Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 15
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ अनुसंधान - १५•26 स्यात्तावदास्याम्बुरुहस्य किञ्चित्सङ्कोचिता साऽनुचिता न चिन्त्या || १४८ || आमोक्षमेकोऽप्यरिहादिवर्णो रातीति विप्राणयितुं श्रितानाम् । तत्पञ्चकोत्थं यदवैमि पश्यत्युत्कन्धरं वस्त्वधिकं ततोऽपि वाग्देवताया वदनारविंदा तीजमासाद्यत यद्यनर्घ्यम् । तत्पारिजातोऽजनि मंजरीमानिस्सीमसौरभ्यमभूत् सुवर्णम् आराद्धसिद्धान्तसुरीवरीयःप्रसादजस्वप्नमधोर्महिम्ना । सौघाऽजनि प्रागकरीरसंज्ञा (2) वीरुल्लन्नद्य कवित्वपुष्पः ॥१४९॥ Jain Education International ॥ १५०॥ ॥१५१॥ श्रीमन्दिरत्नाख्यगुरुप्रसादप्रासादवासाप्तसुखः स चेदम् । सारस्वतोल्लास इति प्रतीतं स्फीतं गुणैरातनुते स्म काव्यम् ॥१५२॥ सन्तु स्तनन्धयधियोऽध्ययनाय बद्धमेतन्मुखाब्जमणिमण्डनतां नयन्तः । श्रीभारतीति थि (स्ति) मिताक्षरमन्त्रबीजप्रष्ठप्रसादमधिगम्य कविप्रकाण्डाः ॥१५३॥ इति सारस्वतोल्लासकाव्यम् ॥ श्रीः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118