Book Title: Agam 28 Prakirnak 05 Tandul Vaicharik Sutra
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 60
________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (गर्भ का निर्गमन) (३७) प्रसव समय में (शिशु) सिर से अथवा पैरों से बाहर निकलता है। यदि वह सीधा बाहर निकलता है (तो सकुशल जन्म लेता है, परन्तु यदि) वह तिरछा हो जाता है तो मरण को प्राप्त होता है। (उत्कृष्ट गर्भवासकाल) (३८) कोई पापात्मा अशुचि प्रसूत और अशुचि रूप गर्भवास में अधिक से अधिक बारह वर्ष तक रहता है । (गर्भवास का स्वरूप और विविध रूप) (३९) जन्म के समय और मृत्यु के समय (जीव) जिस दुःख को प्राप्त करता है उस दुःख से विमूढ़ बना हुआ (वह जन्म के समय) अपने पूर्वजन्मों का स्मरण नहीं कर पाता है। (४०) तब क्रन्दन करता हुआ तथा अपनी माता के शरीर को पीड़ा उत्पन्न करता हुआ वह योनि-मुख से बाहर निकलता है। (४१) गर्भगृह में जीव कुंभीपाक नरक के समान विष्ठा, मल, मूत्र आदि अशुचि से प्रभूत अशुचि स्थान में उत्पन्न होता है। (४२) जिस प्रकार विष्ठा में कृमि (समूह) उत्पन्न होता है उसी प्रकार पुरुष के पित्त, कफ, वीर्य, खून और मूत्र के बीच (जीव) उत्पन्न होता है। (४३) उस जीव का शुद्धिकरण कैसे हो सकता है जिसकी उत्पत्ति ही शुक्र रूधिर के समूह से हुई हो? (४४) अशुचि से उत्पन्न एवं हमेशा दुर्गन्धयुक्त विष्ठा से भरे हुए एवं सदैव शुचि की अपेक्षा करने वाले इस शरीर पर गर्व कैसा ? (सौ वर्ष की आयु के मनुष्य की दस दशाएँ) (४५) हे आयुष्मन् ! इस प्रकार उत्पन्न जीव की क्रम से दस दशाएँ कही गयी हैं, वे इस प्रकार हैं-१. बाला २. क्रीडा ३. मंदा ४. बला ५. प्रज्ञा ६. हायनी ७. प्रपञ्चा ८. प्रग्भारा ९. मुन्मुखी एवं १०. शायनी। (ये) जीवनकाल की दस अवस्थाएँ कही गयी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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