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अनेकान्त है तीसरा नत्र
ही हो सकता है। किन्तु नाम-रूप की गुत्थी तब तक नहीं सुलझती जब तक अनेकान्त की दृष्टि विकसित नहीं होती, अनेकान्त की तीसरी आंख नहीं खुलती। आचार्य हरिभ्रद ने कहा
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कालिदाषु ।
युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ।' -महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नहीं है और सांख्यमत के प्रवर्तक कपिलऋषि के प्रति मेरा द्वेष नहीं है। महावीर मेरे मित्र नहीं हैं और कपिल मेरे शत्रु नहीं हैं। जिनका वचन युक्तिसंगत है, वही मुझे मान्य है। __ यह बात अनेकान्त के आलोक में ही कही जा सकती है। यह बात वही व्यक्ति कह सकता है, जिसके जीवन में अनेकान्त फलित है, जिसकी तीसरी आंख उद्घाटित
आचार्य हरिभ्रद का एक ग्रन्थ है-शास्त्रवार्ता समुच्चय । इस ग्रन्थ में उन्होंने विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों का समन्वय किया है। इस प्रयास से उन्होंने अनेकान्तदृष्टि को बहुत व्यापक बना दिया।
जिसमें अनेकान्त की प्रज्ञा जाग जाती है, तीसरा नेत्र खुल जाता है, उसके सामने कोई बात मिथ्या नहीं होती। उसके समक्ष सत्य और असत्य की कसौटी यह होती है-जो कथन सापेक्ष है वह सत्य है और जो कथन निरपेक्ष है, अपेक्षा से शून्य है, वह असत्य है। इसके अतिरिक्त उसमें कुछ नहीं होता। इस कसौटी के आधार पर ही वह एक विचार को मान्य करता है या अमान्य करता है । वह यह नहीं देखता कि यह विचार कहां से आ रहा है ? कौन है इस विचार का प्रवर्तक, वह नहीं सोचता। वह केवल यही देखता है कि जो बात कही जा रही है वह सापेक्ष है या निरपेक्ष । यदि सापेक्ष है तो मान्य है, यदि निरपेक्ष है तो अमान्य है।
काल की इस लंबी अवधि में आचार्य सिद्धसेन, आचार्य समन्तभद्र, आचार्य वादिदेवसूरि, आचार्य हेमचन्द्र आदि महान आचार्यों ने अनेकान्तदृष्टि का बहत व्यापक सन्दर्भ में प्रयोग किया और तीसरे नेत्र के उद्घाटन की बहुत संभावनाएं प्रगट कर दी।
आज और अधिक संभावनाएं हैं, क्योंकि आज का ज्ञान का क्षेत्र बहुत व्यापक हो चुका है। दर्शन और यथार्थ
प्राचीनकाल में दर्शन की अनेक शाखाएं प्रचलित थीं। हर पहलू पर दर्शन की
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