रतिमानी पलांठीनी पाटलीमां ज शिलालेख कोतराय. परंतु आ किस्सामा मस्तक पर पण अक्षरो कोतरवामां आव्यां, ने तेनी पाछळनो आशय एक जः ध्वंसथी बचाववानो.
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अनुसंधान-१५ .98 मूळे सं. १६७१मां आगरामां प्रतिष्ठित बे जिनबिंबो हालमां अमदावादसाबरमतीना रामनगरस्थित चिंतामणी पार्श्वनाथ जिनालयमां विराजे छे. तेमां एक आदिनाथजी छे, ने बीजा अजितनाथ भगवान छे. क्रमशः ते बे बिंबोनी शिखा पर कोतरेल अक्षरो आ प्रमाणे वंचाय छे :
१. अकबर सुलत्राणां पातिशाह पुत्र पातिशाह श्रीजहांगीर सुलत्राणां विजय राज्ये ॥
२. पातिशाह श्री जहांगिर विजय राज्ये ॥
देखीती रीते ज, पोताना शहेनशाहनुं नाम आंकेल प्रतिमाना मस्तकनुं खण्डन करवानी, कोई मुस्लिम हिम्मत न ज करे.
साबरमती-देरासरमां आ बिंबो लखनऊथी आणेलां छे, ते पण, प्रसंगोपात्त अहीं नोंदवू घटे.
पांच पंक्तिनो कलश
वाचक यशोविजय-रचित १२५-१५०-३५० गाथानां गंभीर स्तवनो जैन संघमां प्रसिद्ध छे, आदरपात्र पण. तेमां १२५ गाथानां स्तवनना अंते ४ पंक्तिनी एक कडी हरिगीत छंदमां आवे छे, जेने 'कळश' कहेवाय छे. ते आ प्रमाणे छे.
"इम सकल सुखकर दुरित भयहर विमल लक्षण गुणधरो प्रभु अजर अमर नरिंद वंदित वीनव्यो सीमंधरो । निजनादतर्जित मेघगर्जित धैर्यनिर्जित मंदरो श्रीनयविजय बुध चरण सेवक जसविजय बुध जय करो ॥
आ कळश ज आजे सर्वत्र प्रसिद्ध ने प्रचलित छे. परंतु, एक प्रति हमणां नजरे चडी, जेमां आ कडी ४ना बदले ५ पंक्तिनी जोवा मळी. आ प्रति अमदावादना प्रतिष्ठित हठीसिंह केसरीसिंह परिवार-वर्तुलमां थयेल श्राविका 'रुखमणि बहेने' लखावेली होई, तेनो आधारस्रोत कोई जूनी पोथी ज हशे तेम मानवू ठीक लागे छे. अलबत्त, अहीं स्रोतने विशे कशी नोंध नथी. शक्य छे
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अनुसंधान-१५ • 99 के लहियाए मुख-कंठस्थ वाचना आलेखी होय. जे होय ते. पण ते पांचमी पंक्ति (मूळ कडीनी प्रथम त्रण पंक्ति पछी चोथी पंक्ति तरीके) आ प्रमाणे छ :
___ "श्री विजयदेवसुरिंद पटधर श्री विजयसिंहसूरिसरो"
पूरो संभव छे के विजयसिंहसूरि उपर उपा. यशोविजयजीने अनहद प्रीतिभक्ति होवाथी तेमणे स्वयं आ रीते पांच पंक्ति आलेखी होय, अने पछी पाछळना लोकोए ४ पंक्तिना मेळनो आग्रह राखी एक पंक्ति दूर करी दीधी होय.
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हरिवल्लभ भायाणी
[ अमने खेद छे के 'अनुसंधान - १४, पृ. २३१ - १३७ भूलथी घणा अशुद्ध छपायां हतां । अहीं एटलो अंश शुद्ध रूपे फरी प्रकाशित कर्यो छे.]
१.
४.
