________________
१२८
अनेकान्त है तीसरा नेत्र
होने वाली शरीर की बीमारी भी समाप्त हो जाती है। किन्तु ध्यान से सभी बीमारियों का उन्मूलन कैसे हो सकता है? यह सम्भव नहीं है। मच्छर काटा। मलेरिया ज्वर हो गया। वह मन की बीमारी तो नहीं हैं। ध्यान से यह कैसे मिटेगी। ___“सर्व सर्वात्मकम्", “असर्व असर्वात्मकम्"-सबसे सब कुछ हो जाता है या एक से सब कुछ हो जाता है। अनेकान्त इसे सच्चाई नहीं मानता। एक में सब कुछ करने की क्षमता नहीं होती। सब में सब कुछ करने की क्षमता नहीं होती। मर्यादा का या सीमा का बोध बहुत जरूरी है।
प्रत्येक साधना की सीमा है। प्रत्येक कार्य की अपनी सीमा है। सीमा-बोध होने पर कोई कठिनाई नहीं होती।
कुछेक व्यक्ति एकांगी दृष्टिकोण से सोचते हैं कि ध्यान का प्रयोजन ही क्या है? निकम्मे होकर बैठने से क्या फलित होता है? यह एकांगी दृष्टिकोण है । एकांगी दृष्टिकोण में प्रत्येक समस्या विकट बन जाती है। जिस व्यक्ति ने ध्यान का अनुभव ही नहीं किया, जिसने ध्यान में प्रवेश ही नहीं किया, जिसने ध्यान का मूल्यांकन ही नहीं किया, उसके लिए ध्यान निठल्लापन है। इसके अतिरिक्त कछ नहीं है। जिस व्यक्ति ने इसका मूल्यांकन और अभ्यास किया है उसे यह लगता है कि जीवन की जितनी सार्थकता और सफलता है, वह है ध्यान। ध्यान से सारी शक्तियां जाग जाती हैं। तीसरी दृष्टि-अपनी दृष्टि
जब मैं अनेकान्त की व्यख्या कर रहा हूं और अनेकान्त को एक जीवन-दर्शन के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूं तो हमें दोनों दृष्टियों से देखना होगा। केवल दोनों दृष्टियों से ही नहीं, किन्तु एक तीसरी दृष्टि से भी देखना होगा। वह तीसरी दृष्टि होगी अपनी दृष्टि । उसका अर्थ है-द्वन्द्व को मत देखो। द्वन्द्व से परे भी कुछ है, उसे देखो। लाभ और अलाभ के द्वन्द्व में जीने वाला कभी समस्या को नहीं सुलझा सकता है। समस्या को वही व्यक्ति सुलझा सकता है जो लाभ और अलाभ से परे की बात देखता है, तीसरी दृष्टि से देखता है। वह है समता की बात । इससे लाभ और अलाभ नीचे रह जाता है। उससे आगे की भूमिका लाभातीत और अलाभातीत की भूमिका है । उस स्थिति में ये द्वन्द्व नहीं सताते, उनका अर्थ समाप्त हो जाता है। लाभ और अलाभ ये दोनों शब्द भी समाप्त हो जाते हैं। वहां केवल अनुभव बचता है, केवल चैतन्य रह जाता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org