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अनेकान्त है तीसरा नेत्र
जाता है । वह निर्णय नहीं कर पाता कि वह क्या कर रहा है। वह अपनी ही भाषा में स्वयं उलझ जाता है
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हम अनेकान्त की दृष्टि को समझें । अनेकान्त तीसरा नेत्र है । यह भृकुटि के मध्य में स्थित तीसरे नेत्र से भी बड़ा नेत्र है । जब तक यह नेत्र सक्रिय नहीं होता, जब तक अनेकान्त की दृष्टि नहीं जागती तब तक कुछ भी सम्यक् नहीं हो सकता । हमारी चेतना का व्यवहार सम्यक् नहीं हो सकता ।
तीन दृष्टियां
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दृष्टियां तीन हैं – सम्यक् दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यक् - मिथ्यादृष्टि । मिथ्यादृष्टि भी हमें प्रभावित करती है और सम्यक् - मिथ्यादृष्टि भी हमें प्रभावित करती है। इन दोनों से हम सच्चाई को पकड़ नहीं सकते। जब हम इन दोनों में हटकर तीसरी भूमिका – सम्यक् दृष्टि की भूमिका में जाते हैं तब अनेकान्त की चेतना का उदय होता है । इसका भी शरीरशास्त्रीय कारण है । हमारे मस्तिष्क में हाइपोथेलेमस के दो प्रकार के विशेष हारमोन्स होते हैं - एक है मेलाटोनिन और दूसरा सेराटोनिन I ये रसायन हमारे चरित्र को प्रभावित करते हैं । ये हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित करते हैं । कर्म-शास्त्र की भाषा में मोहनीय कर्म हमारी चेतना को प्रभावित करता है, मूर्च्छित करता है । यदि ये मूर्च्छा के परमाणु न हों तो हमारी चेतना विकारग्रस्त नहीं हो सकती । हमारी चेतना अनन्त, अनन्त और असीम है, विराट् है । उसमें देश और काल की सीमा नहीं हो सकती । हम अबाधगति से पूरी सच्चाई को जान सकते हैं, किन्तु ये दो रसायन हमारे चरित्र को बहुत प्रभावित करते हैं । मेलाटोनिन रसायन चारित्रिक विकृति पैदा करता है । काम-वासना, क्रोध, भय — इन सब आवेशों के लिए उत्तरदायी है वह रसायन । दूसरा रसायन सेराटोनिन भी चेतना को अत्यधिक प्रभावित करता है । वह दृष्टि पर प्रभाव डालता है । उसका मुख्य कार्य है— मस्तिष्क की चेतना को संकुचित करना । वह सघनता से फैल जाता है और चेतना पर आवरण बन जाता है।
मादक वस्तुओं का कुप्रभाव
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आज एल. एस. डी. बहुचर्चित है । आज के युग में जीने वाला, यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला, इसका नाम और प्रयोग न जाने, यह कैसे संभव हो सकता है । विश्वविद्यालय के. परिसर में, साधना-केन्द्रों में, योग साधना और अध्यात्म के नाम से चलने वाली साधना की प्रवृत्तियों के आसपास एल. एस. डी. का प्रयोग मुक्तभाव से किया जाता है । यह इसलिए किया जाता है कि एक बार के प्रयोग से ही आदमी मूर्च्छा में चला
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