शब्द- चर्चा
डंगा 'लाठी'.
प्रा. डंगा टर्नर क्रमांक ५५२०.
ढकोसलां (१) 'आभास', 'मिथ्या देखाव; (२) कपट व्यवहार बोलीमां उच्चार ढकोहला. सने बदले अघोष ह. अर्थ अस्पष्ट ल प्रत्यय होवानुं जणाय छे.
ढग, ढगलो
सरखावो लहंदा ढिग, पंजाबी ढिग्ग, हिंदी ढीग, मराठी ढीग. टर्नर, क्रमांक ५५८५ ढिग्गनी नीचे.
सौराष्ट्रनी बोलीगां ढग 'घणुं'
ढगो 'आखलो', (ला.) 'जाडोपाडो'. सरखावो पं. ढग्गा; ढग्गी 'गाय'
ढगरो 'कूलो'
ढेकोनी जेम मूळ अर्थ 'उपसेलो भाग.'
प्रयोग : ढेका- ढगरा पर्यायसमास. खाडाखैया वगेरेनी जेम.
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अनुसंधान-१५ • 101 ढब्बु (ढबु) (१) 'पाई, अधेलो, पैसो, आनो - एनुं ज्यारे चलण हतुं त्यारे वपरातो बे पैसानी किंमतनो तांबांनो जाडो, मोटो सिक्को' । (२) ढबुनुं भारदर्शक रूप ढब्बु ।
रूपांतर : ढबुवो - जेम लाडु : लाडवो । (३) हिंदी ढब्बु, ढबुआ, ढबुवा, ढिबुआ, ढेबुआ ।
ढब्बुस 'जाडियो', सरवावो लंबूस, खडधूस, ढूंढसु. कुमाऊनी ढपुवा, ढेपुवा, पंजाबी ढऊआ, ढबुआ, नेपाली ढेऊआ, प्राकृत कथाग्रंथ 'कथार्णव'मां ढेब्बुका वपरायो छे. ।
मराठी ढबू, ढब्बू, कानडी डब्बु, तेलुगु ढब (४) ढबुडो, ढबुलो 'नानो ढींगलो'. स्त्री. ढबुडी, ढबुली.
आ 'जाडो, ठीगणो ढींगलो' ए मूळ अर्थ होय. सिक्कावाचक अर्थ एना साथे विकस्यो होय.
७. ढाढी ‘ए नामनी धंधादारी ज्ञाति'.
__ कृष्णजन्म ऊजववा भेरी वगाडनार ढाढीए नंदयशोदाने त्यां जईने उत्सवमां भाग लीधो होवानुं जूनी कथा अने धोळमां का छे. ढाढी-लीला 'वैष्णव मंदिरोमां तेम ज उत्सव निमित्ते राते मळेला वैष्णवोना समूहमां ढाढी अने ढाढण टप्पो बोलतां श्रीकृष्णनी लीलानां पद गाय छे ते'.
प्रा. ढड्ड 'भेरी.' ढड्ड अने ढडिसनो वाद्योनी सूचिमां प्राकृत साहित्यमां उल्लेख मळे छे.
ढड्ड 'जाडु, ऊपसेलु, सोजी गयेनु' ए आनो लाक्षणिक अर्थविस्तार होय एम लागे छे.
___ गुज. ढंढ. जेम के पोलुं ढंढ. सरखावो ढंपोलुं. प्रयोग : 'ढम ढोल अने मांहे पोल.' टर्नर, क्रमांक ५५७६
८. ढांक.
प्रा. ढक्कइ, ढंकइ 'ढांके छे'
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अनुसंधान-१५ • 102 नाम : ढांकण, ढांकj, ढांकणी वगेरे. प्रयोग : ढांको-ढूंबो वगेरे.
९. ढीको, ढीको 'मूठी वाळीने मरातो धब्बों, घुस्तो.'
