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तीसरा नेत्र (२)
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लेते हैं। इनके सक्रिय होने पर स्राव बदल जाते हैं। ध्यान, एकाग्रता, निर्मलचित्त
और संकल्प के द्वारा स्राव नियन्त्रित होता है। वह नीचे नहीं जाता। जब वह स्राव नीचे नहीं जाता तब “काम" का दहन अपने आप हो जाता है। यह काम-दहन की बात या तीसरे नेत्र की बात अनेकान्त के बिना समझ में नहीं आ सकती। साधना का अनेकान्त
परिस्थिति ही सब कुछ नहीं है। उस पर भार डाल देना उचित नहीं है। परिस्थिति को मिटाया जा सकता है । वह मिट जाएगी, किन्तु भीतर जो भाव-संस्थान है वह कैसे मिटेगा।
- भगवान् महावीर से पूछा-भंते ! कुछ लोग कहते हैं कि साधना गांव में नहीं हो सकती। वह जंगल में, एकान्त में ही हो सकती है। क्या साधना क्षेत्र-प्रतिबद्ध
महावीर ने कहा-“वत्स ! साधना गांव में भी हो सकती है, जंगल में भी हो सकती है। साधना गांव में भी नहीं हो सकती, जंगल में भी नहीं हो सकती।"
यह है साधना का अनेकान्त । इसी सूत्र को एक आचार्य ने इस भाषा में गूंथा
“रागद्वैषौ विनिर्जित्य, किमरण्ये करिष्यसि ?
रागद्वैषौ अनिर्जित्य, किमरण्ये करिष्यसि ?" -यदि तुमने राग और द्वेष को जीत लिया तो जंगल में जाकर क्या करोगे? यदि तुमने राग और द्वेष को नहीं जीता है तो जंगल में जाकर क्या करोगे?
मूल बात है कि हम अनेकान्त की दृष्टि से सारी समस्याओं पर विचार करें। समस्या चाहे व्यवहार की हो या अध्यात्म की, समाज की हो या राजनीति की, ये सारी समस्याएं अनेकान्त के आधार पर सुलझाई जा सकती हैं। एकान्त दृष्टि से समस्याएं सुलझती नहीं, उलझती हैं। व्यक्ति में एक भ्रम पैदा हो जाता है, वह सोचता है–समस्याओं का कर्ता मैं नहीं हूं। मैं तो समस्याओं से बचता हूं । समस्या किसी दूसरे द्वारा कृत है । यह बड़ा भ्रम पैदा हो जाता है।
पति ने पत्नी से कहा-नीचे से आवाज आ रही है । लगता है, मित्र मुझे बुला रहा है। तुम नीचे जाकर कह दो कि मैं घर नहीं हूं। पत्नी बोली-आप तो कभी झूठ नहीं बोलते। आज मेरा विश्वास खण्डित हो गया। पति बोला—मैं झूठ नहीं बोलता इसीलिए तो तुमसे कह रहा हूं, अन्यथा मैं स्वयं जाकर कह देता।
जहां दृष्टि एकांगी होती है, जहां पूरा चित्र सामने नहीं आता, वहां आदमी उलझ
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