Book Title: Agam 28 Prakirnak 05 Tandul Vaicharik Sutra
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम संस्थान ग्रन्थमाला सम्पादक प्रा० सागरमल जन समियाए धम्मे आरिएहिं पव्वइये तंदुलवेयालियपइण्णयं (तंदुलवैचारिक-प्रकीर्णक) डॉ० सुभाष कोठारी समं चरे सव्वत्थेसु सव्वं जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्स विनो करेज्जा सम्मत्तदंसी न करेइ पावं 294.4827 दिट्ठि सया अमूढे मियाए मुनि होइ पुण्य- तं आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादक प्रो० सागरमल जैन बागम संस्थान ग्रन्थमाला : ५ तंदुलक्यालियपइण्णयं (तंदुलवैचारिक-प्रकीर्णक) ( मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित मूलपाठ) अनुवादक डॉ० सुभाष कोठारी शोध अधिकारी, आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर (राज.) भूमिका प्रो० सागरमल जैन डॉ. सुभाष कोठारी MMMI MMM आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान पद्मिनी मार्ग, राजस्थान पत्रिका के पास उदयपुर-(राज०) ३१३००१ संस्करण : प्रथम १९९१ मूल्य : रु ३५-०० TANDULAVEYĀLIYA PAINNAYA Hindi Translation by Dr. Subhash Kothari Edition : First 1991 Price : Rs 35-00 मुद्रक : वर्द्धमान मुद्रणालय, जवाहरनगर, वाराणसी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अर्धमागधी जैन आगम-साहित्य भारतीय संस्कृति और साहित्य की अमूल्य निधि है। दुर्भाग्य से इन ग्रन्थों के अनुवाद उपलब्ध न होने के कारण जनसाधारण और विद्वद्वर्ग दोनों ही इनसे अपरिचित हैं। आगम ग्रन्थो में अनेक प्रकीर्णक प्राचीन और अध्यात्म प्रधान होते हुए भी अप्राप्त से रहे है । यह हमारा सौभाग्य है कि पूज्य मुनि श्री पुष्पविजय जी द्वारा सम्पादित इन प्रकीर्णक ग्रन्था के मूल पाठ का प्रकाशन महावीर विद्यालयबम्बई से हुआ, किन्तु अनुवाद के अभाव में जनसाधारण के लिए वे ग्राह्य नहीं थे। इसी कारण जैन विद्या के विद्वानों की समन्वय समिति ने अनूदित आगम-ग्रन्थों और आगमिक व्याख्याओं के अनुवाद के प्रकाशन को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया और इसी सन्दर्भ में प्रकीर्णकों के अनुवाद का कार्य आगम संस्थान को दिया गया। इसमें देविदत्थओ (देवेन्द्रस्तव) अनुवाद सहित प्रकाशित किया जा चुका है। हमें प्रसन्नता है कि संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. सुभाष कोठारी ने 'तंदुलवैचारिक-प्रकीर्णक' का अनुवाद सम्पूर्ण किया। प्रस्तुत ग्रन्थ की सुविस्तृत एवं विचारपूर्ण भूमिका संस्थान के मानद् निदेशक प्रो० सागरमल जैन एवं डॉ. सुभाष कोठारी ने लिखकर ग्रन्थ को पूर्णता प्रदान की है इस हेतु हम इनके कृतज्ञ हैं। श्री सुरेश सिसोदिया भी संस्थान की प्रकीर्णक अनुवाद योजना में संलग्न हैं इस हेतु उनके प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं। प्रकाशन की इस वेला में हम संस्थान के मार्गदर्शक प्रो० कमलचन्दजी सोगानी एवं मंत्री श्री फतहलालजी हिंगर के भी आभारी हैं, जो संस्थान के विकास में हर सम्भव सहयोग एवं मार्गदर्शन दे रहे हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में स्व० श्री खींवराज जी सा० चोरडिया के पारिवारिक जनों ने दस हजार रु० का अनुदान प्रदान किया; अतः उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। ग्रन्थ के सुन्दर एवं सत्त्वर मुद्रण के लिए हम वर्द्धमान प्रेस के भी आभारी हैं। गणपतराज बोहरा अध्यक्ष सरदारमल कांकरिया महामंत्री Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-सहयोगी स्व० श्री खोंवराज जो चोरडिया-मद्रास : एक परिचय - प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में स्व० सेठ श्री खींवराज जी चोरडिया की पुण्य स्मृति में उनके परिवारजनों ने अर्थ सहयोग प्रदान किया है। स्व० सेठ खींवराज जी का जन्म नोखा ( चंदावत्ता ) राजस्थान में हुआ । अल्पवय में ही आप व्यवसाय हेतु मद्रास आ गये और अगरचन्द मानमल नामक फर्म पर कुछ व्यावसायिक योग्यता अर्जित कर स्वबुद्धि और मेहनत से अपना अलग से बिल्डर्स का कार्य प्रारम्भ किया। थोड़े ही समय में मद्रास के बिल्डरों में आपका विशेष स्थान बन गया। आपने मद्रास एवं बैंगलोर में इस कार्य के साथ-साथ 'खींवराज मोटर कम्पनी' नाम से वाहन उद्योग में भी बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की। आप जैन समाज के प्रमुख सेठ मोहनमल जी चोरडिया के अनुज थे। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती भंवरी देवी चोरड़िया बहुत उदार हृदय की धर्मपरायण महिला हैं । आप भी धार्मिक एवं शिक्षा सम्बन्धी कार्यों में मुक्त हस्त से दान देती है । आपके श्री देवराज जी एवं नवरतन मल जी दो पुत्र हैं जो पिता की तरह ही उदार एवं शिक्षाप्रेमी हैं। सेठ खींवराज जी सा० प्रारम्भ से ही सामाजिक एवं शैक्षणिक कार्यों में बहुत रूचि रखते थे । आपने नोखा में स्थानक और स्कूल बनवाये एव कई समाजोपयोगी कार्य किये । आपने मद्रास में लड़कियों के कालेज के लिए विशाल जमीन खरीद रखी है। जिस पर उनके पुत्र कॉलेज बनवाने के लिए प्रयत्नशील हैं। . संस्थान के कार्यों में आपके परिवार का सदैव योगदान रहा है। उनके इस योगदान के लिए संस्थान सदैव आभारी रहेगा। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ-क्र० १-३४ ४-८ विषयानुक्रम "विषय गद्य/पद्य क्रमांक भूमिका मंगलवाच्य द्वार २-३ गर्भवास काल प्रमाण गर्भधारण करने योग्य स्त्री योनि का स्वरूप .... .... ९.१२ स्त्री योनि और पुरुष वीर्य की उत्पादक शक्ति समाप्त होने का काल "पितृ संख्या और उत्कृष्ट गर्भवास काल ......... गर्भगत जीव की पुरुष स्त्री आदि परिज्ञा .... .... गर्भ उत्पत्ति और गर्भगत जीव का विकास क्रम गर्भगत जीव का आहार परिणमन गर्भगत जीव की आहार विधि गर्भ में स्थित जीव का आहार गर्भस्थ जीव के माता-पिता के अंग निरूपण ....... २१-२२ ....... २३-२४ .... .. २५ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ .... .... १६.२०. विषय - गद्य/पध-क्रमांक गभंस्थ-जीव नरकों में उत्पत्ति ..... .... २६ गर्भस्थ जीव की देवलोकों में उत्पत्ति गर्भस्थ जीव का माता के समान स्वभाव .......... २८-३३ पुरुष, स्त्री, नपुंसक आदि की उत्पत्ति गर्भ का निर्गमन .... .... ३७ उत्कृष्ट गर्भवास काल ..... .... ३८ गर्भवास का स्वरूप और विविध रूप ........ ३९-४४ सौ वर्ष की आयु के मनुष्य की दस दशाएँ.... .... ४५-५८ दस दशाओं में सुख-दुःख विवेक और धर्म साधना का उपदेश ........ ५९-६३ अन्तराय बहुल जीवन से पुण्यकृत करूण उपदेश यौगलिक, अर्हत्, चक्रवर्ती आदि की देह ऋद्धि ...... .... ६५-६८ सम्प्रतिकालीन मनुष्यों की देह, संहनन आदि की हानि और धर्मजन प्रशंसा .... .... ६९-७५ मनुष्य की सौ वर्ष आयु, सौ वर्ष विभाग और आहार परिमाण आदि समय आदि काल परिमाण का स्वरूप ........ काल परिमाण निवेदक घटिका यन्त्र विधान विधि ....... ८७-९२ वर्ष के मास, पक्ष और रात-दिन का परिमाण दिन, रात, मास, वर्ष और सौ वर्ष के .... उच्छ्वास परिमाण ...... ९४-९८ .... .... २२-२८ २८ ३०-३४ ८२-८६ ३४ ३४-३६ ३६-३८ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य/पद्य-क्रमांक पृष्ठ-क्र० .... .... ९९-१०७ ३८. ........ १०८-११३ ११४-११६ ११७-११९ १२०-१५३ __ ४६-५२ ४६ 'विषय आयु की अपेक्षा से अनित्य का प्ररूपण शरीर स्वरूप शरीर की असुन्दरता शरीर आदि का अशुभत्त्व स्त्री शरीर विरक्ति उपदेश -स्त्री शरीर-स्वभाव की उपेक्षा और वैराग्य का उपदेश उपदेश के अयोग्य मनुष्य "पिता पुत्र आदि की अशरणता धर्म-प्रभाव उपसंहार परिशिष्ट-१ गाथानुक्रमणिका ५२-६० १५४-१६७ १६८ १६९-१७० १७१-१७४ १७५-१७७ ६०-६२ ६२ ६५-६८ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। हिन्दुओं के लिए वेद, बौद्धों के लिए त्रिपिटक, पारसियों के लिए अवेस्ता, ईसाइयों के लिए बाइबिल और मुसलमानों के लिए कुरान का जो स्थान और महत्त्व है, वही स्थान और महत्त्व जैनों के लिए आगम साहित्य का है । यद्यपि जैन परम्परा में आगम न तो वेदों के समान अपौरुषेय माने गये हैं और न ही बाइबिल और कुरान के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का संदेश है, अपितु वे उन अर्हतों एवं ऋषियों की वाणी का संकलन है, जिन्होंने साधना और अपनी आध्यात्मिक विशुद्धि के द्वारा सत्य का प्रकाश पाया था। यद्यपि जैन आगम साहित्य में अंग सूत्रों के प्रवक्ता तीर्थंकरों को माना जाता है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि तीर्थकर भी मात्र अर्थ के प्रवक्ता हैं, दूसरे शब्दों में वे चिन्तन या विचार प्रस्तुत करते हैं, जिन्हें शब्द रूप देकर ग्रन्थ का निर्माण गणधर अथवा अन्य प्रबुद्ध आचार्य या स्थविर करते हैं।' जैन-परम्परा हिन्दू-परम्परा के समान शब्द पर उतना बल नहीं देती है। वह शब्दों को विचार की अभिव्यक्ति का मात्र एक माध्यम मानती है । उसकी दृष्टि में शब्द नहीं, अर्थ (तात्पर्य ) ही प्रधान है। शब्दों पर अधिक बल न देने के कारण ही जैन-परम्परा के आगम ग्रन्थों में. यथाकाल भाषिक परिवर्तन होते रहे और वेदों के समान शब्द रूप में अक्षुण्ण नहीं बने रह सके । यही कारण है कि आगे चलकर जैन आगमसाहित्य अर्द्धमागधी आगम-साहित्य और शौरसेनी आगम-साहित्य ऐसी दो शाखाओं में विभक्त हो गया। यद्यपि इनमें अर्द्धमागधी आगम-साहित्य न केवल प्राचीन है, अपितु वह महावीर की मूलवाणी के निकट भी है। शौरसेनी आगम-साहित्य का विकास भी अद्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीन स्तर के इन्हीं आगम ग्रन्थों के आधार पर हआ है। अतः अद्धमागधी आगम-साहित्य शौरसेनी आगम-साहित्य का आधार एवं उसकी अपेक्षा प्राचीन भी है। यद्यपि यह अद्धमागधी आगम-साहित्य महावीर के काल से लेकर वीर निर्वाण संवत् ९८० या.९९३ की वलभी की वाचना तक लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में संकलित और १. 'अत्यं भासइ अरहा सुत्तं गंति गणहरा'-आवश्यकनियुक्ति, गाथा ९२ । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णय सम्पादित होता रहा है । अतः इस अवधि में उसमें कुछ संशोधन, परिवर्तन और परिवर्धन भी हुआ है। प्राचीन काल में यह अर्द्धमागधी आगम साहित्य अंग-प्रविष्ट और अंगबाह्य ऐसे दो विभागों में विभाजित किया जाता था। अंग प्रविष्ट में ग्यारह अंग आगमों और बारहवें दृष्टिवाद को समाहित किया जाता था। जबकि अंगबाह्य में इसके अतिरिक्त वे सभी आगम ग्रन्थ समाहित किये जाते थे, जो श्रुतकेवली एवं पूर्वधर स्थविरों की रचनाएँ माने जाते थे। पुनः इस अंगबाह्य आगम-साहित्य को भी नन्दीसत्र में आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त ऐसे दो भागों में विभाजित किया गया है। आवश्यक व्यतिरिक्त के भी पुनः कालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग किये गये हैं । नन्दीसूत्र का यह वर्गीकरण निम्नानुसार है श्रुत (आगम ) अंगप्रविष्ट अंगबाह्य आचारांग सूत्रकृतांग आवश्यक आवश्यक व्यतिरिक्त स्थानाङ्ग समवायाङ्ग व्याख्याप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथा उपासकदशांग अन्तकृतदशांग अनुत्तरौपपातिकदशांग प्रश्नव्याकरण विपाक सूत्र दृष्टिवाद सामयिक चतुर्विशतिस्तव वन्दना प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग प्रत्याख्यान १. नन्दीसूत्र-सं० मुनि मधुकर, सूत्र ७६, ७९-८१ । