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समन्वय
का पर्याय प्रगट हो सकता है। आज दुःख का पर्याय अभिव्यक्त हुआ है तो कल सुख का पर्याय अभिव्यक्त हो सकता है। जिस व्यक्ति में इस संभावना को मानने की क्षमता होती है वह कभी दुःखी नहीं होता, वह कभी रोगी नहीं होता । वह कभी खाट पर पड़े-पड़े जीवन नहीं बिता सकता । वह अपनी सोयी शक्ति को जगा लेता
संस्कृत साहित्य में एक कथा आती है। एक विद्वान् राजा के पास आकर बोला- 'राजन् ! अभिवादन स्वीकार करें । मैं आपके आतिथ्य में आया हूं ।' राजा ने कहा—'किसने निमंत्रण दिया, किसने बुलाया, ऐसे फटेहाल व्यक्ति को?' उसने कहा-'महाराज । मैं आपका भाई हूं। मुझे निमंत्रण की क्या आवश्यकता है?' राजा सहम गया। पूछा-'मेरे भाई कैसे? मूर्ख हो तुम । पागल हो तुम।' उसने कहा—'महाराज ! आपने मुझे पहचाना नहीं । मैं आपका मौसेरा भाई हूं, सगा नहीं।' राजा ने कहा-‘बात समझ में नहीं आई।' उसने कहा
"आपदा च मम माता, तव माता च सम्पदा ।
आपत् सम्पदे भगिन्यौ, तेनाहं तव बान्धवः ।।" 'राजन् ! मेरी मां का नाम है आपदा और आपकी मां का नाम है सम्पदा। आपदा और सम्पदा-दोनों सगी बहनें हैं। में आपकी मौसी आपदा का लड़का हूं। आपका मौसेरा भाई हूं।'
राजा उस ब्राह्मण की उक्ति पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसे भरपूर पुरस्कार देकर भाई-सा बना डाला। अनेकान्त है जीवन दर्शन - कुछ भी अलग नहीं है । सब कुछ जुड़ा हुआ है । सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद, सर्वथा विरोध या सर्वथा अविरोध, सर्वथा अपना या सर्वथा पराया-यह केवल विपर्यय है, यथार्थ नहीं। यदि हमें यथार्थ के साथ रहना है तो हमें जीवन और व्यवहार में अनेकान्त-दृष्टि को विकसित करना होगा। सबसे बड़ी भूल यह हुई कि हमने अनेकान्त को तत्त्ववाद मान लिया। यही मान लिया कि तत्त्व की व्याख्या में ही अनेकान्त का उपयोग होता है । यह भूलभरी मान्यता है । जो व्याख्या जीवन के साथ नहीं जुड़ती, वह तत्त्व के साथ भी नहीं जुड़ सकती । जीवन भी तो एक तत्त्व है। वह महान् तत्त्व है । सारी व्याख्याएं उसी से निकलती हैं। सारे सिद्धांत, धारणाएं
और वाद उसी में से निकलते हैं। जीवन से अलग-थलग किसी तथ्य या तत्त्व की व्याख्या नहीं हो सकती। जिस तत्त्व का जीवन के साथ कोई स्पर्श ही नहीं होता,
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