प्रयोग : ढीका-बूंबी. 'तरतबुद्धि तरकडो, ढीको मारे ढंम.' ढीक (ढीक) मारवी 'गाय वगेरे ढोर माथु मारे ते.'
१०. ढीम, ढीमचुं, ढीमj.
ढीम न. (ढीमचुं). 'पथ्थरतुं मोटुं चोसतुं'. लाक्षणिक अर्थ : जाडु मोटुं गढुं. ढीमर्दू 'लाकडानो गो'.
ढीम, ढीमुं, ढीचj (ढीम९) 'मार लागवाथी, अथडावा-कूटावाथी कांईक करडी जवाथी शरीरनो ऊपसी आवतो कोइ भाग, सोजो.' पंजाबीमां अर्थ 'देखाळो'; हिंदीमां 'लोदो, ढेखाळो,' मराठी ढेम्म, ढेमुस 'शरीर पर उपसी आवतो सोजो.' टर्नर क्रमांक ५५९२ ढीम्म, ढेम्म.
११. ढींढुं 'शरीरनो कूलावाळो भाग' ।
टनर क्रमांक ५५८९ नीचे ढीड्ड, ढिड्ड, ढींढ, ढेड्ड, ढेंढ ए अटकळे पुनर्घटित मूळ शब्दरूपोनी नीचे नव्य भारतीय-आर्य भाषाओमांथी आपेल शब्दो मुख्यत्वे 'पेट, फांदो' एवो अर्थ धरावे छे. ।
सरखावो सिंधी ढीढो 'पतंगना वच्चेनी वांसनी चीप'; गुज. ढड्डो. ढींढुंनो समानार्थ ढेको, ढगरोनो मूळ अर्थ ध्यानमां लेतां ढीढुंनो मूळ अर्थ पण 'ऊपसेलो भाग, ढोरो' होय ।
१२. ढेको 'कूलो' ।
मूळ अर्थ 'ढोरो, उपसेलो भाग', 'ढगरो' ढींढुंनो मूळ अर्थ पण आवो
ज छ।
प्रयोग : ढेकालैया 'खाडाटेकरा' । आमां ढ़या ए मूळे ढहिया छे. हिंदी ढहना 'दिवाल वगेरेनुं ढळी पडवू'।
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अनुसंधान-१५ • 103 ढेकाढळिया. ढळिया 'ढाळ, नीचो भाग, खाडो' ।
१३. ढेबरूं 'घउं के जुवार-बाजरानो तेल मूकीने बनावेलो, फूलेल न होय तेवो
सहेज जाडो रोटलो' । सरखावो सिंधी ढेबिरो। टनर क्रमांक ५५८० नीचे 'लोंदो' एवो सामान्य अर्थ धरावता विविध शब्द आप्या छे. तेमां एक आ छे । 'जाडु, ठीगणुं' एवी अर्थछाया पण छे । व्युत्पत्ति विशे मारी एवी अटकळ छे के ढीबवू उपरथी 'जे ढीबीने बनावाय छे' ते ढिब्बिर, ढेब्बिर; तेना परथी ढेबरूं. जे थेपीने बनावाय ते थेपलुं, ढेबरुंनो पर्याय ।
१४. ढेसडो
कोशोमां आपेल रूपांतरो : ढेसरो, ढेसलो, ढेसळो । अर्थ 'विष्ठानो ढगलो, पोदळो' ।
कोशमां ढेसकुं 'भाखरो, जाडो रोटलो' एवो अर्थ आपीने 'पोदळो, विष्ठा' ए अर्थ लाक्षणिक होवानुं कर्तुं छे, पण ढोसो ए शब्द जोतां ढेसकुं शंकास्पद जणाय छे । अने मात्र ढेसडो (बोलीनो उच्चार ढेहडो) ए एक ज जाणीतो छ ।
टनर क्रमांक ५६०२ ढेस, ढेंस 'लोंदो, ढगलो' एनी नीचे पंजाबी ढेइ 'ढगलो', नेपाली ढिस्को 'टेकरो' वगेरे आपेल छ । १५. ढोल
उपरांत ढोलकुं, ढोलक, ढोली, ढोलीडो वगेरे साधित । प्रा. ढोल्ल. टर्नर क्रमांक ५६०८ ढोल, ढोल्ल, प्रयोग : ढोल ढमढम्या. ढोल ढमके छे. ढोलनगारा, रामढोल ढमढोल मांहे पोल । ढोलीडा धडूक्या लाडी । महीसागरने आरे ढोल वागे
छे
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अनुसंधान - १५ • 104
१६. ढोसो 'चूरमुं बनाववा माटे घउंना लोटनो बनावेलो जाडो खाखरो' । सरखावो : नेपाली ढोसे 'जाडो रोटलो'; ढुस्स 'पवनथी फूलेलुं'. बंगाली दुसा 'जाडियो अने आळसु' ।
मूळ तमिळ दोषै = आपणे त्यां प्रचलित ढोसा नामे खावानी वानी । टर्नर, क्रमांक ५५९४ ढुस्स 'सोजी गयेलुं, फुलेलुं'.
