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अनुसंधान - १५•88
ढाल फागनो ॥
सारदमाता वीनवुं रे बार महिनां भावस्युं रे सूरीश्वर साहिब आईए हो,
॥
श्री विजयप्रभसूरिराय । सूरी० तुं गुरु रणायरसमोरे
काती मास मनोहरु रे,
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मागं एक पसाय । गावा ए उलट थाय ॥१॥ अहो मेरे ललनां,
रत्नतणो नही पार ।
गुरुजीय करत विहार ॥२॥ सू०॥ कामिनी करई अरदास । पूरो पूरो मुझ मनि आस ||३|| सू०॥ गुरुचरणे निसदीस । साहिब माहरो ईस ||४|| सू०|| जो आवई गुरुराय ।
मा िसखर मया करी रे, एक बोल अवधारीइ रे पोसई पोसा घणां करइ रे चित चिंता दूर करई रे asो भाग हम माघ मइ रे चलो सखी वंदन जाइए रे खेलति फाग सखी मिली रे बोलई अमृत वाणि । सासव गण कई कुरू रे ( ? ) वीनतडि मनि आणि ॥६॥ सू०॥
हीयडइं धरिय उच्छाह ||५|| सू०॥
गजगति चालई गुरु मेरो चैत्र आश्या मइ करी रे वैशाखड़ फुलि रे (?) तिम हम मन तुंम उपरिं रे
आवइ विजयप्रभसूरिराय । देखत मुख सुख थाय ||७|| सू०॥ फुलि रही वनराय । पानिकुं जुं मीन ध्याय ॥८॥ सू०॥ जेठ महिनो एह ।
सूर तपइं शिर आकरो रे मिहिर करि संघ उपरि रे आसाढ आशा फलि रे शाम - घटा उमटी घणुं रे श्रावण श्रवण सोहामणो रे गोख समारो सुंदरि रे पाणि पूर वह घणां रे दिन दिन दोलति दीपती रे श्रीविजयप्रभसूरीसरू रे
आवत धरि मनि नेह ||९|| सू०॥ चतुर आए चोमास ।
नरनारि फलि मनि आस ||१०|| सू०॥ दामिनी करति पोकार ।
बेठन गुरु सुखकार ||११|| सू०॥ भरि भाद्रवड मास । भविजन पोचई आस ||१२|| सू०॥ प्रगट्यो पुण्यअंकुर |
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