Book Title: Agam 28 Prakirnak 05 Tandul Vaicharik Sutra Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit SamsthanPage 17
________________ तंदुलवेयालियपइण्णय चर्चा भी स्थानांग, समवायांग एवं भगवती में उपलब्ध होतीहै । अतः हम यह कह सकते हैं कि इसकी रचना स्थानांग और भगवती सूत्र के पश्चात् ही कभी हुई होगी । स्थानांग में महावीर के नौ गणों और सात निण्हवों का उल्लेख होने से उसे ईस्वी सन् प्रथम या द्वितीय शताब्दी के आसपास की रचना माना जाता है। यदि इसके रचना का आधार स्थानांग, भगवती, अनुयोगद्वार और औपपातिक को माना जाय तो हम यह कह सकते हैं कि तंदुलवैचारिक की रचना ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी से ईस्वी सन् की ५वीं शताब्दी के बीच कभी हुई होगी। भाषा और शैली की दृष्टि से भी इसका रचना काल यही माना जा सकता है, क्योंकि इसकी भाषा भी महाराष्ट्री प्रभाव युक्त अर्द्धमागधी है। यद्यपि इसमें कुछ विवरण ऐसे भी हैं जो आवश्यक एवं पक्खी सूत्र में उपलब्ध होते हैं। तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि के शरीर का जो वर्णन इसमें उपलब्ध होता है, वह प्रश्नव्याकरण में भी उपलब्ध है। किन्तु उपलब्ध प्रश्नव्याकरण नन्दी और नन्दी चर्णि के बीच कभी बना है, जबकि तंदुलवैचारिक का उल्लेख स्वयं नन्दी सूत्र में है। अतः यह मानना होगा कि प्रश्नव्याकरण में यह विवरण या तो तंदुलवैचारिक से या औपपातिक से लिया गया है। हमारी दृष्टि में तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि शरीर सम्बन्धी यह विवरण औपपातिक से ही प्रश्नव्याकरण और तंदुलवैचारिक में आया होगा। यद्यपि यह कल्पना भी की जा सकती है कि तंदुलवैचारिक से ही यह समग्र विवरण स्थानांग भगवती, औपपातितक आदि में गये हों, क्योंकि तंदुलवैचारिक अपने विषय का क्रमपूर्वक और सुनियोजित रूप से विवरण देने वाला एक संक्षिप्त ग्रन्थ है । और ऐसे संक्षिप्त ग्रन्थ अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन स्तर के माने जाते हैं। चाहे हम इस तथ्य को स्वीकार करें या न करें किन्तु इतना अवश्य कह सकते हैं कि तंदुलवैचारिक ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी से लेकर पाँचवीं शताब्दी तक के बीच कभी निर्मित हुआ होगा। विषय वस्तु–'तंदूलवैचारिक' इस नाम से ऐसा प्रतीत होता है मानो इसमें मात्र चावल के बारे में विचार किया गया होगा, परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। इसमें मुख्य रूप से मानव-जीवन के विविध पक्षों यथागर्भावस्था, मानव शरीर-रचना, उसकी शत वर्ष की आयु के दस विभाग, उनमें होने वाली शारीरिक स्थितियाँ, उसके आहार आदि के बारे में भी पर्याप्त विवेचन किया गया है। प्रत्येक ग्रन्थ की तरह इसके प्रारम्भ में भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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