१.
2.
3.
Hindi मोटा
H. मोटा 'fat'; G मोटुं 'big, elder'. K. L. P. Ku. A.B. Or G. have corresponding forms with the meaning 'big', 'fat. (Turner, 10187(11))
मोट्टियार ‘boyish, laddie (< मोट्ट + comparative यर < Sk. ०तर) is attested from a tenth century text. (Śodh aur Svādhyāy, p. 185).
H. मोट, मोटरी bundle'. ( G. गोटमोट ' bundled up'). According to Turner मोट्ट > मोटा belongs to the defective group of words while e 'bundle' is connected with Sk. मूत etc. ‘basket’, ‘bundle’, ‘sack’ (Turner, 10233 (3), (6), (7))
I think *मुट्ट ‘bundle, sack' is the original word. * मोट्ट is its transform due to the tendency to change a post-nasal 3 to ओ (‘Some Topics in the Development of OIA, MIA, NIA', p. 75). This मुट्ट is the same as मोट्ट. A fat, big child or boy is referred to as a bundle' in light, humorous discourse (facetiously) (metaphorically ). Compare श्लक्ष्ण 'the tiny one > G नहानुं, M. लहान etc. 'smaller, younger' (Turner, 12732)
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37THE119-84 • 105
Hindi Dict ETCI ‘small”, “younger'. HAI and ETZI, are contrasting words. (Turner, 5071) Sk. yia 'young of an animal', Pk. 'boy, child', Sk. Flach (Turner, 12417) Pali 3014(891406) 'young of an animal'. It is I think derived from Sk. शाव. Hemacandra has noted Pk. छाव, Sk. शाव, Pk. 3947
8. See Pischel, para 211. But Turner says relationship between Pila and 5919 is unclear. (Turner, 5026) Inspite of phonological problem I find it difficult to regard the element glo in 591 oh, ET**, ** (Turner, 5069, 5070) as unrelated to शाव. छोक्क Possibly derives from an expressive / emphatic form < 517€ < 110€ < 3119106. (Ele perhaps originated from छोक्करूव > Guj. छोकरु). Cf. Ap. डिक्करूव' male child' Cf. डिक्करूवई खद्धई मक्कडेहिँ in an Apabhraíśa poem. Accordingly I think to in g (> Et2T etc.; Turner, 5071) is the same as to derived from Pila (> 19.) : It is extended with oço For base extension with Sk. 159 (with the meaning-shade of PRR) and its instances see my Vāgvyāpār (in Gujarati) 1954, p. 229-231. For the stem-enlarging, diminutive -2- see Bhayani, 2151 2110420 faart, 3rd edition, p. 114-120. (Instances of Guj. nouns ara, HT, 142; adjectives in M. Ore, circe, viat).
