Book Title: Agam 28 Prakirnak 05 Tandul Vaicharik Sutra
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 58
________________ तंदुमचारिकप्रकीर्णक (२९) स्थिर रहे हुए गर्भ का माता रक्षण करती है, सम्यकप से परिपालन करती है (तत्पश्चात्) उसका वहन करती है, उसे सीधा रखती है और इस प्रकार गर्भ की तथा अपनी रक्षा करती है। (३०) गर्भस्थ जीव (माता के) सोने पर सोता है, जागने पर जागता है, सुखी होने पर सुखी होता है (और) दुःखी होने पर दुःखी होता है । (३१) उसे विष्ठा, मत्र, कफ, नासिका मल भी नहीं होते हैं और आहार अस्थि, अस्थिमज्जा, नख, केश, दाढ़ी-मूंछ के रोमों (के रूप) में परिणमित (हो जाता है)। (३२) (गर्भस्थ जीव का) आहार-परिणमन एवं उच्छ्वास और निःश्वास सभी (शरीर) प्रदेशों से होता है (और) वह कवलाहार नहीं (करता है)। (३३) इस प्रकार दुःखी जीव गर्भ में शरीर को प्राप्त कर अशुचि से भरे हुए सर्वाधिक अंधकार से युक्त प्रदेश में निवास करता है। .(पुरुष, स्त्री, नपुंसक आदि की उत्पत्ति) (३४) है आयुष्मन् ! तब नौवें महिने में माता उसके द्वारा उत्पन्न होने वाले गर्भ को चार में से किसी एक रूप में जन्म देती है। वे इस प्रकार हैं-स्त्री को स्त्री के रूप में, पुरुष को पुरुष के रूप में, नपुंसक को नपुंसक के रूप में और बिम्ब को बिम्ब (मांस-पिण्ड) के रूप में।। .(३५) शुक्र अल्प और ओज अधिक होता है (तो) स्त्री उत्पन्न होती है (और जब) ओज कम और शुक्र अधिक होता है (तो) पुरुष उत्पन्न होता है। (३६) जब ओज और शुक्र दोनों की मात्रा समान होती है तो नपुंसक उत्पन्न __ होता है (शुक्र के अभाव में) मात्र स्त्री के ओज़ की स्थिरता होने पर बिम्ब उत्पन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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