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ३ कालिक उत्कालिक नन्दी उत्तराध्ययन वैश्रवणोपपात दशवैकालिक सूर्यप्रज्ञप्ति । दशाश्रुतस्कन्ध वेलन्धरोपपात कल्पिकाकल्पिक पौरुषीमंडल कल्प देवेन्द्रोपपात चुल्लकल्पश्रुत मण्डलप्रवेश व्यवहार उत्थानश्रुत महाकल्पश्रुत विद्याचरण विनिश्चय निशीथ समुत्थानश्रुत औपपातिक गणिविद्या महानिशीथ नागपरितापनिका राजप्रश्नीय ध्यानविभक्ति ऋषिभाषित निरयावलिका जीवाभिगम मरणविभक्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति कल्पिका प्रज्ञापना आत्मविशोधि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति कल्पावतंसिका महाप्रज्ञापना वीतरागंश्रुत चन्द्रप्रज्ञप्ति पुष्पिका प्रमादाप्रमाद संलेखणाश्रुत क्षुल्लिकाविमान-पुष्पचूलिका विहारकल्प प्रविभक्ति वृष्णिदशा अनुयोगद्वार चरणविधि महल्लिकाविमान देवेन्द्रस्तव आतु रप्रत्याख्यान --प्रविभक्ति तन्दुलवैचारिक महाप्रत्याख्यान अंगचूलिका चन्द्रवेध्यक बंगचूलिका 'विवाहचूलिका अरुणोपपात वरुणोपपात गरुडोपपात 'धरणोपपात इस प्रकार हम देखते हैं कि नन्दीसूत्र में तंदुलवैचारिक का उल्लेख अंगबाह्य, आवश्यक-व्यतिरिक्त उत्कालिक आगमों में हुआ है। पाक्षिकसूत्र में भी आगमों के वर्गीकरण की यही शैली अपनायी गयी है। इसके अतिरिक्त आगमों के वर्गीकरण की एक प्राचीन शैली हमें यापनीय परम्परा के शौरसेनी आगम 'मूलाचार' में भी मिलती है। मूलाचार आगमों को चार भागों में वर्गीकृत करता है'-(१) तीर्थंकर-कथित (२) प्रत्येक१. मूलाचार-भारतीय ज्ञानपीठ-गाथा २७७ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेगालियपइण्णयं बुद्ध-कथित (३) श्रुतकेवली-कथित (४) पूर्वधर-कथित । पुनः मूलाचार में “इन आगमिक ग्रन्थों का कालिक और उत्कालिक के रूप में वर्गीकरण किया गया है। किन्तु मूलाचार में कहीं भी तंदूलवेचारिक का नाम नहीं आया है। अतः यापनीय परम्परा इसे किस वर्ग में वर्गीकृत करती थी, यह कहना कठिन है। वर्तमान में आगमों के अंग, उपांग, छेद, मूलसूत्र, प्रकीर्णक आदि विभाग किये जाते हैं। यह विभागीकरण हमें सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ-१३वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है। सामान्यतया प्रकीर्णक का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही किया जाता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परम्परानुसार यह भी मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करता था। समवायांग सूत्र में "चोरासीइ पण्णग सहस्साइपण्णत्ता" कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के चौरासी हजार प्रकीर्णकों का उल्लेख किया है। महावीर के तीर्थ में चौदह हजार साधुओं का उल्लेख प्राप्त होता है। अतः उनके तीर्थ में प्रकीर्णकों की संख्या भी चौदह हजार मानी गयी है। किन्तु आज प्रकीर्णकों की संख्या दस मानी जाती है। ये दस प्रकीर्णक निम्न हैं (१) चतुःशरण (२) आतुरप्रत्याख्यान, (३) महाप्रत्याख्यान (४) भत्तपरिज्ञा (५) तंदुलवैचारिक (६) संस्थारक (७) गच्छाचार (८) गणिविद्या (९) देवेन्द्रस्तव और (१०) मरण समाधि । _इन दस प्रकीर्णकों को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय आगमों की श्रेणी में मानते हैं। परन्तु प्रकीर्णक नाम से अभिहित इन ग्रन्थों का संग्रह किया जाये तो निम्न बाईस नाम प्राप्त होते हैं (१) चतुःशरण (२) आतुरप्रत्याख्यान (३) भत्तपरिज्ञा (४) संस्थारक (५) तंदूलवैचारिक (६) चंद्रावेध्यक (७) देवेन्द्रस्तव (८) गणिविद्या (९) महाप्रत्याख्यान (१०) वीरस्तव (११) ऋषिभाषित (१२) अजीवकल्प (१३) गच्छाचार (१४) मरणसमाधि (१५) तित्थोगालि (१६) आराधना पताका (१७) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति (१८) ज्योतिष्करण्डक (१९) अंगविद्या (२०) सिद्धप्रामृत (२१) सारावली और (२२) जीवविभक्ति । १. विधिमार्गप्रपा-पृष्ठ ५५ । २. समवायांग सूत्र-मुनि मधुकर-८४वां समवाय ३. पइण्णयसुत्ताई-मुनि पुण्यविजयजी-प्रस्तावना पृष्ठ १९ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं । यथा-'आउर पच्चक्खान' के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । इनमें से नन्दी और पाक्षिक के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रावेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, मरणसमाधि, महाप्रत्याख्यान, ये सात नाम पाये जाते हैं और कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम पाये जाते हैं । इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है।' ___ यद्यपि प्रकीर्णकों की संख्या और नामों को लेकर परस्पर मतभेद देखा जाता है, किन्तु यह सुनिश्चित है कि प्रकीर्णकों के भिन्न-भिन्न सभी वर्गीकरणों में तंदुलवैचारिक को स्थान मिला है । __ यद्यपि आगमों की श्रृंखला में प्रकीर्णकों का स्थान द्वितीयक है, किन्तु यदि हम भाषागत प्राचीनता और आध्यात्म-प्रधान विषय-वस्तु की दष्टि से विचार करें तो प्रकीर्णक, आगमों की अपेक्षा भी महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित आदि ऐसे प्रकीर्णक हैं, जो उत्तराध्ययन और दशवैकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन हैं। __ तंदुलवैचारिक-प्रकीर्णक-तंदुलवैचारिक-प्रकीर्णक एक गद्य-पद्य मिश्रित रचना है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख नंदी एवं पाक्षिक सूत्र में प्राप्त होता है। दोनों ही ग्रन्थों में आवश्यक-व्यतिरिक्त उत्कालिक श्रुत के अन्तर्गत तंदुलवैचारिक का उल्लेख मिलता है। पाक्षिक सूत्र वृत्ति में तंदुलवैचारिक का परिचय देते हुए कहा गया है कि-"तंदुलवेयालियं ति तन्डुलानां वर्षशतायुष्कपुरुषप्रतिदिनभोग्यानां संख्याविचारेणोपलक्षितो १. नन्दीसूत्र-मुनि मधुकर पृष्ठ ८०-८१ । २. ऋषिभाषित की प्राचीनता आदि के सम्बन्ध में देखें डॉ० सांगरमल जैन-ऋषिभाषित : एक अध्ययन (प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर)। ३. (क) उक्कालिअं अणेगविहं पण्णत्तं तंजहा-(१) दसवेआलिअं....(१४) तंदुलवेआलिअं...""एवमाइ । (नन्दी सूत्र-मधुकर मुनि-पृष्ठ १६१-१६२) (ख) नमो तेसिं खमासमणाणं,..."अंगबाहिरं उक्कालियं भगवंतं । तंजहादसवेआलिअं...."तंदुलविआलिअं...."महापच्चक्खाणं ॥ (पाक्षिकसूत्र-देवचन्द्र-लालचन्द्र जैन पुस्तकोद्धार, पृ० ७६) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णयं ग्रन्थविशेषस्तन्डुलवैचारिक" अर्थात् सौ वर्ष की आयु वाला मनुष्य प्रतिदिन जितना चावल खाता है, उसकी जितनी संख्या होती है उसी के उपलक्षण रूप संख्या विचार को तंदुलवैचारिक कहते हैं । ' अन्य ग्रन्थों में तंदुलवैचारिक का उल्लेख इस प्रकार पाया जाता है (१) आवश्यक चूर्णि के अनुसार कुछ ग्रन्थों का अध्ययन एवं स्वाध्याय किसी निश्चित समय पर ही किया जाता है और कुछ ग्रन्थों का स्वाध्याय किसी भी समय किया जा सकता है । परम्परागत शब्दावली में पहले प्रकार के ग्रन्थ कालिक और दूसरे प्रकार के ग्रन्थ उत्कालिक कहे जाते हैं । यहाँ भी तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक का उल्लेख उत्कालिक सूत्र के रूप में हुआ है। (२) दशवेकालिक चूर्णि में जिनदासगणि महत्तर ने "कालदसा 'बाला मंदा, किड्डा' जहा तंदुलवेयालिए" कहकर तंदुलवैचारिक का उल्लेख किया है । 3 (३) निशीथ सूत्र चूर्णि में भी उत्कालिक सूत्रों के अन्तर्गत तंदुल - वैचारिक का उल्लेख मिलता है ।" लेखक एवं रचनाकाल का विचार - तंदुलवैचारिक का उल्लेख यद्यपि नन्दीसूत्र आदि अनेक ग्रन्थों में मिलता है किन्तु इस ग्रन्थ के लेखक के सम्बन्ध में कहीं पर भी कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता है । जो संकेत हमें मिलते हैं उसके आधार पर मात्र यही कहा जा सकता है कि यह ५वीं शताब्दी या उसके पूर्व के किसी स्थविर आचार्य की कृति है । इसके लेखक के संदर्भ में किसी भी प्रकार का कोई संकेत सूत्र उपलब्ध न हो पाने के कारण इस सम्बन्ध में कुछ भी कहना कठिन है । किन्तु जहाँ तक इस ग्रन्थ के रचना काल का प्रश्न है, हम इतना तो सुनिश्चित रूप से कह सकते हैं कि यह ईस्वी सन् की ५वीं शताब्दी के पूर्व की १. ( क) पाक्षिकसूत्र वृत्ति - पत्र – ७७ (ख) अभिधान राजेन्द्र कोश, पृ० २१६८ २. आवश्यक चूर्णि - ऋषभदेव भाग - २, पृ० २२४ । ३. दशवेकालिक चूर्णि - रतलाम – १९३३, पृ० ५ । ४. निशीथ सूत्र चूर्णि - भाग ४, पृ० २३५ ॥ -- केशरीमल श्वे० संस्था रतलाम, १९२९, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका रचना है क्योंकि तंदुलवैचारिक का उल्लेख हमें नन्दीसूत्र एवं पाक्षिक सूत्र के अतिरिक्त नन्दी चूर्णि, आवश्यक चूणि, दशवैकालिक चूणि और निशीथ चूर्णि में मिलता है। चणियों का काल लगभग ६-७वीं शताब्दी माना जाता है । अतः तंदुलवैचारिक का रचना काल इसके पूर्व ही होना जाहिए । पुनः तंदुलवैचारिक का उल्लेख नन्दी सूत्र एवं पाक्षिक सूत्र में भी है। नन्दी सूत्र के कर्ता देववाचक माने जाते है । नन्दी सूत्र और उसके कर्ता देववाचक के समय के सन्दर्भ में मुनि श्री पुण्यविजय जी एवं पं० दलसुख भाई मालवणिया ने विशेष चर्चा की है। नन्दी चूर्णि में देववाचक को दृष्यगणी का शिष्य कहा गया है। कुछ विद्वानों ने नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक और आगमों को पुस्तकारुढ़ करने वाले देवद्धिगणी क्षमाश्रमण को एक ही मानने की भ्रांति की है। इस भ्रांति के शिकार मुनि श्री कल्याण विजय जी भी हुए हैं, किन्तु उल्लेखों के आधार पर जहाँ देवद्धि के गुरु आर्य शांडिल्य हैं, वहीं देववाचक के गुरु दूष्यगणी हैं। अतः यह सुनिश्चित है कि देववाचक और देवद्धि एक ही व्यक्ति नहीं है। देववाचक ने नन्दीसूत्र स्थविरावली में स्पष्ट रूप से दूष्यगणी का उल्लेख किया है। पं० दलसुख भाई मालवणिया ने देववाचक का काल वीर निर्वाण संवत् १०२० अथवा विक्रम संवत् ५५० माना है, किन्तु यह अन्तिम अवधि ही मानी जाती है। देववाचक उसके पूर्व ही हुए होंगे। आवश्यक नियुक्ति में नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्रों का उल्लेख है, और आवश्यक नियुक्ति को द्वितीय भद्रबाहु की रचना भी माना जाय तो उसका काल विक्रम की पाँचवीं शताब्दी का पूर्वाद्ध ही सिद्ध होता है। इन सब आधारों से यह सुनिश्चित है कि देववाचक और उसके द्वारा रचित नन्दी सूत्र ईसा की पाँचवीं शताब्दी की रचना है। इस सन्दर्भ में विशेष जानने के लिए हम मुनि श्री पुण्य विजय जी एवं पं० दलसुख भाई मालवलिया के नन्दीसूत्र की भूमिका में देववाचक का समय सम्बन्धी चर्चा को देखने का निर्देश करेंगे । चूँकि नन्दी सूत्र में तंदुलवैचारिक का उल्लेख है, अतः इस प्रमाण के आधार पर हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि यह ग्रन्थ ईस्वी सन् की ५वीं शताब्दी के पूर्व निर्मित हो चुका था। किन्तु इसकी अपर सीमा क्या थी, यह कहना कठिन है। स्थानांग सूत्र में मनुष्य जीवन की दस दशाओं का उल्लेख हमें मिलता है। यह निश्चित है कि तंदुलवैचारिक की रचना का आधार मानव-जीवन की ये दस दशाएँ ही रही हैं। इसी प्रकार तंदुलवैचारिक में गर्भावस्था का जो विवरण उपलब्ध होता है, वह पूर्ण रूप से भगवती सूत्र में उपलब्ध है । इसमें वणित संहनन एवं संस्थानों की Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णय चर्चा भी स्थानांग, समवायांग एवं भगवती में उपलब्ध होतीहै । अतः हम यह कह सकते हैं कि इसकी रचना स्थानांग और भगवती सूत्र के पश्चात् ही कभी हुई होगी । स्थानांग में महावीर के नौ गणों और सात निण्हवों का उल्लेख होने से उसे ईस्वी सन् प्रथम या द्वितीय शताब्दी के आसपास की रचना माना जाता है। यदि इसके रचना का आधार स्थानांग, भगवती, अनुयोगद्वार और औपपातिक को माना जाय तो हम यह कह सकते हैं कि तंदुलवैचारिक की रचना ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी से ईस्वी सन् की ५वीं शताब्दी के बीच कभी हुई होगी। भाषा