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अनेकान्त-57/1-2
द्रव्य में एक-अनेक नित्यानित्यपने की व्यवस्था को दर्शाने के लिए ही स्तुति के माध्यम से अपने आराध्य में एकत्व अनेकत्व नित्यानित्यत्व दर्शाया गया है
अनेकोsपि प्रपद्य त्वामेकत्वं प्रतिपद्यते ।
एकोऽपि त्वमनेकत्वमनेकं प्राप्त गच्छसि 18 / 11
अर्थात् अनेक भी आपको प्राप्त कर एकपने को प्राप्त होता है और आप एक होकर भी अनेक को प्राप्त कर अनेकपने को प्राप्त हो रहे हैं ।
यहाॅ स्पष्ट है कि गुण और पर्याय संख्या की अपेक्षा अनेक हैं तथा एक द्रव्य में अवस्थित रहते हैं उसकी अपेक्षा एक है I
साक्षादनित्यमप्येतघाति त्वां प्राप्य नित्यताम् ।
त्वं तु नित्योऽप्यनित्यत्वमनित्यं प्राप्य गाहसे 1/19/11/ लघु तत्त्व
यह पर्याय रूप तत्त्व साक्षात् अनित्य होकर भी द्रव्य स्वरूप आपको प्राप्त कर नित्यपने को प्राप्त होता है और आप नित्य होकर भी अनित्यरूप पर्याय को प्राप्तकर अनित्यपने को प्राप्त होते हैं ।
यह वास्तविक सिद्धान्त है कि द्रव्य पर्याय से तन्मय होकर रहता है द्रव्य की कालिक शुद्धता इसी से बाधित होती है। जब पर्याय को गौणकर द्रव्य को प्रधान बनाया जाता है तब अनित्यत्व तत्त्व नित्यत्व को प्राप्त होता है और जब द्रव्य को गौणकर पर्याय को प्रधानता दी जाती है तब नित्यत्व अनित्यत्व को प्राप्त होता है ।
प्रत्येक पदार्थ तीन रूप में सत् है । अर्थरूप, ज्ञानरूप और शब्दरूप । ज्ञान का विषय चराचर जगत् है किन्तु ज्ञान तदाधीन नहीं है । न ज्ञान ज्ञेय में जाना है और न ज्ञेय ज्ञान से आता है। दोनों स्वतन्त्र हैं फिर पदार्थ चिन्मय भासित होते हैं । इसी प्रकार शब्दसत्ता पुद्गल पर्यायरूप है तथापि उन शब्दों की वाचक शक्ति आपके ज्ञान के एक कोने में पड़ी रहती है । इसी प्रसंग में बाहूय पदार्थ का अपलाप करने वाले बौद्धों का निराकरण किया गया है।