Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 15
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ कमलपञ्चशतिका-स्तोत्र ॥ ___ -सं. विजयशीलचन्द्रसूरि आ कृति ए संस्कृत काव्य-साहित्यना एक अद्भुत नजराणां समान कृति छे. १३० पद्योमां पांच जैन तीर्थंकरोनी स्तवना करती आ रचनानी खूबी ए छे के तेना प्रत्येक पद्यना प्रत्येक चरणमां 'कमल' शब्द गुंथी लेवामां आव्यो छे; अने एनो अर्थ प्रत्येक चरणे भिन्न भिन्न छे. १२८ गुण्या ४=५१२ थाय; ए रीते आमां ५१२ वार 'कमल' शब्द भिन्न भिन्न अर्थमां गुंथी लेवामां आवेल छे. आमां श्लेष आदि अलंकारोनो तथा विविध शब्दसंयोजनोनो आश्रय, अलबत्त, लेवामां आव्यो ज छे. परंतु तेथी कविनी क्षमतामां स्हेज पण ऊणप आवे तेम नथी; खरेखर तो एमां ज कविनी क्षमता प्रगट थई छे. अने आ कारणे, कविए स्वयं प्रयोजेनु 'कमलपञ्चशतिका' एq नाम पण सार्थक बने छे. ___ पराकाष्ठा तो त्यां छे के कर्ताए ४ पद्यो (१२१ थी १२४) प्राकृत भाषामां लख्यां छे, अने तेमां प्रत्येक चरणमां 'कमल' शब्द प्रयोजी बताव्यो छे ! आ रचनाना सर्जक पंडित हर्षकुल गणि, इतिहासकारोनी नोंध प्रमाणे विक्रमना १६मा शतकमां थई गया छे, अने ते गच्छाधीश श्रीहेमविमलसूरिना शिष्य हता. तेमणे सूत्रकृतांगसूत्र पर दीपिका' टीका, मुग्धावबोध-औक्तिकनी टीका, कविकल्पद्रुम, काव्यप्रकाशटीका वगेरे अनेक ग्रंथो रच्या छे. (जैन सं.सा.नो इतिहास-१, -ही.र. कापडिया, पृ. ५१, २८८ व. प्र.ई.१९५६, वडोदरा) आ स्तोत्रनी एक प्रति छाणीना प्र. श्रीकांतिविजयजी शास्त्रसंग्रहमां उपलब्ध छे (क्र. ७९१). तेनी झेरोक्स कोपीना आधारे प्रस्तुत संपादन करवामां आव्युं छे. प्रतिनां ८ पत्र छे, अने सर्वत्र टिप्पणो नोंध्यां छे, जे उकल्यां तेवां अत्रे पण मूकी आप्यां छे. प्रतिमां लेखन संवत् नथी, परंतु पडिमात्रानी लिपि तथा प्रांते पुष्पिकारूप उल्लेख वगेरेने आधारे कर्तानी पोतानी लखेली के पछी कर्तानी नजर समक्ष लखायेली प्रत होय तेम अनुमान थाय छे. आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ अने महावीरस्वामी-एम पांच तीर्थंकरोनी संयुक्त स्तुतिस्वरूप आ रचनामां एकाधिक स्थले आदिनाथ वगेरे एक प्रभुनुं नाम लखीने, अन्य ४ नामो पण त्यां जोडी देवानी-जोडीने वांचवानी सूचना, कर्ताए आपी छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118