Book Title: Agam Sutra Satik 15 Pragnapana UpangSutra 04
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 563
________________ २३६ प्रज्ञापनाउपाङ्गसूत्रम्-२- २८/२/१३/५७१ ॥९॥ ओरालसरीरंमि य पजत्तीणं च पंच सुतहेव । तियभंगो जियमणुएसु होति आहारगा सेसा॥ ॥१०॥ नोभवअभविय लेसा अजोगिणो तहय होति असरीरी। पढमाए अपज्जत्तीए ते उ नियमा अनाहारा ।। ॥११॥ सन्नासन्नविउत्ता अवेय अकसाइणो य केवलिणो। तियभंग एक्कवयणे सिद्धाऽनाहारया होति॥" एताश्च सर्वा अपि गाथा उक्तार्थप्रतिपादकत्वाद् भावितार्था इति न भूयो भाव्यन्ते ग्रन्थगौरवभयात्, नवरं, “एक्कवयणे सिद्धानाहारया होति' इति ‘एकवयणे' इत्यत्र तृतीयार्थे सप्तमी एकवचनेन एकार्थेनेति भावः, सर्वत्र सिद्धा अनाहारका भवन्तीति विज्ञेयम् ॥ पदं-२८, उद्देशकः-२ समाप्तः पदं - २८, समाप्तम् मुनि दीपरत्नसागरेण संशोधिता सम्पादिता प्रज्ञापनाउपासूत्रे अष्टाविंशतितमपदस्य मलयगिरिआचार्येण विरचिता टीका परिसमाप्ता । [पदं-२९- उपयोगः ) वृ. तदेवमुक्तमष्टाविंशतितममाहाराख्यं पदे, साम्प्रतमेकोनत्रिंशत्तममारभ्यते--अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेष आहारपरिणाम उक्तः, इह तु ज्ञानपरिणामविशेषः उपयोगः प्रतिपाद्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम् मू. (५७२) कइविहे गं भंते ! उवओगे पं०?, गो०! दुविहे उवओगे पं०, तं०-सागारोवओगे य अनागारोवओगे य, सागारोवओगे णं भंते! कतिविधे पं०?, गो०! अट्टविहे पं०, तं०-आभिनिबोहियनाणसागारोवओगे सुयनाणसागारोवओगे ओहिनाणसा० मनपजवनाणसा० केवलनाणसा० मतिअन्नाणसा० सुयअन्नाणसा० विभंगनाणसा०। ___ अनागारोवओगे णं भंते ! कतिविहे पं०?, गो०! चउबिहे, पं०, तं०-चक्खुदंसणअनागारोवओगे अचक्खुदंसणअना० ओहिदसणनागा० केवलदसणअनागारोवओगे य। एवं जीवाणं, नेरइयाणंभंते! कतिविधेउवओगेपं०?, गो०! दुविधेउवओगेपं०, तं०-सागारोवओगे यअनागारोवओगे य, नेरइयाणंभंते! सागारोवओगे कइविहे पं०?, गो०! छब्बिहे पं०, तं०मतिनाणसागारोवओगे सुयनाणसा० ओहिनाणसा० मतिअन्नाणसा० सुयअन्नाण विभंगनाणसा०, नेरइया णं भंते ! अनागारोवगे कइविहे पं० तं०?, गो० ! तिविहे पं०-- चक्खुदंसण० अचम्खुदंसण० ओहिदसणअना०, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो०! दु० उवओगे पं०, तं०-सागारो० अनागारोव०, पुढवि० सागारोवओगे कतिविधे पं०?, गो०! दु० ५०, तं०- मतिअन्नाण० सुयअ०, पुढविका० अनगारोवओगे कतिविधे पं०?, गो० ! एगे अचक्खुदंसणअनागारोवओगे पं०, एवं जाव वणफइकाइयाणं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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