और शैली की दृष्टि से भी इसका रचना काल यही माना जा सकता है, क्योंकि इसकी भाषा भी महाराष्ट्री प्रभाव युक्त अर्द्धमागधी है। यद्यपि इसमें कुछ विवरण ऐसे भी हैं जो आवश्यक एवं पक्खी सूत्र में उपलब्ध होते हैं। तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि के शरीर का जो वर्णन इसमें उपलब्ध होता है, वह प्रश्नव्याकरण में भी उपलब्ध है। किन्तु उपलब्ध प्रश्नव्याकरण नन्दी और नन्दी चर्णि के बीच कभी बना है, जबकि तंदुलवैचारिक का उल्लेख स्वयं नन्दी सूत्र में है। अतः यह मानना होगा कि प्रश्नव्याकरण में यह विवरण या तो तंदुलवैचारिक से या औपपातिक से लिया गया है। हमारी दृष्टि में तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि शरीर सम्बन्धी यह विवरण औपपातिक से ही प्रश्नव्याकरण और तंदुलवैचारिक में आया होगा। यद्यपि यह कल्पना भी की जा सकती है कि तंदुलवैचारिक से ही यह समग्र विवरण स्थानांग भगवती, औपपातितक आदि में गये हों, क्योंकि तंदुलवैचारिक अपने विषय का क्रमपूर्वक और सुनियोजित रूप से विवरण देने वाला एक संक्षिप्त ग्रन्थ है । और ऐसे संक्षिप्त ग्रन्थ अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन स्तर के माने जाते हैं। चाहे हम इस तथ्य को स्वीकार करें या न करें किन्तु इतना अवश्य कह सकते हैं कि तंदुलवैचारिक ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी से लेकर पाँचवीं शताब्दी तक के बीच कभी निर्मित हुआ होगा। विषय वस्तु–'तंदूलवैचारिक' इस नाम से ऐसा प्रतीत होता है मानो इसमें मात्र चावल के बारे में विचार किया गया होगा, परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। इसमें मुख्य रूप से मानव-जीवन के विविध पक्षों यथागर्भावस्था, मानव शरीर-रचना, उसकी शत वर्ष की आयु के दस विभाग, उनमें होने वाली शारीरिक स्थितियाँ, उसके आहार आदि के बारे में भी पर्याप्त विवेचन किया गया है। प्रत्येक ग्रन्थ की तरह इसके प्रारम्भ में भी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका मंगलाचरण है। भगवान महावीर की वन्दना से यह ग्रन्थ प्रारम्भ होता है। इसके पश्चात् निम्न विषय क्रमानुसार वर्णित हैं गर्भावस्था-सर्वप्रथम इसमें गर्भावस्था का विस्तार से विवेचन किया गया है। सामान्यतया मनुष्य दो सौ साढ़े सत्तहत्तर दिन गर्भ में रहता है। इस संख्या में कभी-कभी कमी या वृद्धि भी हो सकती है। (२-८) इसके बाद गर्भ धारण करने में समर्थ योनि का स्वरूप बतलाया गया है। साथ ही यह बतलाया गया है कि स्त्री पचपन वर्ष की आयु तक और पुरुष पचहत्तर वर्ष तक सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ होता है। (९-१३) माता के दक्षिण कुक्षि में रहने वाला गर्भ पूत्र का, वाम कुक्षि में रहने वाला पुत्री का और मध्य कुक्षि में रहने वाला गर्भ नपुंसक का होता है। गर्भगत जीव सम्पूर्ण शरीर से आहार ग्रहण करता है तथा श्वाँस लेता है और छोड़ता है। इसके आहार को ओज-आहार कहा जाता है। (१४-२१) गर्भस्थ जीव के तीन अंग माता के एवं तीन अंग पिता के कहे गये हैं । गर्भ के मांस, रक्त और मस्तक का स्नेह माता के एवं हड्डी, मज्जा एवं केशरोम-नाखून पिता के अंग माने गये हैं। (२५) गर्भ में रहा हआ जीव अगर मृत्यु को प्राप्त हो जाय तो वह नरक एवं देवलोक दोनों में उत्पन्न हो सकता है। (२६-२७) गर्भगत जीव माता के समान भावों एवं क्रियाओं वाला होता है अर्थात् माता के उठने, बैठने, सोने अथवा दुःखी या सुखी होने पर वह भी उठता, बैठता, सोता है तथा दुःखी या सुखी होता है। (२८) पुरुष, स्त्री और नपुंसक की उत्पत्ति के बारे में कहते हैं कि पुरुष का शुक्र अधिक एवं माता का ओज कम हो तो पुत्र, ओज अधिक और शुक्र कम हो तो पुत्री और दोनों बराबर होने पर नपंसक की उत्पत्ति होती है। (३५) शरीर के अशुचित्त्व को प्रकट करते हुए कहा गया है कि अशुचिः से उत्पन्न सदैव दुर्गन्ध युक्त मल से भरे हुए इस शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। बस दशाएं-गर्भावस्था के विवेचन के पश्चात् इसमें मनुष्य की सौ वर्ष की आयु को दस अवस्थाओं में विभक्त किया गया है, जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-(१) बाला (२) क्रीड़ा (३) मंदा (४) बला (५) प्रज्ञा (६) हायणी (७) प्रपञ्चा (८) प्रारभारा (९) मुन्मुखी और (१०) शायनी। (४५-५८) इन अवस्थाओं में व्यक्ति को अपना समय जिन'भाषित धर्म का पालन करने में बिताना चाहिए। (५९-६३) व्यक्ति को यह विचार कभी नहीं करना चाहिए कि अभी तो इतने दिनों, महिनों अथवा वर्षों तक जीना है अतः बाद में व्रत-नियमों का पालन कर लंगा। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णयं क्योंकि इस जीवन का क्षण भर का भी विश्वास नहीं है। यह कोई नहीं जानता कि कब रोग अथवा मृत्यु आकर हमें दबोच ले। (६४) चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि की देह रिद्धि-पहले व्यक्ति हजारों, लाखों वर्ष जीवित रहते थे, उनमें जो विशिष्ठ, चक्रवर्ती, तीर्थकर, यौगलिक आदि पुरुष होते थे, वे अत्यन्त सौम्य सुन्दर, उत्तम लक्षणों से युक्त, श्रेष्ठ गज की गति वाले, सिंह की कमर के समान कटि प्रदेश वाले, स्वर्ण के समान क्रान्ति वाले, रागादि उपसर्ग से रहित, श्रीवत्स आदि शुभ चिह्नों से चिह्नित वक्षस्थल वाले, पृष्ट व मांसल हाथों वाले, चन्द्रमा, सूर्य, शंख, चक्र आदि के चिह्नों से युक्त हथेलियों वाले, सिंह के समान कन्धों वाले, सारस पक्षी के समान स्वर वाले, विकसित कमल के समान मुख वाले,. उत्तम व्यञ्जनों, लक्षणों आदि से परिपूर्ण होते थे। (६५) शतायुष्य मनुष्य का आहार परिमाण-सौ वर्ष जीने वाला मनुष्य बीस युग, दो सौ अयन, छः सौ ऋतु, बारह सौ महिने, चौबीस सौ पक्ष, चार सौ सात करोड़ अड़तालीस लाख चालीस हजार श्वासोश्वास जीता है और इस समयावधि में वह साढ़े बाईस वाह तंदुल खाता है । एक वाह में चार सौ साठ करोड़ अस्सी लाख चावल के दाने होते हैं। इस प्रकार मनुष्य साढ़े बाईस वाह तंदुल खाता हआ साढ़े पाँच कुंभ मंग, चौबीस सौ आढक घृत और तेल, छत्तीस हजार पल नमक खाता है। अगर प्रतिमाह वस्त्र बदले तो सम्पूर्ण जीवन में बारह सौ धोती धारण करता है। यहाँ यह स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य सौ वर्ष तक जीवित रहे और उसके पास यह सब उपभोग योग्य सामग्री हो तभी इस सामग्री का उपभोग वह कर पाता है। जिसके पास खाने को ही नहीं हो वह इनका उपभोग कैसे करेगा ? (६६-८१) समय उच्छ्वास आदि का काल परिमाण-सर्वाधिक सूक्ष्म काल का वह अंश जो विभाजित नहीं किया जा सके, समय कहलाता है। एक उच्छ्वास निःश्वास में असंख्यात समय होते हैं। एक उच्छवास निःश्वास को ही प्राण कहते हैं, सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, सत्तहत्तर लवों का एक मुहूर्त, तीस मुहर्त या साठ घड़ी का एक दिन-रात, पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष और दो पक्ष का एक महिना होता है। (८२-८६) बारह मास का एक वर्ष होता है। एक वर्ष में ३६० रातदिन होते हैं। एक रात-दिन में एक लाख तेरह हजार एक सौ नब्बे उच्छवास होते हैं। (९४-९८) इससे आगे व्यक्ति को आयु की अनित्यता का बोध कराते हुए कहते हैं कि अज्ञानी निद्रा, प्रमाद, रोग एवं भय की Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका स्थितियों में अथवा भूख, प्यास और कामवासना की पूर्ति में अपने जीवन को व्यर्थ गंवाते हैं अतः उन्हें चारित्र रूपी श्रेष्ठ धर्म का पालन करना चाहिए । (९९-१०७) शरीर का स्वरूप-मनुष्य के शरीर में पीठ की हड्डियों में १८ संधियाँ हैं । उनमें से १२ हडिव्या मिली हुई हैं जो पसलियाँ कहलाती हैं । शेष छः सन्धियों से छः हडिड क र हृदय के दोनों तरफ छाती के नीचे रहती हैं। मनुष्य की कुक्षि चारह अंगुल परिमाण, गर्दन चार. अंगुल परिमाण, बत्तीस दाँत और सात अंगुल प्रमाण की जीभ होती है। हृदय साढ़े तीन पल का होता है। मनुष्य शरीर में दो आँतें, दो पाव, १६० संधि स्थान १०७ मर्म स्थान, ३०० अस्थियाँ, ९०० स्नायु, ७०० नसें, ५०० पेशियाँ, नौ रसहरणी नाड़ियाँ, सिराएँ, दाढ़ी-मूंछ को छोड़कर.. ९९ लाख रोमकूप तथा इन्हें मिलाकर साढ़े तीन करोड़ रोमकूप होते. हैं। मनुष्य के नाभि से उत्पन्न सात सौ शिराएं होती हैं। उनमें से १६० शिराएँ नाभि से निकल कर सिर से मिलती हैं, जिनसे नेत्र, श्रोत, घ्राण. और जिह्वा को कार्यशक्ति प्राप्त होती है। १६० शिराएँ नाभि से निकलकर पैर के तल से मिलती हैं, जिनसे जंघा को बल प्राप्त होता है । १६० शिराएँ नाभि से निकलकर हाथ तल तक पहुँचती हैं, जिनसे बाहुबलप्राप्त होता है। १६७ शिराएँ नाभि से निकलकर गुदा में मिलती हैं, जिनसे मलमत्र का प्रस्रवण उचित रूप से होता है। मनुष्य के शरीर में कफ को धारण करने वाली २५, पित्त को धारण करने वाली २५ और वीर्य को धारण करने वाली १० शिराएँ होती हैं। पुरुष के शरीर में. नौ और स्त्री के शरीर में ग्यारह द्वार (छिद्र) होते हैं । (१०८-११३) __ शरीर का अशुचित्त्व-इस ग्रन्थ में शरीर को सर्वथा अपवित्र और अशुचिमय कहा गया है। शरीर के भीतरी दुर्गन्ध का ज्ञान नहीं होने के कारण ही पुरुष स्त्री शरीर को रागयुक्त होकर देखता है और चुम्बन आदि के द्वारा शरीर से निकलने वाले अपवित्र स्रावों का पान करता है । (१२०-१२९) इस दुर्गन्धयुक्त नित्य मरण की आशंका वाले शरीर में गृद्धः नहीं होना चाहिए । कफ, पित्त, मूत्र, बसा आदि में राग बढ़ाना उचित नहीं है। जो मल-मत्र का कूआँ है और जिसपर कृमि सुल-सुल का शब्द करते रहते हैं, उसमें क्या राग करना ? जिसके नौ अथवा ग्यारहद्वारों से अशुचि निकालती रहती है उस पर राग करने का क्या अर्थ है ? यहाँ कहते है कि तुम्हारा मुख मुखवास से सुवासित है, अंग अगर आदि के उबटन से महक रहे हैं, केश सुगन्धित द्रव्यों से सुगन्धित है, तो हे मनुष्य ! तेरी अपनी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलक्यालियपइण्णयं कौन सी गन्ध है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि आँख, नाक • और कान का मैल, कफ और मल-मूत्र आदि की गन्ध यही सब तो तेरी • अपनी गन्ध है । (१३०-१५३) . स्त्री शरीर-स्वभाव-अनेक कवियों और लेखकों ने स्त्रियों की प्रशंसा में रचनाएँ की हैं परन्तु यहाँ कहा गया है कि वास्तव में वे ऐसी नहीं हैं। वे स्वभाव से कुटिल, अविश्वास का घर, व्याकुल चित्त वाली, हजारों अपराधों की कारणभूत, पुरुषों का क्ध स्थान, लज्जा की नाशक, कपट का आश्रय स्थान, शोक की जनक, दुराचार का घर, ज्ञान को नष्ट करने वाली, कुपित होने पर जहरिले साँप की तरह, दुष्ट हृदया होने से व्याघ्री की तरह और चंचलता में बन्दर की तरह होती हैं। ये नरक की तरह डरावनी, बालक की तरह क्षणभर में प्रसन्न या रूष्ट होने वाली, किंपाक फल की तरह बाहर से अच्छी लगने वाली, किन्तु कटु फल प्रदान करने वाली, अविश्वसनीय, दुःख से पालित, रक्षित और मनुष्य की दृढ़ शत्रु है। ये साँप के समान कुटिल हृदय वाली, मित्र और परिजनों में फूट डालने वाली, कृतघ्न और सर्वाङ्ग जलाने वाली होती हैं। इसी सन्दर्भ में ग्रन्थ में उनके नाम की अनेक नियुक्तियाँ दी गयी हैं । पुरुषों का उनके समान अन्य कोई अरि (शत्र) नहीं होने से वह नारी कही जाती है । नाना प्रकार से पुरुषों को मोहित करने के कारण महिला, पुरुषों को मद युक्त बनाती है इसलिए प्रमदा, महान् कष्ट उत्पन्न कराती है इसलिए महिलिका, योग-नियोग से पुरुषों को वश में करने से योषित कही जाती है। ये स्त्रियाँ विभिन्न हाव-भाव, विलास, शृंगार, कटाक्ष, आलिङ्गन द्वारा पुरुषों को आकृष्ट करती हैं। सैकड़ों दोषों की गागर और अनेक प्रकार से बदनामी का कारण होती है। स्त्रियों के चरित्र को बुद्धिमान पुरुष भी नहीं जान सकते हैं फिर साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है ? इस कारण व्यक्ति को चाहिए कि वह इनका सर्वथा त्याग कर दें। (१५४-१६७) __धर्म का माहात्म्य-धर्म रक्षक है, धर्म ही शरणभूत है । धर्म से ही ज्ञान की प्रतिष्ठा होती है और धर्म से ही मोक्ष पद प्राप्त होता है। देवेन्द्र और चक्रवर्तियों के पद भी धर्म के कारण ही प्राप्त होते हैं और अन्ततः उसी से मुक्ति की प्राप्ति भी होती है। यहीं पर उपसंहार करते हुए कहते हैं कि इस शरीर का गणित से अर्थ प्रकट कर दिया है अर्थात् विश्लेषण करके उसके स्वरूप को बता दिया गया है जिसे सुनकर जीव सम्यकत्त्व और मोक्ष रूपी कमल को प्राप्त करता है । (१७१-१७७) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक और अन्य आगम ग्रन्थ तुलनात्मक विवरण Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णय [१] इमो खलु जीवो अम्मा-पिउसंजोगे माऊओयं पिउसुक्कं तं तदुभयसंसंट्ठ कलुसं किब्बिसं तप्पढमयाए आहारं आहारिता गब्भत्ताए .