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31 KH -84 • 106
G. viet, H UTC (f.), HTC (f.) G. Tè ‘something round, ball-like, nosegay', at ‘small ball’, secondarily ‘confusion, disorder, mixup' (=T odt, H. EIUNI 'scam'), H. TE ‘mass'. (Turner, 4182, 4271) H. 4, G. Hej etc. 'bundle, sack, bag'. Sk. E, 925 (Turner, 8253, 8396) H. HTC, HTCH 'bundle', G. TICHTE "bundled up'.
2.
3.
G. DE G. Pē ‘pride', 'insistance', 'uncompromising vow or promise', due, Zah. Verb vesi 'to be insistent or proud'. This is from Hindi. H. Šo 'pride”, tot 'winding, straining', Pont ‘to turn and twisť, “to pull, 'to express proudness?, te proud'.
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अनुसंधान-१५ • 107 आदरणीय संपादको, 'अनुसंधान' अनुसंधान १४ समृद्ध, सुंदर अने वैविध्यपूर्ण छ । खटके एवं कंइ होय तो ते छे मुद्रणदोषो । 'अनुसंधान' एक सामयिक मात्र नथी, प्राचीन अप्रगट साहित्यनो संग्रह करती ग्रन्थश्रेणी छे । एमां मुद्रणदोषो न्यूनतम होवा जोईए ।
एवी ज रीते आमां छपाती सामग्रीना संशोधक-संपादकोए पण रचनाने क्षतियुक्त बनाववा श्रम लेवो रह्यो । नवोदित संपादकोने आकरा नियमो लागू न पड़ाय ए खरं, परंतु नवोदितोए उच्च आदर्श लगी पहोंचवामां मन्दता न आणवी ए पण जरूरी छ । 'अनुसंधान' पूर्व काशीथी प्रगट थती 'काव्यमाला' जेवू आदर्श संशोधनसामयिक अने आकरग्रन्थ बनी रहे एवी अपेक्षा कृतिसंपादको द्वारा ज पूर्ण थइ शके।
आ अंकनी सामग्रीमांथी पसार थतां जे सूझ्युं ते अहीं नोंधुं :'षड्दर्शन परिक्रमः'
पृ. ३. टिप्पणमां "द्वितीय पाठान्तरम्' छे त्यां 'द्वितीयपाठः'
एम ज समजवायूँ छ । श्लोक ३१ना टिप्पणमां टिप्पणकारे 'द्वितीयपाठः' शब्द पाठांतरना अर्थमां वापर्यो छे ।
पृ.४. श्लोक ९ पुण्यनो संवरमां अने पापनो आस्रवमा समावेश करवान कहे छे ते ज विचारणीय छ । तत्त्वार्थसूत्र पुण्य-पाप बनेनो समावेश 'आस्रव मां करे ज छे । 'पुन्यपापनइ संवरि पुन-पुनरपि कर्मबन्ध न करइ' एम कहीने टिप्पणकारे सुधारो ज सूचव्यो छे ।
पृ.८. टिप्पणमां 'माहोमाहे विचार ते वितण्डावाद' एम छपायुं छे. मूल प्रतिमा विवाद शब्द हशे एवो पूरो संभव छ । हस्तप्रतोमां 'च' अने 'व'ना आकारमा बहु अन्तर नथी होतुं । 'द'ने बदले 'र' वांचवानी भूल पण सुशक्य छ । विवाद ए ज वितण्डा छे ए वात जाणीती छे । 'अज्ञातकर्तृक बे दृष्टान्तशतक'
बंने शतकना रचयिता प्रतिभासंपन्न साधु कवि छे ए स्पष्ट जणाइ आवे छ । कल्पनावैपुल्य कवित्व- अने शब्दचातुर्य विद्वत्तानुं सूचन करे छे । घणा स्थळो अशुद्ध रह्यां छे । आम थवामां मुद्रणदोषनुं कारण छे, हस्तप्रतनी अशुद्धता
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अनुसंधान-१५ • 108 नडी छे के संपादकनी कचाश छे ए तो आना संपादक ज कही शके । कदाच आ त्रणेनो थोड़ो थोड़ो फाळो हशे ।
श्लो. १-६. 'श्रीपतिर्योषिदासक्तो' होइ शके ।
श्लो. १-१८. 'भृज्ज्यमानोऽपि..' - 'सेकातो एवो पण पापड उज्ज्वल वर्ण ज धारी राखे छे.'
