Book Title: Agam Sutra Satik 15 Pragnapana UpangSutra 04
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
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प्रज्ञापनाउपाङ्गसूत्रम्-२-२१/-1-1५१८
“एवं अनुत्तरे' इत्यादि, एवं ग्रैवेयकोक्तेन प्रकारेण अनुत्तरोपपातिकदेवानामपि सूत्रं वक्तव्यं, नवरमुत्कर्षतो भवधारणीयाएकारलिः-हस्तो वक्तव्यः, एतच्चत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकान्प्रति ज्ञातव्यं, येषांपुनर्विजयादिषुचतुषु विमानष्वेकत्रिंशत्सागरोपमाणिस्थितिस्तेषां परिपूर्णौ द्वौहस्ती भवधारणीया, येषांपुनस्तत्रैव मध्यमाद्वात्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिसतेषामेको हस्त एकश्च हस्तस्यैकादशभागो भवधारणीया, येषां पुनस्तत्र सर्वार्थसिद्धमहाविमाने त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि तेषामेको हस्तो भवधारणीया, जघन्या सर्वत्राङ्गुलासमयेयभागमात्रा ।।
तदेवमुक्तानि वैक्रियशरीरस्यापि विधिसंस्थानावगाहनाप्रमाणानि, सम्प्रत्याहारकस्य प्रतिपिपादयिषुराह
मू. (११९)आहरगसरीरेणंभंते! कतिविधे पन्नते?, गो०! एगागारे पं०, जइ एगागारे किंमणूसआहारगसरीरे अमणूसआहारगसरीरे?, गो०! मणूस आहारगसीरे नो अमणूसआ०,
मणूसआहा० किं समुच्छिममणूसआहा० गब्मवक्कंतियमणूसआहा०?, गो० ! नो संमुच्छिममणूसआहा० गभवतियमणूसाआहा०
-जइ गब्भव०म० आ० किंकम्मभूमगग०म० आ० अकम्मभूमगग०म० आ० अंतरदीवगग-०म० आ०?, गो०! कम्मभूमग० नो अकम्मभूमगग० नो अंतरदीवग०, जइ कम्मभूमगग० म० आ०कि संखेजवासाउयक० ग० म० आ० असंखेजवासाउक० ग० म० आ०?, गो०! संखिजवा०क०गब्भ०म० आहारगसरीरे नो असं०क०म० आ०, जति संखे०क० ग०म० आहा० सरीरे किं पजत्तसं० वा० क० ग० म० आ० सरीरे अपजत्तसं० वा०क०ग-म० आ०?, गो-! पजत्तसं०वासा०क० ग०म० आ० नो अपज्जत्तं क० ग० मणू० आ०,
__ -जइ पजत्त० सं० क० ग० म० आ० किं सम्मद्दिडीपज्जत्तगसं०क० ग० म० आ० मिच्छद्दट्ठीप०सं०क०ग०म० आ० सम्मामिच्छद्दिछिपज०सं०क०ग०म० आ०, जइ सम्मद्दिद्विपजत्तसं० वा०क०म०म०आ०किं संजयस०म०सं०क० ग०म० आ० असंजतसम्म० प०सं०क०ग०म० आ० संजयासंजय०प०सं०क० ग० म० आ०?, गो० संजयसम्म० पं० सं०क० ग०म० आ० नो असंजतसम्म०प० आहा० नो संजतासंतसम्म० आहा०,
-जइ संजतसम्म०पं० सं०क०ग०म० आ० किंपमत्तसंजतसम्म०म० आ० अपमतसंजतसम्म० सं०क०ग० म० आ०?, गो०! पमत्तसं० सम्मदिट्ठिप० सं०क० ग० म० आ० नो अपमत्तसं० स०प० सं० क० ग० म० आ०, जइ अपमत्तसं० स०प० सं० क० म० आ०किंइविपत्तप्पमत्तसं०स०क० सं० ग०म० आ० अनिहिपत्तसं०प०क०सं० ग० आ० गो०! इहिपत्त०स०प०सं०क०ग०म० आ० नोअनिहिय० स०प०सं०क० ग०म० आहा०।
___ आहारगसरीरेणं भंते! किंसंठिते पं०?, गो० ! समचउरंससंठाणसंठिते पं०, आहारगसरीरस्सगंभते! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०?, गो०! जह० देसूणा रयणी उ० पडिपुन्ना रयणी।
वृ. 'आहारकसरीरेणंभंते! कइविहे पं०' इत्यादि सुगम, नवरं संजय'त्ति 'यमूउपरमे'संयच्छन्ति स्म-सर्वसावधयोगेभ्यः सम्यगुपरमन्ति स्मेति संयताः, 'गत्यर्थनित्याकर्मका' दिति कतरिक्तप्रत्यः, सकलचारित्रिणः,असंयता-अविरतसम्यग्दृष्टयः संयतासंयता-देशविरतिमन्तः,
तथा ‘पमत्त'त्ति प्रमाद्यन्ति स्म-मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतःसञ्जवलनकषायनिद्रा
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