वक्कमइ । (तंदुलवैचारिक, सूत्र-१७) [२] जीवस्स णं भंते ! गब्भगयस्स समाणस्स अत्थि उच्चारे इ वा पासवणे इवा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पित्ते इ वा सुक्के इ वा सोणिए इ -वा? नो इण? सम? । से केण→णं भंते ! एवं वुच्चइ-जीवस्स णं गब्भगयस्स समाणस्स नत्थि उच्चारे इ वा जाव सोणिए इ वा ? गोयमा ! जीवे णं गन्भगए समाणे जं आहारमाहारेइ तं चिणाइ सोइंदियत्ताए चक्खुईदियत्ताए "पाणिदियत्ताए जिभिदियत्ताए फासिदियत्ताए अद्वि-अट्ठिमिंज-केस-मंसुरोम-नहत्ताए, से एएणं अटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जीवस्स णं गब्भगयस्स समागस्स नत्यि उच्चारे इ वा जाव सोणिए इ वा । (तंदुलवैचारिक, सूत्र-२०) '[३] जीवे णं भंते ! गन्भगए समाणे पहू मुहेणं कावलियं आहारं आहा'रित्तए ? गोयमा ! नो इणट्टे समढें । से केण→णं भंते ! एवं वुच्चइजीवे णं गब्भगए समाणे नो पहू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए ? गोयमा ! जीवे णं गब्भगए समाणे सव्वओ आहारेइ, सव्वओ परिणामेइ, सव्वओ ऊससइ, सवओ नीससइ, अभिक्खणं आहारेइ, अभिक्खणं परिणामेइ, अभिक्खणं ऊससइ, अभिक्खणं नीससइ) आहच्च आहारेइ, आहच्च परिणामेइ, आहच्च ऊससइ, आहच्च नीससइ; से माउजी वरसहरणी पुत्तजीवरसहरणी माउजोवपडिबद्धा पुत्तजीवंफुडा तम्हा आहा. रेइ तम्हा परिणामेइ, अवरा वि य णं पुत्तजीवपडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा चिणाइ तम्हा उवचिणाइ, से एएणं अद्रेणं गोयमा । एवं वुच्चइजीवे णं गब्भगए समाणे नो पहू मुहेणं कावलियं आहारं आहारेत्तए । (तंदुलवैचारिक, सूत्र-२१) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य आगम ग्रन्थ [१] गोयमा ! माउओयं पिउसुक्कं तदुभयसंसिटुं कलुसं किव्विसं तप्पढमताए आहारमाहारेति । (भगवती सत्र-१-७-१२) [२] जीवस्स णं भंते ! गभगतस्स समागस अत्यि उच्चारे इ वा पासवणे इ वा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पित्ते इ वा ? णो इणढे समढें। से केण?णं? गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे जमाहारेति तं चिणाइ तं सोतिदियत्ताए जाव फासिदियत्ताए अट्ठि-अट्ठिमिज-केस-मंसु-रोम-नहत्ताए, से केणढणं । ( भगवती सूत्र-१-७-१४ ) [३] जीवे णं भंते ! गभगते समाणे पभू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए? ____ गोयमा ! णो इण? सम8 ।से केणटेणं ? गोयमा ! जीवे णं गभगते समाणे सव्वतो आहारेति, सव्वतो परिणामेति, सव्वतो उस्ससति, सब्बतो निस्ससति, अभिक्खणं आहारेति, अभिक्खणं परिणामेति, अभिक्खणं उस्ससति, अभिक्खणं निस्ससति, आहच्च आहारेति, आहच्च परिणामेति, आहच्च उस्ससति, आहच्च निस्ससति। मातुजीवरसहरणी पुत्तजीवरसहरणी मातुजीवपडिबद्धा पुत्तजीवं फुडा तम्हा आहारेइ, तम्हा परिणामेति, अवरा वि य णं पुत्तजीव पडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा चिणाति, तम्हा उवचिणाति, से तेण?णं० जाव नो पभू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए। ( भगवती सूत्र-१-७-१५) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलपेयालियपइण्णयं [४] जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे किमाहारं आहारेइ ?, गोयमा ! जं से माया नाणाविहाओ रसविगईओ तित्त-कडुय-कसायंबिल-महुराई. दव्वाइं आहारेइ तओ एगदेसेणं ओयमाहारेइ । (तंदुलवैचारिक, सूत्र-२२) [५] कइ णं भंते ! माउअंगा पण्णत्ता ? गोयमा! तओ माउअंगा पण्णत्ता, तं जहा–मसे १ सोणिए २ मत्थुलुंगे ३ । कइ णं भंते ! पिउअंगा पण्णत्ता ? गोयमा! तओ पिउअंगा पण्णत्ता, तं जहा-अट्ठि १ अट्ठिमिजा २ केस-मंसु-रोम-नहा ३। (तंदुलवैचारिक, सूत्र-६५) [६] जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे नरएसु उववजिन्ना ? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेन्ना अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा । से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ जीवे णं गब्भगए समाणे नरएसु अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए. नो उववज्जेजा ? गोयमा ! जे णं जीवे गब्भगए समाणे सन्नी पंचिदिए. सव्वाहि पज्जत्तीहिं पज्जत्तए वीरियलद्धीए विभंगनाणलद्धीए वेउव्विअलदीए वेउव्वियलद्धिपत्ते पराणी आगयं सोच्चा निसम्म पएसे निच्छुहइ, २ त्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणइ, २ ता चाउरंगिणि सेन्नं सन्नाहेइ, सन्नाहित्ता पराणीएण सद्धिं संगाम संगामेइ, से णं जीवे अत्थकामए रज्जकामए भोगकामए कामकामए, अत्थकंखिए रज्जकंखिए भोगकंखिए. कामकंखिए, अत्थपिवासिए रज्जपिवासिए भोगपिवासिए कामपिवासिए. तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते. तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए, एयंसिं च णं अंतरंसि कालं करेज्जा नेरइएसु उववज्जेज्जा, से एएणं अटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जीवे ] गब्भगए समाणे नेरइएसु अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो. उववज्जेज्जा। (तंदुलवैचारिक, सूत्र-२६) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अन्य आगम ग्रन्थ १७ 'य [४] जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे किमाहारमाहारेति ? गोयमा ! जं से माता नाणाविहाओ रसविगतीओ आहारमाहारेति तदेक्कदेसेणं ओयमाहारेति । ( भगवती सूत्र-१-७-१३) [५] कति णं भंते ! मातिअंगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ मतिअंगा पण्णत्ता । तंजहा-मसे सोणिते मत्थुलुंगे। कति णं भंते ! पितियंगा पण्णत्ता? गोयमा ! तओ पेतिअंगा पण्णत्ता। तंजहा-अट्ठि अट्टिमिजा केसमंसु-रोम-नहे। ( भगवती सूत्र-१-७-१६-१७) [६] (१) जीवे णं भंते ! गब्भगते समाणे नेरइएसु उववज्जेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा। (२) से केण?णं० ? गोयमा ! से णं सन्नी पचिदिए सव्वाहिं पज्जतीहिं पज्जत्तए बीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए पराणीअं आगयं सोच्चा निसम्म पदेसे निच्छुभति, २ वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णित्ता चाउरंगिणिं सेणं विठव्वइ, चाउरंगिणिं सेणं विउव्वेत्ता चाउरंगिणीए सेणाए पराणीएणं सद्धि संगामं संगामेइ, सेणं जीवे अत्थकामए रज्जकामए भोगकामए, कामकामए अत्थकंखिए रज्जकंखिए भोगकंखिए कामकंखिए अत्यपिवासिते, · रज्जपिवासिते भोगपिवासिते कामपिवासिते तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते तदप्पित्तकरणे तब्भावणाभाविते एतंसि णं अंतरंसि कालं करेज्ज नेरतिएसु उववज्जइ; से तेणठेणं गोयमा ! जाव अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा। ( भगवती सूत्र-१-७-१९) भू०-२ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १.८ तंदुलवेयालियपइणयं [७] जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे देवलोएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए तो उववज्जेज्जा से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ – अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जेणं जीवे गब्भगए समाणे सण्णी पंचिदिए सव्वाहिं पज्जतीहि पज्जत्तए वेउब्वियलद्धीए वीरियलद्धीए ओहिनाणलद्धीए तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म तओ से भवइ तिव्वसंवेगसंजायसड्ढे तिब्वधम्माणुरायरते से णं जीवे धम्मकामए पुण्णकामए सग्गकामए मोक्खकामए, धम्मकंखिए पुन्न कंखिए सग्गकंखिए, मोक्खकंखिए, धम्मपिवासिए पुन्नपिवासिए सग्गपिवासिए मोक्खपिवासिए, तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदप्पियकरणे तदट्ठोवउत्ते तब्भावणाभाविए एवंसि णं अंतरंसि कालं करेज्जा देवलोएसु उववज्जेज्जा, से एएणं अट्ठे णं गोयमा एवं वुच्चइअत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा । " ( तंदुलवैचारिक, सूत्र - २७) [८] जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे उत्ताणए वा पासिल्लए वा अंबखुज्जए बा अच्छेन्न वा चिट्ठेज्ज वा निसीएज्ज वा तुयट्टेज्ज वा आसएज्ज वा सएज्ज बा माऊए सुयमाणीए सुयइ जागरमाणीए जागरइ सुहिआए सुहिओ भवइ दुहिए दुहिओ भवइ ? हंता गोयमा ! जीवे णं गब्भगए समाणे उत्ताणए बा जाव दुक्खिआए दुखिओ भवइ । 1 ( तंदुलवैचारिक, सूत्र - २८) [९] आउसो ! तओ नवमे मासे तीए वा पडुप्पन्ने वा अणागए वा चउन्हं माया अन्नयरं पयायइ । तं जहा - इत्थि वा इथिरूवेणं १ पुरिसं वा पुरिसरुवेणं २ नपुंसगं वा नपुंसगरूवेणं ३ बिंबं वा बिरूवेणं ४ | [१०] अप्पं सुक्कं बहुं ओयं अप्पं ओयं बहुं सुक्कं ( तंदुलवेचारिक, सूत्र - ३४) इत्थीया तत्थ जायई । पुरिसो तत्थ जायई । ( तंदुलवैचारिक, गाथा - ३५ ) C Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य आगम ग्रन्थ [७] जीवे णं भंते ! गभगते समाणे देवलोगेसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! अत्येगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा। से केणठेणं ? गोयमा ! से णं सन्नी पंचिदिए सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तए तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं घम्मियं सुवयणं सोच्चा णिसम्म ततो भवति संवेगजातसड्ढे तिव्वधम्माणुरागरत्ते, से णं जीवे धम्मकामए पुण्णकामए सग्गकामए मोक्खकामए, धम्मकंखिए, पुण्णकखिए सग्गकंखिए, मोक्खकंखिए धम्मपिवासिए पुण्णपिवासिए सग्गपिवासिए मोक्खपिवासिए तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिते ततिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवडते तदप्पित्तकरणे तब्भावणाभाविते एयंसि णं अंतरंसि कालं करेज्ज देवलोएसु उववज्जति; से तेणठेणं गोयमा !०। (भगवती सूत्र-१-७-२०) [८] जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे उत्ताणए वा पासिल्लए वा अंबखुज्जए वा अच्छेज्ज वा चिठ्ठज्ज वा निसीएज्ज वा तुयट्टेज्ज वा मातुए सुवमाणीए सुवति, जागरमाणीए जागरति सुहियाए सुहिते. भवइ दुहिताए दुहिए भवति ? हंता, गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे जाव दुहियाए भवति । (भगवती सूत्रः-१-७-२१). [९] चत्तारि मणुस्सीगब्भा पण्णत्ता, तंजहा-इत्थित्ताए, पुरिसत्ताए, णपुंसगत्ताते, बिबत्ताए। (स्थानांग सूत्र-४-४-६४२ ) [१०] अप्पं सुक्कं बहुं ओयं इत्थी तत्थ पजायति । अप्पं ओयं बहुं सुक्कं पुरिसो तत्थ जायति ॥ ( स्थानांग सूत्र-४-४-६४२) (संग्रहणी गाथा) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० तंदुलक्यालियपइण्णय [११] दोण्हं पि रत्त-सुक्काणं तुल्लभावे नपुंसगो। इत्थीओयसमाओगे बिंबं तत्थ पजायइ ।। । (तंदुलवैचारिक, गाथा-३६) [१२] आउसो ! एवं जायस्स जंतुस्स कमेण दस दसाओ एवमाहिज्जति । तं जहाबाला १ किड्डा २ मंदा ३ बला ४ य पन्ना ५ य हायणि ६ पवंचा ७ । पन्भारा ८ मुम्मुही ९ सायणी य १० दसमा १० य कालदसा ॥ (तंदुलवैचारिक, गाथा-४५) [१३] जायमित्तस्स जंतुस्स जा सा पढमिया दसा। न तत्थ सुक्ख दुक्खं वा छुहं जाणंति बालया १॥ (तंदुलवैचारिक, गाथा-४६) [१४] बीयं च दसं पत्तो नाणाकीडाहिं कीडई। न य से कामभोगेसु तिव्वा उप्पज्जए मई २ ।। . (तंदुलवैचारिक, गाथा-४७). [१५] तइयं च दसं पत्तो पंच कामगुणे नरो। समत्थो भुंजिउं भोगे जइ से अत्थि घरे धुवा ३॥ (तंदुलवैचारिक, गाथा-४८) [१६] चउत्थी उ बला नाम जं नरो दसमस्सिओ। समत्थो बलं दरिसेउं जइ सो भवे निरुवद्दवो ४॥ (तंदुलवैचारिक, गाथा-४९) [१७] पंचमी उ दसं पत्तो आणुपुव्वीइ जो नरो। समत्थो अत्थं विचितेउं कुडुंबं चाभिगच्छई ५ ॥ (तंदुलवैचारिक, गाथा-५०) [१८] छट्ठी उ हायणी नाम जं नरो दसमस्सिओ। विरज्जइ काम-भोगेसु, इंदिएसु य हायई ६॥ (तंदुलवैचारिक, गाथा-५१) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य आगम ग्रन्थ [११] दोण्हं पि रत्तसुक्काणं तुल्लभावे णपुंसओ। इत्थी-ओय-समायोगे, बिबं तत्थ पजायति ॥ (स्थानांग सूत्र-४-४-६४२) ( संग्रहणी गाथा) [१२] वाससताउयस्स णं पुरिसस्स दस साओ पण्णत्ताओ, तंजहा संग्रह श्लोक बाला किड्डा य मंदा य बला पण्णा य हायणी । पवंचा पब्भारा य मुम्मुही सायणी तधा ॥ (स्थानांग सूत्र-१०-१०-१५४ ) [१३] जा यमित्तस्स जंतुस्स जा सा पढमिया दसा ।। ण तत्थ सुहदुक्खाइ बहु जाणंति बालया॥ .. __(दशवकालिक हारिभद्रीअ वृत्ति पत्र ८, ९) बियइं च दसं पत्तो णाणाकिड्डाहिं किड्डइ । न तत्थ कामभोगेहिं तिव्वा उप्पज्जई मई ॥ (ठाणं-नथ० पृ० १०१५ ) तइयं च दसं पत्तो पंच कामगुणे नरो। समत्थो भुंजिउ भोए जइ से अस्थि धरे धुवा ॥ (ठाणं-पृ० १०१५) [१६] , चउत्थी उ बला नाम जं नरो दसमस्सिओ। समत्थो बलं दरिसिऊं जइ होइ निरूवद्दवो ॥ (ठाणं-पृ० १०१५) [१७] पंचमि तु दसं पत्तो आणुपुव्वीइ जो नरो। इच्छियत्थं विचितेइ कुटुंबं वाऽभिकंखई ॥ (ठाणं-पृ० १०१५) छट्ठी उ हायणी नाम जं नरो दसमस्सिओ। विरजइ य कामेसु इदिएसु य हायई ।। (ठाणं-पृ०-१०१५) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ तंदुलवेयालियपइण्णय [१९] सत्तमी य पवंचा उ जं नरो दसमस्सिओ। निळूभइ चिकणं खेलं खासई य खणे खणे ७॥ (तंदुलवैचारिक, गाथा-५२) [२०] संकुइयवलीचम्मो संपत्तो अमि दसं। नारीणं च अणिट्ठो उ जराए परिणामिओ ८॥ (तंदुलवैचारिक, गाथा-५३) [२१] नवमी मुम्मुही नामं जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संते जीवो वसइ अकामओ ९॥ __ (तंदुलवैचारिक, गाथा-५४) [२२] हीण-भिन्नसरो दीणो विवरीओ विचित्तओ। दुब्बलो दुक्खिओ सुयइ संपत्तो दसमि दसं १० ॥ - (तंदुलवैचारिक, गाथा-५५) [२३] पुण्णाई खलु आउसो ! किच्चाई करणिज्जाइं पीइकराई वनकराई धणकराई कित्तिकराई। नो य खलु आउसो ! एवं चितेयव्वं-एसिति खलु बहवे समया आवलिया खणा आणापाणु थोवा लवा मुहत्ता दिवसा अहोरत्ता पक्खा मासा रिऊ अयणा संवच्छरा जुगा वाससया वाससहस्सा वाससयसहस्सा, वासकोडीओ..." (तंदुलवैचारिक, सूत्र-६४) [२४] ते णं मणुया अणतिवरसोम-चारुरूवा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा सुजायसव्वंगसुंदरंगा रत्तुप्पल-पउमकर-चरणकोमलंगुलितला नग-णगरमगर-सागरचक्कंकधरंकलक्खणंकियतला सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा अणुपुब्बिसुजाय-पीवरंगुलिया उन्नय-तणु-तंब-निद्धनहा संठिय-सुसिलिट्ठ-गूढगोप्फा एणी-कुरुविंदावत्तवट्टाणुपुग्विजंघा सामुग्गनिमग्गगूढजाणू गयससणसुजायसन्निभोरू वरवारणमत्ततुल्लविक्कम-विलासियगई सुजायवरतुरयगुज्झदेसा आइन्नहउ ब्व निरुवलेवा पमुइयवरतुरग-सीहअइरेगवट्टियकडी साहयसोणंद-मुसलदप्पण-निगरियवरकणगच्छरुसरिस-वरवइरवलियमज्झा गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुण-बोहिय' उक्कोसायंतपउमगंभीर-वियडनाभी उज्जुय-समसहिय-सुजाय-जच्च-तणु -कसिणनिद्ध-आएज्जलहह-सुकुमाल-मउय-रमणिज्जरोमराई झस-विहगसुजाय-पीणकुच्छी झसोयरा पम्हवियडनाभा संगयपासा सन्नयपासा सुंदरपासा · सुजायपासा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ अन्य आगम ग्रन्थ ____ २२ [१९] सत्तमि च दसं पत्तो आणुपुव्वीइ जो नरो। निठ्ठहइ चिक्कणं खेलं खासइ य अभिक्खणं ।। ( ठाणं-पृ० १०१५ ) [२०] संकुचियवलीचम्मो संपत्तो अट्ठमि दसं । णारीणमणभिप्पेओ जराए परिणामिओ ।। (ठाणं-पृ० १०१५) [२१] णवमी मम्मुही नाम जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संतो जीवो वसइ अकामओ ।। (ठाणं-पृ० १०१५) [२२] हीणभिन्नसरो दीणो विवरीओ विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खिओ सुवइ संपत्तो दसमि दसं ।। (ठाणं-पृ० १०१५) (दशवै० हारिभद्रीय वृत्ति ८,९) [२३] असंखिजाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा आवलि अतिवुच्चइ संखेनाओ आवलियाओ ऊसासो, संखिज्जाओ आवलियाओ नीसासो हट्ठस्स अणवगल्लस्स, निरुवक्किट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे एस पाणु त्ति वुच्चइ । सतपाणूणि से थोवेलवे".."मुहुत्ते....." अहोरत्तं"."""पक्खा "...""मासा...""उऊ"""""अयणं....."संवच्छरे"""" जुगे"""वाससयं "वाससहस्सं...""वाससयसहस्स । . ... (अनुयोगद्वार-भाग २ घासी०, पृ० २४८) .. अथवा पुवाणुपुब्बी समए आवलिया आणापाणू थोवे लवे मुहुत्ते दिवसे अहोरत्ते पक्खे मासे उदू अयणे संवच्छरे जुगे वाससए वाससहस्से वाससतसहस्से। (अनुयोगद्वार-मधु०, पृ० १२७) [२४] गरगणा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा"सुजायसव्वंगसुंदरंगा रत्तुप्पलपत्तकंतकरचरणकोमलतला सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा अणुपुव्व सुसंहयंगुलीया उण्णयतणुतंबणिद्धणक्खा संठिय सुसिलिट्ठगूढगुंफा एणीकुरुविदंवत्तवट्टाणुपुट्विजंघा समुग्गणिसग्गगूढजाणू वरवारणमत्त-तुल्लविक्कमविलासियगई वरतुरगसुजायगुज्झदेसा आइण्णहयव्वणिरुवलेवा पमुइयवर Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलबेयालियपदण्णय मियमाइय-पीण-रइयपासा अकरंडुयकणगरुयग- निम्मल-सुजाय-निरुवहयदेहधारी पसत्थ-बत्तीसलक्खणधरा कणगसिलायलुज्जलपसत्थसमतल-उवचिय-वित्थिन्नपिहुलवच्छा सिरिवच्छंकियवच्छा पुरवरफलिहवट्टियभुया भुयगोसरविउलभोगआयाणफलिह-उच्छूढदोहबाहू जुगसन्निभपीण-रइय-पीवरपउट्ठसंठिय-उवचिय-घण - थिर-सुबद्ध - सुवट्ट-सुसिलिट्ठ लट्ठपव्वसंधी रत्ततलोवचिय-मउय-मंसल-सुजाय-लक्खणपसत्थअच्छिद्दजालपाणी पोवर-वट्टिय-सुजाय-कोमलवरंगुलिया तंब-तलिण-सुइरुइरनिद्धनक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्कपाणिलेहा सोत्थियपाणिलेहा ससि-रवि-संख-चक्क-सोत्थियविभत्त-सुविरइयपाणिलेहा वरमहिसवराह-सीह-सदूल-उसभ-नागवरविउल-पडिपुन्न-उन्नय-मउदक्खंधा चउरंगुलसुपमाण-कंबुवरसरिसगीवा अवट्ठिय-सुविभत्त-चित्तमंसू मंसलसंठिय-पसत्थ-सदूलविउलहणुया ओयवियसिलप्पवाल-बिंबफलसन्निभाधरुटा पंडुरससिसगलविमल-निम्मलसंख-गोखीरकुंद-दगरय-मुणालियाधवलदंतसेढी अखंडदंता अफुडियदंता अविरलदंता सुनिद्धदंता सुजायदंता एगदंतसेढी विव अणेगदंता. हुयवहनिद्धत-धोय-तत्ततवणि-जरत्ततल-तालुजीहा सारसनवथगियमहुरगंभीर-कुंचनिग्धोस-दुंदुहिसरा गरुलायय-उज्जुतुंगनासा अवदारिअपुंडरीयवयणा - कोकासियधवलपुंडरीयपत्तलच्छा आनामियचावरुइल-किण्हचिहुरराइसुसंठिय - संगय - आयय - सुजायभुमया अल्लीण-पमाणजुत्तसवणा सुसवणापीणमंसलकवोलदेस-भागा अइरुग्गयसमग्ग-सुनिद्धचंदद्धसंठियनिडाला उडुवइपडिपुन्नसोमवयणा छत्तागारुत्तमंगदेसा घण-निचिय-सुबद्ध-लक्खणुन्नय-कूडागार [निभ-] निरुवमपिंडियऽग्गसिरा हुयवहनिद्धत-धोय-तत्ततवणिजकेसंतकेसभूमी सामलीबोंडघणनिचियच्छोडिय-मिउ-विसय-सुहुम-लक्खणपसत्थ-सुगंधि-सुंदर-भुयमोयग-भिंगनील-कजल - पहट्ठभमरगणनिद्ध - निउरंबनिचिय -कुंचिय-पयाहिणावत्तमुद्धसिरया लक्खण-वंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुंदरंगा ससिसोमागारा कंता पियदंसणा सब्भावसिंगारचारुरूवा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ॥ (तंदुलवैचारिक, सूत्र-६६) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य आगम ग्रन्थ २५ तुरगसीहाइरेगवट्टियकडी गंगावत्तदाहिणावत्ततरंगभंगुर-रविकिरणबोहियविकोसायंतपम्हगंभोर वियडनाभी..."उज्जुगसमसहियजच्चतणुकसिणणिद्ध-आइज्जलडहसूमालमउयरोमराई झस-विहगसुजायपीणकुच्छी झसोयरा पम्हविगडनाभी संणयपासा संगयपासा सुंदरपासा सुजायपासा मियमाइयपीणरइयपासा अकरंडुयकणगरुयगनिम्मलसुजायणिरुवहय-देहधारी कणगसिलातलपसत्थ-समतल-उवइय-वित्थिण्णपिहुलवच्छा जुयसण्णिभपीगरइयपीवरपउट्ठसंठिय-सुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसुणिचियघणथिर-सुबद्धसंधी पूरवरफलिहवट्टियभूया। . . भुयईसरविउल-भोगआयाणफलिउच्छूढदीहबाहू रत्ततलोवतियमउयमंसलसुजाय-लक्खणपसत्थ-अच्छिद्दजालपाणी पीवरसुजाय-कोमलवरंगुली तंब-तलिण-सुइरुइलगिद्धणक्खा गिद्धपागिलेहा चंदपाणिलेहा, सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्कपाणिलेहा दिसासोवत्थियपाणिलेहा-रवि-ससि-संखवरचक्कदिसासो-वत्थियविभत्तसुविरइयपाणिलेहा वरमहिसवराहसीहसद्लरिसहणागवरपडिपुण्णविउलखंधा चउरगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसग्गीवा अवट्ठियसुविभत्तचित्तमंस उवचियमसल-पसत्थसद्लविउलहणुया ओयवियसिलप्पवालबिंबफलसण्णिभाधरोट्ठा पंडुरससिसकलविमलसंखगोखीरफेणकुंददगरयमुणालिया-धवलदंतसेढी अखंडदंता अप्फुडियदंता अविरलदंता सुणिद्धदंता सुजायदंता एगदंतसेढिव्व अणेगदंता हुयवहणिद्धतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततला तालुजीहा गरुलायतउज्जुतंगणासा अवदालियपोंडरोयणयणा कोकासियधवलपत्तलच्छा आणामियचावरुइलकिण्हब्भराजिसंठियसंगयायसुजाय-भुमगा अल्लीणपमाणजुत्तसवणा सुसवणा पीणमंसलकवोलदेसभागा अचिरुग्गयबालचंदसंठियमहाणिलाडा उडुवइरिवपडिपुण्णसोमवयणा छत्तागारुत्तमंगदेसा घणणिचियसुबद्धलक्खणुण्णयकूडागारणि पिडियग्गसिरा हुयवहणिद्धतधोयतत्ततवणिज्जरत्तकेसंतकेसभूमी सामलीपोंडघणणिचियछोडियमिउविसतपसत्थसुहुम - लक्खण - सुंगधिसुंदरभुय • मोयगभिंगणीलकज्जलपहलुभमरगणणिद्धणिगुरुंबणिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरया "। (प्रश्नव्याकरण-मधु०, पृ० १२७-१२८) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ तंदुलवेयालियपइण्णय (२५) ते णं मणुया ओहस्सरा मेहस्सरा हंसस्सरा कोंचस्सरा नंदिस्सरा नंदिघोसा सीहस्सरा सीहघोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुस्सरघोसा अणुलोमवाउवेगा कंकग्गहणी कवोयपरिणामा सउणिप्फोस-पिटुंतरोरुपरिणया पउमुप्पल गंधसरिसनीसासा सुरभिवयणा छवी निरायंका उत्तम - पसत्थाऽइसेस - निरुवमत - जल्लमल-कलंक-सेय-रय-दोसवज्जियसरीरा निरुवलेवा छायाउनोवियंगमंगा वज्जरिसहनारायसंघयणा. समचउरंससंठाणसंठिया। (तंदुलवैचारिक, सूत्र-६७) [२६] आसी य समणाउसो ! पुवि मणुयाणं छव्विहे संघयणे । तं जहावज्जरिसहनारायसंघयणे १ रिसहनारायसंघयणे २ नारायसंघयणे ३. अदनारायसंघयणे ४ कीलियासंघयणे ५ छेवटुसंघयणे ६। संपइ खलु. आउसो ! मणुयाणं छेवढे संघयणे वट्टइ। (तंदुलवैचारिक, सूत्र-६९) [२७] आसी य आउसो ! पुब्धि मणुयाणं छविहे संठाणे । तं जहा-समचउरसे १ नग्गोहपरिमंडले २ सादि ३ खुज्जे ४ वामणे ५ हुंडे ६ । संपइ. खलु आउसो ! मणुयाणं हुंडे संठाणे वट्टइ।। (तदुलवैचारिक, सूत्र-७०) [२८] आउसो ! से जहानामए केइ पुरिसे ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल-पायच्छित्ते सिरंसिण्हाए कंठेमालकडे, आविद्धमणि-सुवण्णे अहयसुमहग्घवत्थपरिहिए चंदणोक्किण्णगायसरीरे सरससुरहिगंधगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावन्नग-विलेवणे कप्पियहारऽद्धहार-तिसरय-पालंबपलं-- बमाणकडिसुत्तयसुकयसोहे पिणद्धगेविज्जे अंगुलेज्जगललियंगयललियकयाभरणे नाणामणि-कणग-रयणकडग-तुडियथंभियभुए अहियरूवसस्सिरीए. कुंडलुजोवियाणणे