श्लो. १-४६. 'मिखी'ना स्थाने 'मिसी' शब्द होवानुं संपादके धार्यु छ। ह.प्र.मां जो 'खी' होय तो 'षी'नुं खी थयेलु होइ शके । अने साचो शब्द 'मषी' होय एवी कल्पना थइ शके । 'मुखना भागमां मषी-मेश, काजल-आंजता छतां दृष्टि प्रसन्न थाय छे' एवो अर्थ पण बेसे छे ।
श्लो. १-५०. 'जह्नतां' ना स्थाने 'जिह्मतां' वधु योग्य लागे छ । आ श्लोकमांनो 'कोणना' शब्द पण नोंधपात्र छ ।
श्लो. १-५७. 'श्रीदः' पाठ ज बराबर छ । (श्रीद-) एम सुधारवानी जरूर नथी । 'रङ्गतस्त्यागिनः' शब्द अशुद्ध छे । 'युद्धमां प्राणत्याग करनार' एवा अर्थनो कोई शब्द अहीं होवो जोइए ।
श्लो. १-६७. ह.प्र.मां जे प्रथम शब्द वांची शकायो नथी ते 'कथा' होवानो संभव छ । अर्थनो विचार करतां आ शब्द ज योग्य जणाशे । "कथा ए एक रसायण छे, जेनो प्रयोग करतां पूर्वपुरुषो मृत होवा छतां फरी जीवता थाय छे अने जीवता लोको कीर्तिथी पुष्ट बने छे" ।
श्लो. १-६९. 'सखी' शब्द वाचननी भूल जणाय छे । 'मषी' होवो जोइए। "मषी-शाही सामान्य वस्तु होवा छतां ज्यारे ते वर्णोनो (अक्षरोनो) आश्रय ले छे त्यारे पोताने अने कागळने शोभावे छे" ।
श्लो. १-९०. 'महोत्सवोऽप्यपुण्यानां' होवू जोइए । 'प्य', 'थ' वंचायु छ।
श्लो. २-१५. एक 'शालिभद्र' व्यक्तिनाम तरीके अने बीजो विशेषण तरीके लेवानो छे । 'शालिथी भद्र थयुं छे जेतुं' एवो शालिभद्र । १-५४मां 'आखुवाहन' शब्द पण आवी ज रीते बे वार आवे छे ।
'मुनि विनयवर्धनकृत विज्ञप्तिपत्र'मां कर्तानी प्रखर विद्वत्प्रतिभा प्रकाशे छ। श्रमणसंघना इतिहासमां केवी केवी सर्जक प्रतिभाओ जन्मती रही छे ते आवी
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अनुसंधान-१५ • 109 कृतिओ जोइए त्यारे समजाय छे । आ कृति क्या ज्ञानभंडारनी छे ते जणावायु नथी । 'सूक्तावली'
आमांना ३५ थी ४० क्रमांकवाळा श्लोक श्री हरिभद्रसूरिकृत 'योगबिन्दु'ना छे. क्र. १९०-११५.
