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सापेक्ष-मूल्यांकन
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में चला जाएगा? अविकसित और अव्यक्त चेतना वाला जीव केवली बन जाएगा, कौन जानता था? यह आदितीर्थंकर ऋषभ की मां मरुदेवा के साथ घटित हआ। यदि हम केवल व्यक्त पर्याय, वर्तमान की पर्याय को ही मानकर चलें तो ऐसा होना कभी संभव प्रतीत नहीं हो सकता। यह सारा अव्यक्त पर्याय के आधार पर हुआ है, होता है।
यह एक निश्चित तथ्य है कि अस्तित्व भी स्वगत है और नास्तित्व भी स्वगत है। कैवल्य का अस्तित्व भी स्वगत है और कैवल्य का नास्तित्व भी स्वगत है। शक्ति का अस्तित्व भी स्वगत है और नास्तित्व भी स्वगत है। आनन्द का अस्तित्व भी स्वागत है। इन दोनों स्थितियों का सापेक्ष मूल्यांकन होना चाहिए। हमें दोनों की सीमा का सम्यग् अवबोध होना चाहिए। सीमा को समझना, सीमा का बोध करना बहुत आवश्यक है।
स्व की सीमा है अनुभव और पर की सीमा है विकल्प। मनुष्य जब तक विकल्प में जीता है, वह पर में जीता है, व्यवहार में जीता है। जब उसका अनुभव जागता है, अनुभव की चेतना का जागरण होता है, अनुभव में जीता है तब स्व की सीमा में आ जाता है । विकल्प और अनुभव
चेतना के दो स्तर हैं-विकल्प और अनुभव। मनुष्य अधिकांशत: विकल्प का जीवन जीता है । निरन्तर कल्पनाएं और विकल्प मन में उठते हैं, प्रगट होते हैं, तिरोहित होते हैं। एक विकल्प शांत होता है, दूसरा विकल्प जाग जाता है। दूसरा विकल्प शांत होता है, तीसरा जाग जाता है। यह क्रम टूटता ही नहीं। हमारे जीवन की सारी यात्रा विकल्प की गाड़ी पर बैठे-बैठे होती है ।हमें निर्विकल्प रहने का अभ्यास ही नहीं है। अनुभव का हमें अभ्यास ही नहीं है। उसको हम नहीं जानते। चेतना का नाम है अनुभव। अनुभव शांत समुद्र है। उसमें विकल्प नहीं होते। विकल्प पानी को गंदला बना देता है, उत्तेजित और प्रकंपित कर देता है । समुद्र को शांत नहीं रहने देता।
एक साधक ध्यान कर रहा था। उसने शिष्य से कहा-पानी पीना है, नदी का पानी ले आओ। शिष्य खाली हाथ लौटा। पूछने पर बोला-पानी गंदला हो गया है, क्योंकि-अभी अभी नदी में से अनेक बैलगाड़ियां गुजरी हैं। कुछ देर ठहरा। दो-तीन बार नदी पर गया, परन्तु पानी अभी गंदला ही था। मिट्टी अभी तक तल में जमी नहीं थी। चौथी बार गया। स्वच्छ पानी से लोटा भर ले आया। गुरु ने
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