मउडदित्तसिरए हारुच्छयसुकय-रइयवच्छे पालंबपलंबमाण-सुकयपडउत्तरिज्जे मुद्दियापिंगलंगुलिए नाणामणिकणग-रयणविमलमहरिह -निउणोविय-मिसिमिसिंत-विरइय- सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-लटुआविद्धवीरक्लए । किं बहुणा ? कप्परुक्खए चेव अलंकिय-विभूसिए सुइपए भवित्ता (तंदुलवैचारिक, प्रसू-७६) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य आगम ग्रन्थ २७ [२५] अरहा जिणे केवली, सत्त हत्थुस्सेहे समचउरसं ठाणसंठिए वज्जरिसहनाराय संघयणे अणुलोमवाउवेगे कंकगहणी कवोयपरिणामे सउणिपोसपिट्ठेतरोरूपरिणए पउमुप्पलगंधसरिसनिस्साससुरभिवयणे छवी, निरायंकउत्तम-पसत्य-अइसेयनिरुवमपले, जल्ल-मल्ल- कंलक-सेय-रय दोसवज्जियसरीसनिरुवलेवे छायाउज्जोइयंग मंगे 1 ( औपपातिक सूत्र - मधु०, पृ० १६) [२६] छव्विहे संघयणे पण्णत्ते तंजहा -- वइरोसभ-णाराय-संघयणे, उसभणाराय- संघयणे, णारायसंघयणे, अद्धणारायसंघयणे, खीलिया - संघयणे, छेवट्टसंघयणे । (स्थानांग-मधु०, पृ० ५४१-३०) [२७] छब्बिहे संठाणे पण्णत्ते, तंजहा - समचउरंसे, जग्गोहपरिमंडले, साई, खुज्जे, वामणे, हुंडे । ( स्थानांग - मधु०, पृष्ठ ५४१-३१) [२८] तत्थ कोउसयएहि बहुविहेहि कल्लाणग-पवर - मज्जणा - वसाणे पम्हल-सुकुमाल - गंध-कासाइय- लूहियंगे सरस-सुरहि-गोसीस चंदणा पुलित्त गत्ते अहय सुमहग्घ-दूस रयण-सुसंवुए सुइमाला-वण्णग-विलेवणे आविद्ध-मणि-: सुवणे कप्पिय-हार-द्धहार-तिसरय- पालंब - पलंबमाण- कडिसुत्त-सुकय-सोभे पिणद्ध- गेविज्ज-अंगुलिज्जग-ललियंगयललिय-कया-भरणे वर- कडग-तुडिय-थं भय-भूए अहिय-रूव सस्सिरीए मुद्दिया - पिंगलं-गुलिए कुंडल-उज्जोविया -- णणे मउडदित्त - सिरए हारोत्थय सुकय- रइय-वच्छे पालंब - पलंबमाण-पड-सुकय- उत्तरिज्जे णाणा-मणि-कणग-रयण- विमल-महरिह- णिउणो-वियमिसिमिसंत- विरइय-सुसिलिट्ठ - विसिदृ-लट्ठ-संठिय-पंसत्थ- आविद्ध- वीर-वलए । कि बहुणा ! कप्परूक्खए चेव अलंकिय- विभूसिए णरवई ( औपपातिक - घासी०, पृ० ३९४-९९ ) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ तंदुलवेयालियपइण्णय २९] कालो परमनिरुद्धो अविभज्जो तं तु जाण समयं तु । समया य असंखेज्जा हवंति उस्सास-निस्सासे ।। (तंदुलवैचारिक, गाथा-८२) .[३०] हदुस्स अणवगल्लस्स निरुवकिट्टस जंतुणो। एगे ऊसास-नीसासे एस पाणु त्ति वुच्चइ ॥ (तंदुलवैचारिक, गाथा-८३) [३१] : सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरिए एस मुहुत्ते वियाहिए । (तंदुलवैचारिक, गाथा-८४) एगमेगस्स णं भंते ! मुहुत्तस्स केवइया ऊसासा वियाहिया ? गोयमा ! [३] तिन्नि सहस्सा सत्त य सयाई तेवतरि च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणिओ सव्वेहि अणंतनाणीहिं ।। (तंदुलवैचारिक, गाथा-८५) [३३] दो नालिया मुहुत्तो, सट्ठि पुण नालिया अहोरत्तो। पन्नरस अहोरत्ता पक्खो, पक्खा दुवे मासो ।। (तंदुलवैचारिक, गाथा-८६) [३४] आउसो !ज पि य इमं सरीरं इटुं पियं कंतं मणुण्णं मणामं मणाभिरामं थेज्ज वेसासियं सम्मयं बहमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं, रयणकरंडओ विव सुसंगोवियं, चेलपेडा विव सुसंपरिवुडं, तेल्लपेडा विव सुसंगोवियं ‘मा णं उण्हं मा णं सीयं मा णं खुहा मा णं पिवासा मा णं चोरा मा णं वाला मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं वाइय-पित्तिय-सिभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायंका फुसंतु'त्ति कटु । एवं पि याई अधुवं अनिययं असासयं चओ वचंइयं विप्पणासधम्म, पच्छा व पुरा व अवस्स विप्पचइयव्वं ॥ (तंदुलवैचारिक, सूत्र-१०८) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य आगम ग्रन्थ [२९] असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमिति-समागमेणं सा एगा आवलि अत्तिवुच्चइ, संखेज्जाओ आवलियाओ ऊसासो, संखिजाओ आवलियाओ नीसासो। [३०] हटुस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसास-नीसासे, एस पाणु त्ति वुच्चइ ॥ [३१] सत्त पाणुणि से थोवे सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरिए एस मुहुत्ते वियाहिए । (अनुयोगद्वार-घासी०, पृ० २४८) [३२] तिणि सहस्सा सत्त य सयाई तेहुत्तरिं च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणिओ, सव्वेहि अणंतनाणीहिं । (अनुयोगद्वार-घासी०, पृ० २४८) [३३] एएणं मुहुत्त-पमाणेणं तीसं मुहुत्ता अहोरत्तं । पण्णरस अहोरत्ता पक्खा, दो पक्खा मासा ।। (अनुयोगद्वार-घासी०, II-२४८) [३४] जं पि य इमं सरीरं इठें, कंतं, पियं मणुण्णं मणाम, पेज्ज, थेज्ज, वेसासियं संमयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं मा णं सीयं मा णं उण्हं मा णं खुहा मा णं पिवासा, मा णं वाला मा णं चोरा मा णं दंसा मा णं मसगा, मा णं वाइयपित्तियसंनिवाइय विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कटु ..." ( औपपातिकसूत्र-मधु०, पृ० १३८ ). Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुकवेयालियपs जयं तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक की विषयवस्तु को मुख्य रूप से तीन भागों में - विभाजित किया जा सकता है : -३० (१) मानव जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण (२) मानव शरीर रचना और (३) स्त्री चरित्र का विवेचन उपरोक्त तथ्यों की तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विवेचना के सन्दर्भ में सर्वप्रथम तंदुल वैचारिक की मूलभूत दृष्टि को समझ लेना अति आवश्यक है। तंदुलवैचारिक मूलतः श्रमण परम्परा का अध्यात्म और वैराग्य प्रधान ग्रन्थ है । यह सत्य है कि उसमें मानव-जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण एवं मानव शरीर रचना का विवेचन है, किन्तु उस विवेचन का मूल उद्देश्य मानव-शरीरशास्त्र एवं मानव जीवन के स्वरूप को समझा कर, व्यक्ति को वैराग्य की दिशा में प्रेरित करना है । हमें यह ध्यान में रखना होगा कि तंदुलवैचारिक का लेखक शरीर-र - रचना विज्ञान का अध्यापक न होकर एक ऐसा भिक्षुक है जो जन-जन को त्याग और वैराग्य की दिशा में प्रेरित करना चाहता है । उसका उद्देश्य शरीर एवं मानव जीवन के घृणित और नश्वर स्वरूप को उभार कर श्रोता के मन में शरीर के प्रति निर्ममत्त्व जाग्रत करना है । इसलिए प्रत्येक चर्चा के पश्चात् वह यही कहता है कि इस नश्वर एवं घृणित शरीर के प्रति मोह नहीं करना चाहिए । वस्तुतः मानव जीवन में जितने भी पाप या दुराचरण होते हैं अथवा नैतिक मर्यादाओं का भंग होता है, उसके पीछे मनुष्य की देहासक्ति और इन्द्रियपोषण की प्रवृत्ति हो मुख्य है। तंदुलवैचारिक का रचनाकार साधक को देहासक्ति और इन्द्रियपोषण की इस प्रवृत्ति से विमुख करना चाहता है । यही कारण है कि उसने शरीर रचना के उस पक्ष को अधिक उभारा है • जिसे पढ़कर या सुनकर मनुष्यों में देह के प्रति आसक्ति समाप्त हो और विरक्ति जाग्रत हो । मानव शरीर की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण भी मूलतः इसी उद्देश्य से किया गया है कि मनुष्य वैराग्य की दिशा में अग्रसर हो । मानव जीवन की दस दशाओं का विवेचन जैन परम्परा में सर्वप्रथम स्थानांग सूत्र में उपलब्ध होता है किन्तु उसके मूल पाठ में केवल दस दशाओं का नामो...ल्लेख मात्र है, प्रत्येक दशा का विशिष्ट विवरण उपलब्ध नहीं है । यदि हम तंदुल वैचारिक को नियुक्ति के पूर्व की रचना मानते हैं तो हमें यह मानना Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ३१ होगा कि इन दस दशाओं का विस्तृत विवरण सर्वप्रथम तंदुलवैचारिक में ही किया गया होगा । तंदुलवैचारिक के अतिरिक्त दशवैकालिक नियुक्ति की दसवीं गाथा में इन दस दशाओं का नामोल्लेख है। सर्वप्रथम हरिभद्र ने दशवैकालिक की टीका में पूर्वमुनि-रचित दस गाथाओं को उद्धृत किया है। वे ही गाथाएँ अभयदेव ने अपनी स्थानांग वृत्ति में भी उद्धृत की है। हमें ऐसा लगता है कि आचार्य हरिभद्र और आचार्य अभयदेव दोनों ने ही ये गाथाएँ तंदुलवेचारिक से ही उद्धृत की होंगी। दशवकालिक की हरिभद्रीय टीका तथा स्थानांग की अभयदेववृत्ति में ये गाथाएँ शब्दशः समान पायी जाती हैं। हरिभद्र द्वारा इन्हें पूर्वाचार्य कृत कहने से स्पष्ट है कि उन्होंने इन्हें तंदुलवैचारिक से ही लिया होगा । कालिक दृष्टि से भी तंदुलवैचारिक की उपस्थिति के संकेत तो पाँचवीं शती से मिलते हैं जबकि हरिभद्र आठवीं शती के हैं। इन दस दशाओं की विवेचना पर यदि हम गम्भीरता से विचार करें, तो यह पाते हैं कि इनमें से पाँच दशाएँ शरीर और चेतना के विकास को सूचित करती है और अन्त की पाँच दशाएँ क्रमशः शरीर एवं चेतना के ह्रास को सूचित करती है । वस्तुतः यह मानव जीवन का यथार्थ है कि प्रथमतः मनुष्य के शरीर और बुद्धितत्त्व में क्रमशः विकास होता है और फिर उसमें क्रमशः ह्रास होता है। सामान्यतया तंदुलवैचारिक का रचनाकार तथा हरिभद्र एवं अभयदेव इन दस दशाओं के विवेचन के सन्दर्भ में समान दृष्टिकोण रखते हैं। फिर भी जहाँ हरिभद्र ने नवी दशा को मृन्मुखी और दसवीं दशा को शायिनी बताया है वहाँ अभयदेव नवी दशा को मुमुखी और दसवीं दशा को शायनी कहते हैं। दशाओं का यह विवेचन अनुभव के स्तर पर भी खरा उतरता है। तंदुलवैचारिककार इन दशाओं के चित्रण के माध्यम से यही बताना चाहता है कि मनुष्य जिस देह के साथ अत्यन्त आसक्ति रखता है, वह देह किस प्रकार विकसित होती है और कैसे ह्रास को प्राप्त होकर नष्ट हो जाती है। - तंदुलवैचारिक में इन दस दशाओं के विवेचन के पूर्व मनुष्य की गर्भावस्था और उसमें होने वाले विकास का चित्रण किया गया है। गर्भावस्था के इस चित्रण में ग्रन्थकार ने वही विवरण दिया है जो जैन और जैनेत्तर परम्पराओं में सामान्यतया हमें उपलब्ध हो जाता है। इसमें गर्भाधान से लेकर जन्म तक की समस्त विकास प्रक्रिया को दिखाया गया है कि गर्भावस्था में मनुष्य की स्थिति कैसी-कैसी होती है एवं उसकी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णयं शरीर-रचना और उसके व्यक्तित्त्व के निर्माण में किसका क्या सह--- योग होता है, यह भी यहाँ चित्रित किया गया है। इस समग्र चिन्तन को भी हमें उसी दृष्टि से देखना होगा कि मानव जीवन की इस नश्वरता, क्षणभंगुरता और अशुचिता से मनुष्य को कैसे मुक्त किया जा सके। गर्भावस्था का यह चित्रण समकालीन मानव शरीर-रचना-विज्ञान से अनेक बातों में संगति रखता है। विशेष रूप से स्त्री पुरुष की गर्भाधान सामर्थ्य, प्रत्येक माह में होने वाला गर्भ का क्रमिक विकास आदि । यद्यपि इस सन्दर्भ में प्रस्तुत सभी तथ्य आज वैज्ञानिकों से पूर्णतया समर्थित है, ऐसा हम नहीं कह सकते किन्तु इसका बहुत कुछ विवरण विज्ञान सम्मत भी है, इससे इन्कार भी नहीं किया जा सकता। शरीर की संरचना के सन्दर्भ में लेखक ने अनुभूत तथ्यों को ही अपना आधार बना कर लिखा है किन्तु यह भी सत्य है कि उसमें जो हड्डियों, शिराओं आदि की संख्याएँ बताई गयी हैं वे आधुनिक मानव शरीर विज्ञान से मेल नहीं खाती है। जैसे तंदूलवैचारिक मानव शरीर में ३०० हड्डियों की उपस्थिति मानता है जबकि आधुनिक मानव शरीर विज्ञान के अनुसार मनुष्य के शरीर में २५२ अस्थियाँ ही पायी जाती हैं । यही स्थिति शिराओं आदि के सन्दर्भ में भी समझनी चाहिए । वस्तुतः उस युग में जिस स्तर पर अनुभूति सम्भव हो सकती थी, उसी स्तर पर रहकर प्रस्तुत ग्रन्थ लिखा गया था। फिर भी उसका विवरण लगभग सत्य के निकट ही है। आज मानव शरीर विज्ञान और तंदुलवैचारिक के विवरणों की तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता है। ... जहाँ तक तंदुलवैचारिक में वर्णित नारी-स्वभाव के चित्रण का प्रश्न है, निश्चय ही स्त्री के चरित्र का इतना विस्तृत, मनोवैज्ञानिक और भाषाशास्त्रीय विवेचन जैन आगमों में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि सूत्रकृतांग के स्त्री परिज्ञा नामक अध्ययन में हमें सर्वप्रथम नारी-चरित्र का उल्लेख मिलता है, जिसमें मुख्य रूप से यह बतलाया गया है कि स्त्री भिक्षु को अपने पाश में फँसाकर फिर उसके साथ कैसा दुर्व्यवहार करती है। यद्यपि नारी के चरित्र चित्रण में तंदुलवैचारिक और सूत्रकृतांग दोनों का दृष्टिकोण समान ही है और कुछ स्थलों पर दोनों में शाब्दिक समानता भी पायी जाती है। दोनों ही यह मानते हैं कि नारी-चरित्र को समझ लेना विद्वानों के लिए भी दुष्कर है। फिर भी इतना तो अवश्य मानना ही होगा कि तंदुलवैचारिक का यह विवरण सूत्रकृतांग के स्त्री परिज्ञा के विवरण. