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अनेकान्त है तीसरा नेत्र
होते हैं वहां विवाद अवश्यंभावी है। एक में कोई विवाद या संघर्ष नहीं होता है। दो होते ही विवाद प्रारम्भ हो जाता है । संस्कृत में “दो” का वाचक शब्द है—द्वन्द्व । इसके दो अर्थ होते हैं । एक है संख्यावाचक दो और दूसरा है-कलह, युद्ध, संघर्ष । दो होने का अर्थ है-लड़ाई, संघर्ष । लोग पूछते हैं—पति-पत्नी दो हैं। दो हैं का अर्थ है लड़ाई का होना। यह विश्व का नियम है। दो हों और लड़ाई न हो तो आश्चर्य माना जा सकता है। इसीलिए ईश्वरवादियों ने एक ही ईश्वर माना, जिससे कोई लड़ाई न हो, कोई विवाद न हो।
सत्य के लिए भी एक का होना जरूरी है । व्यवस्था दी गई कि वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, किन्तु उनमें एक धर्म मुख्य होगा और शेष सारे गौण होंगे। एक धर्म व्यक्त होगा और शेष सारे धर्म अव्यक्त होंगे। बहुत ही सुन्दर व्यवस्था है। प्रकृति की भी यही व्यवस्था है। आदमी चलता है तब क्या दोनों पैर साथ-साथ उठते हैं ? नहीं, ऐसा कभी नहीं होता। दोनों पैर साथ उठे तो चलना संभव ही नहीं, नियम यह है, एक पैरआगे बढ़ेगा तो दूसरा पैर पीछे खिसक जाएगा। यही गति का क्रम है। आज तक किसी ने इस नियम का अतिक्रमण कर गति नहीं की । गति होगी तो इसी क्रम से, अन्यथा स्थिति होगी, गति नहीं। एक पैर को ऊंचा कर खड़ा रहा जा सकता है। दोनों पैरों को ऊंचा कर खड़ा नहीं रहा जा सकता। आचार्य अमृतचन्द्र ने एक सुन्दर श्लोक लिखा है
'एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्ततत्त्वमितरेण
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी॥' ग्वालिन बिलौना करती है तो एक हाथ आगे जाता है और दूसरा पीछे खिसक जाता है और जब दूसरा आगे जाता है तो पहला पीछे चला जाता है । इसी क्रम से मक्खन मिलता है। दोनों हाथ यदि एक साथ आगे या पीछे चले तो बिलौना नहीं होगा, नवनीत नहीं मिलेगा। ___ लोकतंत्र का विकास इसी गौण-मुख्य व्यवस्था के आधार पर हुआ था। एक व्यक्ति मुख्य बनता तो शेष गौण होकर पीछे चले जाते । दूसरा कोई मुख्यता में आता तो पहले वाला पीछे खिसक जाता। यह उचित व्यवस्था है। जब एक कुर्सी पर सौ आदमी बैठना चाहें तो लोकतंत्र की व्यवस्था टूट जाती है।
अनेकान्त का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है-एक मुख्य होगा, शेष सारे गौण हो जाएंगे। इसी आधार पर सापेक्षता का विकास हुआ। जो मुख्य होगा, वह दूसरों की अपेक्षा कर चलेगा। वह कभी निरपेक्ष होकर नहीं चलेगा। सब उसके साथ जुड़े
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