Book Title: Anekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 14
________________ अनेकान्त-57/1-2 विकल्प समाप्त होने पर जैसे ज्ञान ज्ञेय का अभिन्यपना उत्पन्न होता है उसी प्रकार द्रष्टा और दृश्य का भी अभेद होता है। आत्मा ज्ञान अथवा दर्शन मात्र रूप से सुशोभित होता है जैसा कि स्तुतिकार ने भी कहा है स्वस्यै स्वतः स्वः स्वभिहैकमावं स्वस्मिन् स्वयं पश्यसि सुप्रसभः। अभिभदृग्दृश्यतया स्थितोऽस्मान्न कारकाणीश दृगेव मासि।। 19/9 ।। लघु. हे भगवन्! यहाँ अत्यन्त निर्मलता को प्राप्त हुए आप अपने आपमें अपने आपके लिए अपने आपसे एक अपने आपको अपने आपके द्वारा देख रहे हैं-निर्विकलप रूप से जान रहे हैं। इस प्रकार हे नाथ आप द्रष्टा और दृश्य के अभेद से स्थित हैं इसलिए दृष्टि क्रिया के कारक नहीं है आप दर्शन रूप ही सुशोभित हो रहे हैं। शुद्धात्मा में क्रिया-कारक, काल और देश का विभाग नहीं पाया जाता है। चेतनद्रव्य से ही परिणमन करता है। भाव और भगवान् में अभेद भी होता है। गुण-गुणी में प्रदेश भेद न दिखलाकर स्तुति की है। वस्तु का स्वभाव विधि और निषेधरूप है। स्वचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु विधिरूप होती है और परचतुष्टय की अपेक्षा निषेध रूप होती है। ज्ञान में ज्ञेय है यह विधिपक्ष है और ज्ञान में ज्ञेय नहीं है यह निषेध पक्ष है। "ज्ञान में ज्ञेय का विकल्प आता है" इस अपेक्षा से विधि पक्ष की सिद्धि होती है और "ज्ञान में ज्ञेय के प्रदेश नहीं आते है" इस अपेक्षा से निषेधपक्ष की सिद्धि होती है। जिस प्रकार दर्पण में पड़ा हुआ मयूर का प्रतिबिम्ब दर्पण से भिन्न नहीं है उसी प्रकार ज्ञान में आया हुआ ज्ञेय का विकल्प ज्ञान से भिन्न नहीं है इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय में अभेद है किन्तु दर्पण और मयूर का विचार करते हैं तब दर्पण भिन्न और मयूर भिन्न ज्ञात होता है इसी प्रकार जब ज्ञान और उसमें आने वाले ज्ञेय पदार्थो का विचार किया जाता है तब ज्ञान और ज्ञेय पृथक् पृथक् प्रतीत होते हैं। हे भगवन! आपका ज्ञान अपनी अनन्त सामर्थ्य से समस्त पदार्थो को जानता है आप पदार्थ रूप नहीं होते और पदार्थ आप रूप नहीं होते। आप सदा स्व-पर के विभाग को धारण करते रहते हैं।

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