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________________ अनुसंधान-१५ • 107 आदरणीय संपादको, 'अनुसंधान' अनुसंधान १४ समृद्ध, सुंदर अने वैविध्यपूर्ण छ । खटके एवं कंइ होय तो ते छे मुद्रणदोषो । 'अनुसंधान' एक सामयिक मात्र नथी, प्राचीन अप्रगट साहित्यनो संग्रह करती ग्रन्थश्रेणी छे । एमां मुद्रणदोषो न्यूनतम होवा जोईए । एवी ज रीते आमां छपाती सामग्रीना संशोधक-संपादकोए पण रचनाने क्षतियुक्त बनाववा श्रम लेवो रह्यो । नवोदित संपादकोने आकरा नियमो लागू न पड़ाय ए खरं, परंतु नवोदितोए उच्च आदर्श लगी पहोंचवामां मन्दता न आणवी ए पण जरूरी छ । 'अनुसंधान' पूर्व काशीथी प्रगट थती 'काव्यमाला' जेवू आदर्श संशोधनसामयिक अने आकरग्रन्थ बनी रहे एवी अपेक्षा कृतिसंपादको द्वारा ज पूर्ण थइ शके। आ अंकनी सामग्रीमांथी पसार थतां जे सूझ्युं ते अहीं नोंधुं :'षड्दर्शन परिक्रमः' पृ. ३. टिप्पणमां "द्वितीय पाठान्तरम्' छे त्यां 'द्वितीयपाठः' एम ज समजवायूँ छ । श्लोक ३१ना टिप्पणमां टिप्पणकारे 'द्वितीयपाठः' शब्द पाठांतरना अर्थमां वापर्यो छे । पृ.४. श्लोक ९ पुण्यनो संवरमां अने पापनो आस्रवमा समावेश करवान कहे छे ते ज विचारणीय छ । तत्त्वार्थसूत्र पुण्य-पाप बनेनो समावेश 'आस्रव मां करे ज छे । 'पुन्यपापनइ संवरि पुन-पुनरपि कर्मबन्ध न करइ' एम कहीने टिप्पणकारे सुधारो ज सूचव्यो छे । पृ.८. टिप्पणमां 'माहोमाहे विचार ते वितण्डावाद' एम छपायुं छे. मूल प्रतिमा विवाद शब्द हशे एवो पूरो संभव छ । हस्तप्रतोमां 'च' अने 'व'ना आकारमा बहु अन्तर नथी होतुं । 'द'ने बदले 'र' वांचवानी भूल पण सुशक्य छ । विवाद ए ज वितण्डा छे ए वात जाणीती छे । 'अज्ञातकर्तृक बे दृष्टान्तशतक' बंने शतकना रचयिता प्रतिभासंपन्न साधु कवि छे ए स्पष्ट जणाइ आवे छ । कल्पनावैपुल्य कवित्व- अने शब्दचातुर्य विद्वत्तानुं सूचन करे छे । घणा स्थळो अशुद्ध रह्यां छे । आम थवामां मुद्रणदोषनुं कारण छे, हस्तप्रतनी अशुद्धता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520515
Book TitleAnusandhan 1999 00 SrNo 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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