Book Title: Anekanta hai Tisra Netra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 123
________________ १२२ अनेकान्त है तीसरा नेत्र की भी व्यवस्था है। बच्चे पर नियन्त्रण होता है । पल-पल उसका ध्यान रखना पड़ता है। परन्तु जब वह १८-२० वर्ष का हो जाता है तब नियन्त्रण का पहलू बदल जाता है। फिर उतना नियन्त्रण अपेक्षित नहीं लगता। नियन्त्रण और अनियन्त्रण-दोनों सापेक्ष है। बड़ा हो जाने पर भी यदि बुद्धि और विवेक का जागरण नहीं है तो नियन्त्रण जरूरी होता है । बुद्धि और विवेक के जागने पर नियन्त्रण ढीला हो जाता है, समाप्त हो जाता है। इन्द्रियों पर भी यह सापेक्ष सिद्धांत लागू होता है। इन्द्रियों पर नियंत्रण करना आवश्यक होता है और नियन्त्रण करना अनावश्यक भी होता है । जब तक वृत्तियां शांत नहीं होती, तब तक इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना आवश्यक होता है। जब वृतियां शांत हो जाती हैं तब इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना आवश्यक नहीं होता। आंख बन्द करना जरूरी नहीं है। किन्तु जब दृष्टि बहुत कष्ट देती है तब आंख बंद करना आवश्यक हो जाता है। पर्दा-प्रथा इसलिए चली कि आंख पर नियन्त्रण हो । आज स्त्रियां पर्दा करती हैं, किन्तु रामायणकालीन समाज-व्यवस्था में राक्षस पुरुष पर्दा करते थे। स्त्री को पर्दे की क्या जरूरत है ? अनियन्त्रण तो मनुष्य में है और पर्दा करें स्त्रियां ! यह कैसी विडम्बना ! बीमार है कोई और दवा ले कोई। पर्दा वह करे जिसका अपने आप पर नियन्त्रण नहीं है। आंख में विकार है तो पर्दा आवश्यक है। सम्भव है आज मनुष्यों की अपेक्षा उस समय के राक्षसों ने समझदारी से काम लिया था। उन्होंने पर्दे की व्यवस्था पुरुषों के लिए की, स्त्रियों के लिए नहीं की। नियन्त्रण जरूरी है जब वृत्तियां शांत न हों। जब वृत्तियां शांत हो जाएं तब आंख खुली रहे, कान खुले रहें, सब कुछ खुला रहे, कोई खतरा नहीं होता। कोई नियन्त्रण या नियम अपेक्षित नहीं है तब। __ आगम साहित्य में कल्प की व्यवस्था है। जिनकल्प, स्थविरकल्प आदि की व्यवस्था है। कोई साधक साधना शुरू करता है। इसके लिए नियमों की व्यवस्था है । व्यवस्थाएं प्रारम्भ में होती है । प्रारम्भ में व्यवस्थाएं अधिक होती हैं, आंतरिकता कम । जैसे-जैसे साधना का विकास होता है, व्यवस्था कम होती चली जाती है और आंतरिकता बढ़ती चली जाती है। एक वर्ष का साधक जितने नियमों का पालन करता है, उतने नियम पचास वर्ष के साधक के लिए नहीं होते। साधना करते-करते साधक कल्पातीत अवस्था में पहुंच जाता है। वह कल्प से अतीत हो जाता है, वह व्यवस्था और नियमों से अतीत हो जाता है। उसके लिए कोई आचार-संहिता नहीं होती। उसके लिए कोई बाह्य नियन्त्रण, नियमों का नियन्त्रण नहीं होता। वह सर्वथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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