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ३३ की अपेक्षा विकसित है और किसी सीमा तक परवर्ती भी । तंदुलवैचारिक नारी-चरित्र का किस रूप में चित्रण करता है इसकी चर्चा हम पूर्व में तंदुलवैचारिक की विषयवस्तु के विवरण के समय कर चुके हैं। ___यह तो निश्चित ही सत्य है कि तंदुलवैचारिक नारी-चरित्र को एक तरह से निन्दनीय रूप में प्रस्तुत करता है। नारी निन्दा की जो सामान्य प्रवृत्ति श्रमण परम्परा में पायी जाती है, तंदुलवैचारिक भी उससे मुक्त नहीं है। यह सत्य है कि तंदुलवैचारिक नारी जीवन के विकृत पक्ष को ही हमारे सामने प्रस्तुत करता है। नारी के पर्यायवाची विभिन्न शब्दों की नियुक्तियाँ भी उसमें इसी दृष्टिकोण के आधार पर की गयी हैं। किन्तु हमें इस सन्दर्भ में ग्रन्थकार के दृष्टिकोण का सम्यक् मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। वस्तुतः श्रमण परम्परा वैराग्य या निवृत्ति प्रधान है। उसका मूलभूत प्रयोजन व्यक्ति को सांसारिक जीवन से विमुख करके सन्यास की दिशा में प्रवृत्त करना है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि शरीर के पश्चात् मनुष्य की आसक्ति का मूलकेन्द्र स्त्री ही होती है। अतः जिस प्रकार ग्रन्थ में शारीरिक विकृतियों को उभार कर प्रस्तुत किया गया, उसी प्रकार इसमें नारी चरित्र की विकृतियों को भी उभार कर प्रस्तुत किया गया ताकि व्यक्ति का उनके प्रति जो रागभाव या आसक्ति है वह टूटे। नारी निन्दा के पीछे मूलभूत दृष्टि मनुष्य की कामासक्ति को समाप्त करना है। वहाँ नारी-निन्दा, निन्दा के लिए नहीं है, अपितु पुरुष में वैराग्य के जागरण के लिए है। जैन लेखकों ने अनेक स्थलों पर इस तथ्य को स्वीकार किया है कि जिस प्रकार स्त्री पुरुष को अपने मोह पाश में फंसाकर उसकी 'दुर्गति करती है, उसी प्रकार पुरुष भी नारी को अपनी वासनापूर्ति का माध्यम बनाकर उसके साथ दुर्व्यवहार करता है। वस्तुतः श्रमण परम्परा में नारी-निन्दा को उभर कर सामने आने का मुख्य कारण भारत की पुरुष प्रधान संस्कृति ही है। चूंकि पुरुष प्रधान संस्कृति में समस्त उपदेश पुरुष को ही सामने रखकर दिये जाते हैं, अतः यह स्वाभाविक था कि उसमें नारी-निन्दा को उभार कर सामने लाया गया। सूत्रकृतांग एवं तंदुलवैचारिक के अतिरिक्त अन्य प्राचीन आगम ग्रन्थों में भी हमें नारी-निन्दा के उल्लेख प्राप्त होते हैं, विशेष रूप से उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित में । ऋषिभाषित के गर्दभालीय अध्ययन में धर्म को पुरुष प्रधान कहा गया है। उसमें तो यहाँ तक कहा गया है कि वे ग्राम और नगर धिक्कार के योग्य हैं जहाँ नारी शासन करती है। वे पुरुष भी धिक्कार के पात्र हैं जो Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ तंदुलवेयालियपइण्णयं 'नारी से शासित होते हैं (२२/१) किन्तु यह सब स्पष्ट रूप से पुरुष प्रधान संस्कृति का ही परिणाम है। हमें ऐसा नहीं लगता कि तंदुलवैचारिक स्त्री को नीचा दिखाने के लिए ही नारी-निन्दा कर रहा है । वस्तुतः उसने तो मनुष्य को अध्यात्म और वैराग्य की दिशा में प्रेरित करने के लिए ही यह समग्र विवेचन किया है। यदि हम इसी दृष्टि से ग्रन्थ व ग्रन्थकार के सन्दर्भ में मूल्यांकन करेंगे तो ही सत्य के अधिक निकट होंगे। वैसे जैन परम्परा में नारी की क्या भूमिका है और उसका कितना महत्त्व है, इसकी चर्चा हमने अपने लेख 'जैनधर्म में नारी की भूमिका' (श्रमण-अक्टुम्बरदिसम्बर १९९०) में की है। इस सन्दर्भ में पाठकों से उसे वहाँ देख लेने की अनुशंसा करते हैं । अतः तंदुलवैचारिक के कर्ता पर मानव जीवन, मानवशरीर और नारी जीवन के विकृत पक्ष को उभारने का आक्षेप लगाने के पूर्व हमें इस तथ्य को समझ लेना होगा कि ग्रन्थकार का मूल प्रयोजन शरीर निन्दा या नारी-निन्दा नहीं है अपितु व्यक्ति की देहासक्ति और भोगासक्ति को समाप्त कर उसे आध्यात्मिक और नैतिक विकास की प्रेरणा देना है। सागरमल जैन उदयपुर सुभाष कोठारी २ मार्च १९९१ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णयं (तंदुलवैचारिक-प्रकीर्णक) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णयं (मंगलमभिधेयं च) निज्जरियजरा-मरणं वंदित्ता जिणवरं महावीरं । वोच्छं पइन्नगमिणं तंदुलवेयालियं नाम ॥ १ ॥ (दाराणि) सुणह गणिए दस दसा वाससयाउस्स जह विभज्जति । संकलिऐ वोगसिए जं चाऽउं सेसयं होइ ॥ २ ॥ जत्तियमेत्ते दिवसे जत्तिय राई मुहुत्त उसासे । गब्भम्मि वसइ जीवो आहारविहिं च वोच्छामि ॥ ३ ॥द्वारगाथा।। (गन्भवासकालपमाणं) दोन्नि अहोरत्तसए संपुण्णे सत्तसत्तरि चेव । गैब्भम्मि वसइ जीवो, अद्धमहोरत्तमन्नं च ॥ ४ ॥ एए उ अहोरत्ता नियमा जीवस्स गन्भवासम्मि । हीणाऽहिया उ एत्तो उवघायवसेण जायंति ।। ५ ॥ अट्ठ सहस्सा तिन्नि उ सया मुहुत्ताण पण्णवीसा य । गब्भगओ वसइ जिओ नियमा, हीणाहिया एत्तो॥ ६ ॥ तिन्नेव य कोडीओ चउदस य हवंति सयसहस्साई । दस चेव सहस्साई दोन्नि सया पन्नवीसा य ॥७ ।। उस्सासा निस्सासा एत्तियमित्ता हवंति संकलिया। जीवस्स गब्भवासे नियमा, हीणाऽहिया एत्तो ॥ ८॥ १. °ए वाससए जं चाऊ से जे० सा० ॥ २. गभगो वसइ जिओ, अद्ध सं० ॥ ३. चोद्दस सं० पु० ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिक-प्रकीर्णक (मंगलवाच्य) ११) जिनके बुढ़ापा व मृत्यु समाप्त हो गये हैं (ऐसे) जिनेश्वर महावीर को प्रणाम करके (मैं) इस तंदुलवैचारिक (नामक) प्रकीर्णक को कहूँगा। (द्वार) (२) गणित में (मनुष्य की) सौ वर्ष की आयु को दस दशकों में विभाजित किया जाता है, उस सौ वर्ष की आयु के अतिरिक्त जो आयु शेष रहती है, उस आयु अर्थात् गर्भवास काल को सुनो। (३) जितने दिन, रात्रि, मुहूर्त और उच्छ्वास जीव गर्भवास में रहता है, (मैं) उसे एवं उस (गभ) की आहार विधि को कहूँगा।..... (गर्भवास काल प्रमाण) (४) जीव दो सौ सत्तहत्तर सम्पूर्ण दिन-रात्रि और एक आधा दिन गर्भ में रहता है। (५) नियमतः ये दिन और रात जीव को गर्भवास में (लगते ही हैं), परन्तु उपघात (वात्त-पित्त दोष) के कारण इससे कम या अधिक दिनों में भी (जीव) जन्म ले सकते हैं। (६) नियमतः जीव आठ हजार तीन सौ पच्चीस महत तक गर्भ में रहता है, किन्तु (विशेष अवस्था में) इसमें हानि-वृद्धि भी होती है । (७-८) नियमतः (गर्भस्थ) जीव के तीन करोड़ चौदह लाख दस हजार दो सौ पच्चीस (३१४१०२२५) उच्छ्वास निःश्वास होते हैं, (किन्तु) इससे कम या अधिक भी हो सकते हैं। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णयं (गब्भुष्पत्तिजोग्गाए थीजोणीए सरूवं) आउसो!-इत्थीए नाभिहेढा सिरादुगं पुप्फनालियागारं । तस्स य हेट्ठा जोणी अहोमुहा संठिया कोसा' ॥९॥ तस्स य हिट्ठा चूयस्स मंजरी तारिसा उ मंसस्स । ते रिउकाले फुडिया सोणियलवया विमुंचंति ॥ १० ॥ कोसायारं जोणी संपत्ता सुक्कमीसिया जइया । तइया जीवुववाए जोग्गा भणिया जिणिदेहिं ॥ ११॥ बारस चेव मुहुत्ता उरि विद्धस गच्छई सा उ। जीवाणं परिसंखा लक्खपुहत्तं च उक्कोसा ।। १२॥ (थीजोणीए पुरिसबीअस्स य पमिलाणकालो) पणपण्णाय परेणं . जोणी पमिलायए महिलियाणं । पणसत्तरीय परओ पाएण पुमं भवेबीओ॥ १३ ॥ वाससयाउयमेयं, परेण जा होइ पुव्वकोडीओ।। तस्सद्ध अमिलाया, सव्वाउयवीसभागो उ ।। १४ ।। (पिउसंखा उक्कोसो गब्भवासकालो य) रत्तुक्कडा य इत्थी, लक्खपुहत्तं च बारस मुहुत्ता। पिउसंख सयपुहत्तं, बारस वासा उ गब्भस्स ॥ १५ ॥ १. खड्गविधानकाकारेत्यर्थः ॥ २. जोणि संपत्ता सुक्कमिस्सिया सं० ।। ३. पुहुत्तं जे०॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (गर्भ-धारण के योग्य स्त्री-योनि का स्वरूप) (९) हे आयुष्मान ! स्त्री की नाभि के नीचे पुष्प-डंठल के आकार वाले दो सिरे होते हैं। उसके नीचे उलटे किये हए कमल के आकार वाली योनि स्थित होती है, जो तलवार के म्यान की तरह होती है । (१०) उस योनि के नीचे आम की मंजरी जैसा मांस का पिण्ड होता है, . वह ऋतुकाल में फूटकर खून के कण छोड़ता है। (११) उलटे किये हुए कमल के आकार वाली वह योनि जब शुक्र-मिश्रित होती है, तब वह जीव उत्पन्न करने योग्य होती है, ऐसा जिनेन्द्रों के द्वारा कहा गया है। (१२) गर्भ उत्पति के योग्य योनि में बारह मुहूर्त तक तो लाखों से अधिक जीव रहते हैं (किन्तु) उसके पश्चात् वे विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। . . (स्त्री योनि और पुरुष वीर्य को उत्पादक शक्ति समाप्त होने का काल) (१३) ५५ वर्ष बाद स्त्री योनि गर्भ धारण करने योग्य नहीं रहती है और ७५ वर्ष बाद पुरुष प्रायः शुक्राणु रहित हो जाता है। (१४) सौ वर्ष से पूर्व कोटी तक की जितनी आयु होती है उसके आधे भाग के बाद स्त्री सन्तानोत्पति में असमर्थ हो जाती है और उस आयु का बीस प्रतिशत भाग रहने पर पुरुष शुक्राणु रहित हो जाता है। (पितृ संख्या और उत्कृष्ट गर्भवास काल) (१५) रक्तोत्कट स्त्री यानि डिम्ब युक्त स्त्री योनि बारह मुहूर्त में अधिकतम लक्ष-पृथकत्त्व (दो लाख से नौ लाख तक) जीवों को सन्तान रूप में उत्पन्न करने में समर्थ होती है। बाहर वर्ष के अधिकतम गर्भकाल में एक जीव के अधिकतम नौ सौ पिता हो सकते हैं।' १. गर्भकाल में गर्भस्थ जीव जिन-जिन पुरूषों के वीर्य मिश्रित डिम्ब का अपनी शरीर रचना में उपयोग करता है, वे सभी पिता कहे जाते हैं । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपरणय (गभगयजीवस्स पुरिसाइजाइपरिणा) दाहिणकुच्छी पुरिसस्स होइ, वामा उ इत्थियाए उ । उभयंतरं नपुंसे, तिरिए अट्ठव वरिसाई ॥ १६ ॥ (गन्भुप्पत्ती गब्भगयजीववियासकमो य) - इमो खलु जीवो अम्मा-पिउसंजोगे माऊओयं पिउसुक्कं तं तदुभयसंसंट्ठ कलुसं किब्बिसं तप्पढमयाए आहारं आहारित्ता गब्भत्ताए वक्कमइ ॥१७॥ सत्ताहं कललं होइ, सत्ताहं होइ अब्बुयं । अब्बुया जायए पेसी, पेसीओ वि घणं भवे ।।१८।। तो पढमे मासे करिसूणं पलं जायइ १। बीए मासे पेसी संजायए घणा २।तईए मासे माऊए डोहलं जणइ ३। चउत्थे मासे माऊए अंगाइं पीणेइ ४। पंचमे मासे पंच पिंडियाओ पाणिं पायं सिरं चेव निव्वत्तेइ ५ । छ? मासे पित्तसोणियं उवचिणेइ।- अंगोवंगं च निव्वत्तेइ -१६। सत्तमे मासे सप्त सिरासयाइं पंच पेसीसयाई नव धमणीओ नवनउयं च रोमकूवंसयसहस्साई ९९००००० निव्वत्तेइ विणा केस-मंसुगा, सह केस-मंसुगा अधुढाओ रोमकूवकोडीओ निव्वत्तेइ ३५००००००, ७ । अट्ठमे मासे वित्तीकप्पो हवइ ८॥१९॥ (गभगयस्स जीवस्स आहारपरिणामो) जीवस्स णं भंते ! गब्भगयस्स समाणस्स अस्थि उच्चारे इ वा पासवणे इवा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पित्ते इ वा सुक्के इ वा सोणिए इ १. ।--। एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठः सं० प्रतावेव वर्तते । एतत्प्रकीर्णकवृत्तिकृता एष पाठो व्याख्यातो नास्ति । