Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 15
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 58
________________ अनुसंधान-१५ • 53. मिइं मुनिवर-सुवेलि करेवी तेणि कारणिइं मिइं तु समरेवी । तिहां पूरवमुनिसेणि गणेवी तस गुणगति नित भविक जपेवी ॥२॥ त्रिविधई तस करणीत तुलेवी तिणिइं निज पातक रवोणि हणेवी । ते मुनिवेली कंठि करेवी तेणे भवजलनिधि वेलि तरेवी ॥३॥ (१) ढाल - (राग-कांनडु) संसारे सुणि जीव अपारे अतिदुर्लभ मानवअवतारे । विवेकदीवो मति अवतारे लाधू गुणठाणुं मम हारे ॥४॥ आपइं आप सरूप विचारे जगि दुर्गतिनां दुख संभारे । मिथ्यामतिमत-मोह निवारे एहित सीख सदा अवधारे ॥५॥ ममता माया मान विदारे रमि पुरुषोत्तम-ध्यानाचारे । त्रिभुवनजन-प्रतिबोधागारे नित वंदन करि सम अणगारे ॥६॥ अशरण सम षट् जीवाधारे समता-सुचि-गुण-पारावारे । निर्जित-दुर्जय-मदनविकारे वंदन करि जिनपति मुनिसारे ॥७॥ (२) ढाल-सरसति-अमृत ऋषभादिक चउवीस जिणिंदा, जस सेवइं नित चउसठि इंदा, प्रणमिइ जस गोविंदा । अट्ठाणवईअ नमि मुणिचंदा, वेआलिअसुअमुअ(मुप)शमकंदा, ऋखभसुआ गोविंदा ॥८॥ पुरिमतालपुरे जिणि सिक्खिआ, पुंडरीकपमुहा जिणि दीक्खिआ ___ भरतपुत्र नमो तस सत्तसई ॥९॥ पुंडरीकपमुहा चउरासी, गणहर तिम मुनि सहस-चउरासी, कलपसूत्र इम भासी ॥१०॥ लबधिवंत गुरु गण-कुलवासी, मुनिवंदनि जस मति नवि वासी, __तस मति कुमति विणासी ॥११॥ नाग-गोअसवण(ण) थिविराणऽहो, महफलं भणिअंच गुणावहो, वंदणं नमणं पडिपुच्छणं, बहुलपातकसंततिमुच्छणं ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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