संपादिकाने ह.प्र.ना वाचनमां मुश्केली पड़ी जणाय छे । थोडो वधु ऊहापोह कर्यो होत तो पाठ वधु शुद्ध करी शकायो होत ।।
श्लो.२. 'अपाया [हि] प्रतिपद्य' 'ने स्थाने अपायाः प्रतिपद्यन्ते] एवो पाठ कल्पवानी जरूर हती ।
श्लो. ८. 'दुःखाङ्कितो' अहीं अर्थनी दृष्टिए 'दुःखं कुतो' सुसंगत थाय।
श्लो. ७. 'उपभोगोऽपाय...' आमां अवग्रहचिह्न ह.प्र.मां नहीं ज होय । 'उपभोगोपायपरः' जेम छे तेम योग्य ज छ ।
श्लो. ३१. [विमल] कल्पवा करतां (भवति) वधारे योग्य लागे छ । 'याग'
कल्पसूत्रमा आवतो आ ‘याग' शब्द देवपूजापरक छ, यज्ञपरक नथी तेनी चर्चा करतां श्रीशीलचन्द्रसूरिजी, श्रीभद्रबाहुस्वामीए आ शब्दने नवो मोड़ आप्यो एम बताववानो प्रयास करे छे, किन्तु नवो मोड़ आपवानी कल्पना-अनुमान करवानी जरूर नथी । 'जाए-दाए-भाए' एवो शब्दसमूह लोकभाषामां 'सारे अवसरे आदान-प्रदान कराती मांगलिक वस्तुओ-भेट-सोगादो' एवा अर्थमां वपरातो हशे एवं अनुमान शा माटे न कराय? ज्ञातासूत्रमा पण आ ज शब्द आवा ज संदर्भमां आवे छे ते उपरथी आ शब्दप्रयोग त्यारनी प्रचलित भाषामांथी लेवामां आव्यो एम न बने ? कल्पसूत्रमा लोकभाषानो उपयोग थयो छे, कथाकार कथा कहेता होय एवी ढबे तेनुं गुम्फन थयुं छे । आ शब्दसमूह एक रूढ प्रयोग होवार्नु मानवामां हरकत नथी । अने सामान्य जनता 'याग' शब्दने 'अर्घ्य-पूजापोगन्धधूप वगेरे पूजनद्रव्यो' जेवा लाक्षणिक अर्थमां वापरती होय ते सुशक्य छ। नानाभाडिया, कच्छ
मुनि भुवनचन्द्र ता. ३०-९-९९
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थोडांक हमणांनां प्रकाशनो
Lord Swāminārāyan : an Introduction. Sadhu Mukundcharandas. 1999, p. 79, Rs. 25, Ahmedabad.
Handbook to the Vachanāmrutam. As above. 1999, P. 258. Rs. 90 As above.
बंने पुस्तकोमां तेमना विषयनुं सर्वांगीण निरूपण थयेलुं छे । अढारमी शताब्दीमां गुजरातमां आवीने स्वामिनारायण धर्मनी स्थापना करनार श्रीसहजानंद स्वामीना जीवनने लगतां अने तेमना रचेलां, ए धर्मना मूळभूत धर्मशास्त्र 'वचनामृत'ने लगतां प्रत्येक पासा विशे प्रमाणभूत माहिती लेखके आपी छे । स्वाभाविक रीते धर्मभावनाथी प्रेरित होवा छतां बंने पुस्तको विद्याकीय परिश्रमथी तैयार करायां छे अने संप्रदाय बहारना जिज्ञासुओने पण घणां उपयोगी नीवडशे । पश्चिमनो अर्वाचीन समयमां आपणे संपर्क थयो ते गाळामां आपणी धर्मपरंपरामां जे नवा विकास अने परिवर्तन थयां तेने समजवा अने तेनुं अध्ययन - संशोधन करवाना अति विस्तृत काममां आवा गंभीर प्रयासो थता रहेवा जोइए ।
