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तीसरा नेत्र (२)
का उपयोग न करे तो वह पहले ही हार जाता है । वहां तर्क के आधार पर ही सारे निर्णय होते हैं । न्यायाधीश बलवान् तर्क को महत्व देकर निर्णय देता है।
केस चल रहा था। एक्सीडेन्ट में एक आदमी का हाथ टूट गया। वह हरजाना पाना चाहता था। न्यायाधीश ने पूछा-तुम्हारे हाथ में चोट आई है ?
हां, माई लार्ड। हड्डी नहीं टूटी? नहीं टूटी । परन्तु दर्द बहुत है। हाथ उठता ही नहीं। क्या पहले हाथ उठता था? हां, पूरा उठता था। कितना उठता था? उसने तपाक से हाथ ऊंचा कर दिया। न्यायाधीश ने केस खारिज कर दिया। हरजाना नहीं मिला।
यदि तर्क न हो तो न्यायाधीश कुछ भी निर्णय नहीं कर सकता। तर्क न हो तो वादी, प्रतिवादी का खण्डन नहीं कर सकता। तर्क और बुद्धि-दोनों आवश्यक हैं । यदि ये दोनों न हों तो मनुष्य फिर उसी आदिमयुग में चला जाएगा जहां न बुद्धि का विकास था और न तर्क का। इनके अभाव में आदमी हजारों-हजारों कठिनाइयां सहता चला जा रहा था। आज मनुष्य बुद्धि और तर्क का विकास कर अपनी विकास की सीमा को बहुत आगे ले गया है। वह एक मंजिल पार कर चुका है। बैल हजारों वर्षों से बैलगाड़ी खींचता रहा है, आज भी खींच रहा है और सम्भव है भविष्य में भी खींचता रहेगा। उसने कुछ भी विकास नहीं किया है, क्योंकि उनमें न बुद्धि है और न तर्क । वह जहां था, वहीं है, वहीं रहेगा। मनुष्य ने अपने बुद्धिबल और तर्कबल के द्वारा उस पशुता की मंजिल को पार कर लिया है। मैं नहीं कहता कि बुद्धि और तर्क सर्वथा व्यर्थ है। किन्तु यही सब कुछ है, ऐसा नहीं मानना चाहिए। इससे आगे भी एक दुनिया है । वह दुनिया है, अध्यात्म की। वह संसार है अनेकान्त का। जो समस्याएं तर्क और बुद्धि के द्वारा नहीं सुलझाई जा सकतीं, उन समस्याओं का समाधान अन्तर्प्रज्ञा के द्वारा हो सकता है। उन समस्याओं का समाधान अन्तर् चक्षु और तीसरे नेत्र द्वारा हो सकता है, अनेकान्त की चेतना के विकास से हो सकता है। अनेकान्त की चेतना जब जाग जाती है, तब तटस्थता जीवन में घटित होती है। फिर किसी के प्रति पक्षपात नहीं होता । बुद्धि के प्रति पक्षपात होता है । तर्क के प्रति पक्षपात होता है । बुद्धि और तर्क का क्षेत्र पक्षपात से रहित नहीं हो सकता । बौद्धिक और तार्किक आदमी अपना समर्थन और दूसरे का खण्डन करने में रस लेता है।
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