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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग करता है, विचार कर- वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे दुख देने का विचार करता है, विचार कर-वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे अपने वश में करने की इच्छा करता है विचार कर-वह तेरे जैसे ही प्राणी है, जिसके प्राण लेने की इच्छा करता है, विचार कर-वह तेरे जैसा ही प्राणी है ।'.
'सत्पुरुष इसी तरह विवेक रखता हुआ जीवन बिताता है, न किसी को मारता है, और न किसी की घात करता है ।'
___ 'जो हिंसा करता है उसका फल पीछे भोगना पड़ता है । अतः किसी भी प्राणी की हिंसा करने की कामना न करो ।'
'जैसे मुझे कोई बेंत, हड्डी, कंकर, आदि से मारे, पीटे, ताड़ित करे, तर्जन करे, दुःख दे, व्याकुल करे, भयभीत करे, प्राण-हरण करे तो मुझे दुःख होता है । जैसे मृत्यु से लेकर रोम उखाड़ने तक से मुझे दुःख और भय होता है, वैसे ही सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को होता है- यह सोचकर किसी भी प्राणी, भूत, जीव व सत्त्व को नहीं मारना चाहिए, उस पर हुकूमत नहीं करनी चाहिए । यह धर्म ध्रुव और शाश्वत है । पाश्चात्य विद्वान जे.एस. मिल ने कहा कि पड़ौसी को आत्मवत् समझो और गांधीजी के अनुसार जैसी अपेक्षा दूसरों से अपने लिए करते हो वैसा ही वर्ताव उनके प्रति करो । आत्मौपम्य दृष्टि की सार्थकता यही है । - अहिंसा का शब्दानुसारी अर्थ है - हिंसा न करना । न+हिंसा-इन दो शब्दों से अहिंसा शब्द बना है । इसके पारिभाषिक अर्थ निषेधात्मक एवं विध्यात्मकदोनों हैं । राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना, प्राण-वध न करना या प्रवृत्ति मात्र का निरोध करना निषेधात्मक अहिंसा है । सत्-प्रवृत्ति करना, स्वाध्याय, अध्यात्मसेवा, उपदेश, ज्ञान-चर्चा आदि-आदि आत्महितकारी क्रिया करना विध्यात्मक अहिंसा है। संयमी के द्वारा अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाता है, वह भी निषेधात्मक अहिंसा है यानी हिंसा नहीं है । निषेधात्मक अहिंसा में केवल हिंसा का वर्जन होता है, विध्यात्मक अहिंसा में सत्-क्रियात्मक सक्रियता होती है । यह स्थूल दृष्टि का निर्णय है । गहराई में पहुंचने पर बात कुछ और है । निषेध में प्रवृत्ति और प्रवृत्ति में निषेध होता ही है । निषेधात्मक अहिंसा में सत्-प्रवृत्तिऔर सत्प्रवृत्त्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होता है। हिंसा न करने वाला यदि आन्तरिक प्रवृत्तियों को शुद्ध न करे तो वह अहिंसा नहीं होगी। इसलिए निषेधात्मक अहिंसा में सत्वृत्ति की अपेक्षा रहती हे, वह बाह्य हो चाहे आन्तरिक, स्थूल हो चाहे सूक्ष्म । सत्प्रवृत्त्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होना आवश्यक है। इसके बिना कोई प्रवृत्ति सत् या अहिंसा नहीं हो सकती, यह निश्चय-दृष्टि की बात है । व्यवहार में निषेधात्मक अहिंसा को निष्क्रिय अहिंसा और विध्यात्मक अहिंसा को सक्रिय अहिंसा कहा जाता है ।
1.आचारांग, 1/5/101-103
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