विश्वसाहित्यमां वार्ता -दूंकी वार्ता । हसु याज्ञिक । १९९९. पृ. २००, रु. ८५/-. Ahmedabad. लेखके पुस्तकमां विश्वना अढार देशोनी परंपरागत की वार्तानो परिचय कराव्यो छे अने वार्ताना विषयानुसारी प्रकारो अने लघुकथाट्रंकी वार्ता ए विषयोनी पण चर्चा करी छे । जैन परंपरानी तेम ज इतर परंपरानी भारतीय कथाओना तुलनात्मक अध्ययन माटे पण आ सामग्री उपयोगी पुरवार थशे ।
मेरुतुङ्गबालावबोधव्याकरणम् । संपादक-संशोधक : नारायण कंसारा,
१९९८, पृ. ९०, रु. ३० -००. मुंबई |
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अनुसंधान - १५ • 111
मेरुतुंगसूरिए पंदरमी शताब्दीमां संस्कृत व्याकरण सरळताथी शीखवा माटे बालावबोध-व्याकरणनी रचना करी हती । तेमां दुर्गवृत्तिने आधारे कातंत्र व्याकरणना पहेला त्रण अध्यायननां बधां सूत्रो अने कृदंत - अध्याय माटे सिद्धहेम व्याकरणना पांचमा अध्यायमांथी पसंद करेलां सूत्रो । ( बृहद्वृत्तिने आधारे), बालबोध वृत्ति साथे आपवामां आव्यां छे । डॉ. कंसाराए प्राप्त हस्तप्रतोने आधारे पाठ तैयार कर्यो छे अने ग्रंथकार तथा अंचलगच्छीय साधुओना संस्कृत व्याकरणमां योगदान विशे माहिती आपी छे ।
युगप्रधान आचार्य श्रीजिनदत्तसूरि का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान । डॉ. स्मितप्रज्ञाश्री ॥। १९९९ । पृ. २८० रु.१५० - ०० । अमदावाद ।
श्वेतांबर मूर्तिपूजक संप्रदायमां खरतर गच्छना स्थापक जिनेश्वरसूरिनी परंपरामां बारमी शताब्दीमां थई गयेला जिनदत्तसूरि एक प्रभावक अने विद्वान आचार्य हता. एमना जीवन अने साहित्यरचनानो सर्वांगीण अभ्यास डो. स्मितप्रज्ञाश्रीए पीएच.डी. ना आ शोधप्रबंधमां कर्यो छे । जिनविजयजीए जेम आपणने जिनेश्वरसूरि विशे तेम अहीं जिनदत्तसूरि विशे, एमनी परंपरा, जीवन अने साहित्यने अनुलक्षीने तुलनात्मक अने आलोचनात्मक अध्ययन रजू करायुं छे ।
एक अभिवादन - ओच्छव एक गोष्ठि । संपा. कान्तिभाई शाह । १९९८। पृ १२४ । रु.६० । मुंबई ।
जयंत कोठारी वडे संशोधित मो. द. देशाईना 'जैन गूर्जर कविओ'नी बीजी आवृत्ति, भाग ८-८-१० ना विमोचननो जे कार्यक्रम १९९८मां अमदावादमां रखायो हतो अने त्यारे जे 'जैन गुर्जर कविओ'नी समीक्षा करवामां आवी हती अने 'मध्यकालीन गुजराती साहित्यवारसांना जतन अने प्रकाशनना प्रश्नो' विशे जे गोष्ठी राखवामां आवी हती एनो आ अहेवाल छे । कनुभाई शेठ, कान्तिभाई शाह अने जयंत कोठारीना हस्तप्रतभंडारो अने तेमनी सूचिओ विशेना निबंधो घणा उपयोगी छे ।
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अनुसंधान-१५ . 112
तरंगवती । हिन्दी अनुवाद । प्रीतम सिंघवी । १९९९ । पृ.१२६, रु. ८५/- अहमदाबाद.
पादलिप्ताचार्यकृत पण लुप्त थयेली प्राकृत साहित्यनी अद्भुत कथाना एक प्राचीन संक्षेप 'तरंगलोला'नो आ हिन्दी अनुवाद पाठकोने माटे घणो रसप्रद नीवडशे ।
हरिवल्लभ भायाणी
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