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आशावादी दृष्टिकोण
१६१ ध्यान कर घर जाते हैं तो वे लोग कहते हैं-हमने यह कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसा हो सकता है । कल्पना की बात ही नहीं थी, कल्पना कैसे की जा सकती है। एक दूर खड़ा आदमी कैसे कल्पना कर सकता है ? यह कल्पना का विषय ही नहीं है। जिसने स्वयं डुबकी नहीं लगाई, जिसने स्वयं गोता नहीं लगाया, वह ध्यान के आनन्द का या परिणाम की कल्पना कैसे कर सकता है ? समुद्र के तट पर खड़ा रहने वाला व्यक्ति कैसे कल्पना कर सकता है कि समुद्र की कितनी गहराई है। जिसने स्वयं डुबकी लगाई है, गोता लगाया है, वह समझ सकता है कि समुद्र के भीतर में क्या है ? हम अपने बाहरी स्वरूप को जानते हैं, भातरी स्वरूप को नहीं जानते। बहुत लोगों का जीवन बाहरी शरीर के स्वरूप-बोध में ही बीत जाता है। कभी उन्हें भीतर जाने का मौका ही नहीं मिलता। लोग सोचते हैं कि शल्य-चिकित्सक को शरीर के भीतरी स्वरूप को देखने का मौका मिलता है। वह भीतर के सारे भाग देख लेता है। नहीं, वह सारा देख नहीं पाता। वह नहीं जानता कि भीतर में क्या है? भीतर के तत्त्वों का ज्ञान उसी व्यक्ति को हो सकता है जो ध्यान की गहराई में जाता है, अध्यात्म की चेतना में डुबकियां लेता है। शरीर-प्रेक्षा करने वाले कई लोग स्पन्दनों को देखकर घबरा जाते हैं । कहां गए थे स्पन्दन ? क्या वे नए पैदा हुए हैं? नए नहीं हैं। वे भीतर ही थे, सारे के सारे । वे निरन्तर काम कर रहे हैं। शरीर की विद्यत भी कार्यरत है। किन्तु जैसे-जैसे हम एकाग्र होते हैं, उनका पता लगने लगता है और आदमी घबरा जाता है। उसे लगता है, सारा शरीर झनझना रहा है। कोई नई दुनिया सामने आ गई है। पहले भी ये सारे स्पन्दन कार्यरत थे, पर उनकी आवाज कानों तक नहीं पहुंच रही थी, जैसे ही बाहर आवाज को ग्रहण करने के लिए कान बन्द हुए कि भीतर की आवाज बाहर तक सुनाई देने लगी। जैसे ही मन की चंचलता कम हुई तो भीतर का स्पर्श होने लगा। भीतर की विचित्रता का अनुभव कर आदमी घबरा गया। घबराना अस्वाभाविक नहीं है। हम बाहरी संसार से बहुत परिचित हैं, परन्तु भीतरी जगत् से उतने परिचित नहीं हैं।
अध्यात्म की साधना का एक ही काम है कि वह साधक को भीतर के जगत से परिचित करा देती है।
हमारा बाहर का परिचय कुछ कम हो, भीतर का परिचय बढ़े। इसमें भी संतुलन आए। दूसरों के प्रति कम जागें, अपने प्रति अधिक जागना शुरू करें। दूसरों को कम जाने, अपने आपको अधिक जानें । यदि ऐसा घटित होता है तो हमारी चेतना में गंभीर परिवर्तन शुरू हो जाता है, व्यक्तित्व में पूरा रूपान्तरण हो जाता है।
ध्यान, अभ्यास बदलने का पहला बिन्दु है । यह पूरा नहीं है। आखिरी बिन्दु
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