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समन्वय
विरोधी युगलों का सह-अस्तित्व
वस्तु का स्वभाव है-विरोधी धर्म-युगलों का होना । वस्तु का स्वभाव है उन विरोधी धर्म-युगलों का सह-अस्तित्व । प्रश्न होता है, वह कैसे सम्भव माना जाए? दो विरोधी धर्म एक ही वस्तु में, एक साथ रहें, यह कैसे हो सकता है ? यह जटिल समस्या है। किंतु वस्तु-स्वभाव में जटिलता नहीं होती । इस जगत् में ऐसा कुछ भी नहीं है जो सर्वथा विरोधी हो, सर्वथा विलक्षण या भिन्न हो। अनेकान्त की यह महत्त्वपूर्ण खोज है कि कोई भी तत्त्व सर्वथा सदृश नहीं होता और कोई भी तत्त्व सर्वथा विसदृश नहीं होता। वह सर्वथा समान भी नहीं होता और सर्वथा असमान भी नहीं होता। हम जिसको सदृश या समान मानते हैं, वह विसदृश और असमान भी है। हम जिसको भिन्न मानते हैं, वह अभिन्न भी है। केवल स्थूल या व्यक्त पर्यायों के आधार पर हम सदृश या विसदृश, समान या असमान, भिन्न या अभिन्न कह देते हैं। किन्तु जब हम सूक्ष्म जगत् में जाते हैं, सूक्ष्म नियमों का अध्ययन करते हैं तब ज्ञात होता है कि हमारी धारणा मिथ्या है। वहां सारे नियम बदल जाते हैं। हमारी धारणाएं स्थूल व्यक्त पर्यायों के आधार पर बनी होती हैं । अव्यक्त का संसार जब हमारे सामने प्रगट होता है, अज्ञात का जगत् जब हमारे सामने ज्ञात होकर उभरता है, तब सूक्ष्म नियम हमारी समझ में आते हैं और सारी स्थूल धारणाएं बदल जाती
तीनों एक .
प्रकाश, शब्द और रंग-ये तीन हैं । हम प्रकाश को अलग मानते हैं, शब्द को अलग मानते हैं और रंग को अलग मानते हैं। किन्तु कोई वैज्ञानिक इनको अलग नहीं मानता। शब्द अर्थात् ध्वनि और रंग अर्थात् वर्ण । ये दोनों प्रकाश के ही प्रकम्पन हैं । भिन्न-भिन्न आवृत्तियों (फ्रीक्वेन्सी) पर ये प्रकम्पन बनते हैं और प्रकाश, ध्वनि या वर्ण के रूप में गृहीत होते हैं। वर्ण (रंग) प्रकाश का उनचासवां प्रकम्पन है। ध्वनि भी प्रकाश की ही अमुक फ्रीक्वेन्सी है, प्रकम्पन है। ध्वनि और रंग दो नहीं हैं। रंग को सुना जा सकता है, ध्वनि को देखा जा सकता है। रंग को सुनने
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