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (गर्भगत जीव की पुरुष स्त्री आदि परिज्ञा) (१६) दक्षिण कुक्षि पुरुष का और वाम कुक्षि स्त्री का (निवास स्थल) होती है; जो दोनों के मध्य निवास करता है, वह नपंसक जीव होता है। तिर्यञ्च योनि में (गर्भ की स्थिति उत्कृष्ट) आठ वर्ष मानी गयी है। (गर्भ उत्पत्ति और गर्भगत जीव का विकासक्रम) (१७) निश्चय ही यह जीव माता पिता का संयोग होने पर गर्भ में उत्पन्न होता है। वह सर्वप्रथम माता के रज और पिता के शुक्र का कलुष और किल्विष आहार करके गर्भ में स्थित होता है। . (१८) (प्रथम) सप्ताह में (गर्भस्थ जीव) कलल (गाढ़े तरल पदार्थ के रूप में), (दूसरे) सप्ताह में वह अर्बुद अर्थात् जमे हुए दही के समान होता ... है। उसके बाद लचीली मांसपेशी के समान होता है, उसके पश्चात् वह ठोस होता.जाता है। .. (१९) तत्पश्चात् पहले महिने में वह फूले हुए मांस की तरह होता है । दूसरे महीने में बह मांसपिण्ड (पेशी) घनीभूत होता है। (अपने प्रभाव से) तीसरे महिने में माता को दोहद उत्पन्न कराता है। चौथे महिने में माता के (स्तन कटिभाग आदि) अंगों को पुष्ट करता है। पाँच महिने में (दो) 'हाथ (दो) पैर और एक सिर-ये पाँच अंग निर्मित होते हैं। छठे महिने में पित्त एवं रक्त (शोणित) का निर्माण होता है और अन्य अंग उपांग बनते हैं। सातवें महिने में सात सौ शिरायें (नसे), पाँच सौ मांसपेशियाँ, नौ धमनियाँ और सिर और दाढ़ी के बालों के बिना निन्यानवें लाख रोमछिद्र निर्मित होते हैं। और सिर और दाढ़ी के बालों सहित साढ़े तीन करोड़ रोम कूप उत्पन्न होते हैं । आठवें महिने में प्रायः पूर्णता को प्राप्त होता है। (गर्भगत जीव का आहार परिणमन) (२०) हे भगवन् ! क्या गर्भस्थ (जीव) के मल, मूत्र, कफ, श्लेष्म, वमन, पित्त, वीर्य अथवा शोणित (होता है)? यह अर्थ उचित नहीं है अर्थात् ऐसा - नहीं होता है । भगवन् ! किस कारण से (आप) ऐसा कहते हैं कि १. यपि गर्भस्थ जीव में शोणित होता है किन्तु उसे वह निर्मित नहीं करता, इसलिए ऐसा कहा गया है कि उसके शोणित आदि नहीं होते हैं। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालयपण्णयं ? इस से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुञ्चइ - जीवस्स णं गब्भगयस्स -समाणस्स नत्थि उच्चारे इ वा जाव सोणिए इ वा ? गोयमा ! जीवे णं गब्भगए समाणे जं आहारमाहारेइ तं चिणाइ सोइंदियत्ताए 'चक्खुइदियत्ताए घाणिदियत्ताए जिब्भिदिवत्ताए फासिदिवत्ताए अदि-अट्टिमिंज केस-मंधुरोम - नहत्ताए, से एएणं अद्वेगं गोयमा ! एवं वुच्चइ - जीवस्स णं गन्भयस्स समाणस्स नत्थि उच्चारे इ वा जाव सोणिए इ वा ||२०|| [गब्भगयस्स जीवस्स आहारविही] जीवे णं भंते ! गभगए समाणे पहू मुहेणं कावलियं आहार आहारित्तए' ? गोयमा ! नो इणट्टे समट्टे । से केणट्ठेणं भंते ! एवं बुच्चई - जीवे णं गब्भगए समाणे नो पहू मुहेणं कावलियं आहारं आहारितए ? गोयमा ! जीवे णं गब्भगए समाणे सव्वओ आहारेइ, सव्वओ परिणामेइ, सव्वंओ ऊससइ, सव्वओ नीससइ; अभिक्खणं आहारेs, अभिक्खणं परिणामेइ, अभिक्खणं ऊससइ, अभिक्खणं नीससइ, आहच्च आहारेइ, आहच्च परिणामेइ, आहच्च ऊससइ, आहच्च नीससइ; से माउजीवरसहरणी पुत्तजीवरसहरणी माउजोवपडिबद्धा 'पुत्तजीवंफुडा तम्हा आहारिइ तम्हा परिणामेइ, अवरा वि य णं पुत्तजीवपडिबद्धा माजीवडा हा चिणा तम्हा उवचिणाइ, "से एएणं अट्ठेणं गोयमा । एवं वुच्चइita i गब्भगए समाणे नो पहू मुहेणं कावलियं आहारं आहारेत्तए ||२१| १. क्खुरिदि सं० ॥ २. °ए ? नो इणट्ठे समट्ठे गो० ! से सं० ६० ॥ ३. इणमट्ठे स० पु० ० ॥ ४. पुत्तजीवफुडा सं० हं० ।। ५. सेतेणऽट्ठेणं जाव नो पभू भगवत्यां पाठः ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक गर्भस्थ जीव के मल यावत् खून नहीं होता है ? गौतम ! गर्भस्थ जीव (माता के शरीर से) जो आहार करता है, उसको श्रोतेन्द्रिय, चक्षुन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय व स्पर्शेन्द्रिय के रूप में हड्डी, मज्जा, केश, दाढ़ी-मूंछ, रोम और नखों के रूप में उपचित करता है। हे गौतम! इस कारण यह कहा जाता है कि गर्भस्थ जीव को मल यावत् खून नहीं होता है। (गर्भस्थ जीव को आहार विधि) (२१) हे भगवन् ! गर्भस्थ समर्थ जीव मुख के द्वारा कवल-आहार करने में समर्थ है ? हे गौतम! यह अर्थ योग्य नहीं है। भगवन् ! किस कारण से (आप) ऐसा कहते हैं कि गर्भस्थ जीव मुख के द्वारा कवल-आहार करने में ( सक्षम ) नहीं है? हे गौतम ! गर्भस्थ जीव सभी ओर से आहार करता है, सभी ओर से परिणमित करता है, सभी ओर से श्वास लेता है और छोड़ता है। निरन्तर आहार करता है और निरन्तर (उसे) परिणमित करता है, निरन्तर श्वास लेता है और छोड़ता है। (वह गर्भस्थ जीव) जल्दी-जल्दी आहार करता है और जल्दी-जल्दी ही उसे परिणमित करता है, (वह) जल्दी-जल्दी श्वास लेता है और श्वास छोड़ता है। माता के शरीर से प्रतिबद्ध पुत्र के शरीर को स्पर्शित करने वाली माता के शरीर रस की ग्राहक और पुत्र के जीवन रस की संग्राहक (एक नाड़ी होती है जिसके कारण गर्भस्थ जीव) जैसा आहार ग्रहण करता है वैसा ही उसे परिणमित करता है। पुनः पुत्र के शरीर से प्रतिबद्ध हो माता के शरीर को स्पर्श करने वाली एक अन्य नाड़ी होती है उससे जैसा चय होता है वैसा ही उपचय होता है। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि समर्थ गर्भस्थ जीव कवल-आहार को मुख द्वारा ग्रहण नहीं करता है।' (१) गर्भस्थ अवस्था में माता के शरीर से पुत्र के शरीर को जोड़ने वाली जो .. नाड़ियाँ होती हैं उनके माध्यम से ही गर्भस्थ जीव माता के द्वारा परिण मित और उपचित आहार को ग्रहण करता है और निस्सरित करता है इसलिए यह कहा जाता है कि गर्भस्थ जीव न तो मुख से आहार करने में सक्षम है और न उसके अपने मल, मूत्र, पित्त, कफ आदि होते हैं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहलक्यालिपपई . जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे किमाहारं आहारेइ ?, गोयमा ! जं से माया नाणाविहाओ. रसविगईओ तित्त-कडुय-कसायंबिल-महराई दव्वाइं आहारेइ तओ एगदेसेणं ओयमाहारेइ ॥२२॥ [गब्भत्थस्स जीवस्स आहारो] तस्स फलबिटसरिसा उप्पलनालोवमा भवइ नाभी। रसहरणी जणणीए सयाइ नाभीए पडिबद्धा ॥२३॥ नाभीए ताओ गब्भो ओयं आइयइ अण्हयंतीए । ओयाए तीए गब्भो विवड्ढई जाव जाओ त्ति ॥२४॥ [गब्भुप्पन्नजीवं पडुच्च माउ-पिउअंगनिख्वणं] कइ णं भंते ! माउअंगा पण्णत्ता? गोयमा! तो माउअंगा पण्णत्ता, तं जहा-मसे १ सोणिए २ मत्थुलंगे। ३। कइ णं भंते ! पिउअंगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ पिउअंगा पण्णत्ता, तं जहा-अट्ठि १ अट्टिमिजा २ केस-मंसु-रोम-नहा ३ ॥२५॥ [गभगयस्स जीवस्स गरएसु उप्पत्ती] जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे "नरएसु उववज्निज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेजा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा । से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ जीवे णं गब्भगए समाणे 'नरएसु अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्येगइए नो उववज्जेजा ? गोयमा ! जे णं जीवे गब्भगए समाणे सन्नी पंचिदिए सव्वाहिं पज़्जत्तीहिं पज्जत्तए वीरियलद्धीए विभंगनाणलडीए वेउव्विअल-- दीए वेउव्वियलद्धिपते पराणीअं आगयं सोच्चा निसम्म पएसे निच्छुहइ, २त्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ, २ त्ता चाउरंगिणिं सेन्नं सन्नाहेइ, सन्नाहित्ता पराणीएण सद्धि संगाम संगामेइ, से णं जीवे अत्थकामए. रज्जकामए भोगकामए कामकामए, अत्थकंखिए रज्जकंखिए भोगकंखिए कामकंखिए, अत्थपिवासिए रज्जपिवासिए भोगपिवासिए कामपिवासिए. तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्टोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए, एयंसिं च णं अंतरंसि कालं करेज्जा नेरइएसु 'उववज्जेज्जा, से एएणं अटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जीवे णं गब्भगए समाणे नेरइएसु अत्थेगए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो. उववज्जेज्जा ॥२६॥ १. °गईओ आहारमाहारेइ भगवत्यां पाठः ।। २. °त्थुलिंगे सं० । 'त्थुलंगे पु०॥ ३-४. पिइअंगा सं० ॥ ५-६. नेरइएसु सं० भग० ॥ ७. लखीए वेउव्व-- णिढिपत्ते परा० सं० । लडीए वेउब्वियलद्धिपत्ते परा' भग० ॥ ८. सेन्नं विउब्वइ, चातुरंगिणी सेन्नं विउव्वेत्ता चाउरंगिणीए सेणाए परा° भगवतीसूत्र ।। ९. उववज्जइ, से भग० ।। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक १.१ (२२) हे भगवन् ! गर्भ में रहा हुआ जीव, क्या आहार करता है ? हे गौतम ! उसकी माता, जो नाना प्रकार की रसविकृतियों-तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल, मधुर द्रव्यों का आहार करती है, उसका ही आंशिक रूप से ओज आहार करता है। (गर्भ में स्थित जीव का आहार) (२३) उस गर्भस्थ जीव की फलों के डण्ठल के समान, कमलनाल के आकार वाली नाभि होती है, वह रस ग्राहक नाडी से माता की नाभि से जुड़ी हुई होती है। (२४) उस नाभि से गर्भ, ओज आहार करता है और उसी ओज आहार को ग्रहणकर गर्भ वृद्धि को प्राप्त करता है, यावत् उत्पन्न होता है। . (गर्भस्थ जीव के माता पिता के अंग निरूपण) ... (२५) हे भगवन् ! (गर्भ के) मातृ-अंग किसने होते हैं ? ... ... ... ... हे गौतम ! माता के तीन अंग कहे गये हैं। वे इस प्रकार है-१.. मांस २. रक्त, ३. मस्तक का स्नेह । हे भगवन् ! पिता के कितने अंग. कहे गये हैं ? हे गौतम ! पिता के तीन अंग कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं १. हड्डी २. मजा ३. केश, दाढ़ी, मूंछ, रोम एवं नख । .... (२६) हे भगवन् ! क्या गर्भ में रहा हुआ जीव (गर्भकाल में ही मरकर) नरक में उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! कोई उत्पन्न होता है, कोई उत्पन्न नहीं होता है। हे भगवन् ! आप यह किस कारण से कहते हैं. कि गर्भ में विद्यमान कोई जीव नरक में उत्पन्न होता है और कोई. उत्पन्न नहीं होता है ? . हे गौतम! गर्भ में रहा हुआ संज्ञी पंचेन्द्रिय और सब पर्या-- प्तियों से पर्याप्त जीव वीर्यलब्धि, विभंगज्ञानलब्धि वैक्रियलब्धि द्वारा शत्रु सेना को आया हुआ सुनकरके विचार करके अपने आत्म प्रदेशों को निकालता है, उन्हें बाहर निकाल करके वैक्रिय समुद्घात करता है, वैक्रिय समुद्घात करके चतुरंगिणी सेना की संरचना करता है, सेना की संरचना करके उससे शत्रु सेना के साथ युद्ध करता है। वह अर्थ का कामी, राज्य का कामी, भोग का कामी काम का कामी, अर्थाकांक्षी, राज्याकांक्षी, भोगाकांक्षी, कामाकांक्षी, अर्थ का प्यासा, राज्य का प्यासा, भोग का प्यासा, काम का प्यासा, उन्हीं चित्त वाला, उन्हीं के मन वाला, उन्हीं की लेश्या वाला, उन्हीं Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपाइपयं . (गभगयस्स जीवस्स देवलोएसु उत्पत्ती) __ जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे देवलोएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा । ‘अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा । से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जे णं जीवे गब्भगए समाणे सण्णी पंचिदिए सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तए' वेउव्वियलद्धीए वीरियलद्धीए, ओहिनाणलद्धीए तहारुवस्स समणस्स वा 'माहणस्स वा अंतिए 'एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म तओ से भवइ तिव्वसंवेगसंजायसड्ढे तिव्वधम्माणुरायरत्ते, से गं जीवे 'धम्मकामए पुण्णकामए सग्गकामए मोक्खकामए', धम्मकंखिए पुन्नकंखिए सग्गकंखिए, मोक्खकंखिए, धम्मपिवासिए पुन्नपिवासिए सग्गपिवासिए मोक्खपिवासिए, तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदप्पियकरणे तट्ठोवउत्ते तब्भावणाभाविए, एयंसि णं अंतरंसि कालं करेज्जा देवलोएसु उववज्जेज्जा, से एएणं अट्ठणं गोयमा ! एवं वुच्चइअत्यंगझए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा ॥२७॥ - (गम्भगयस्स जीवस्स माउसमसहावया) जीवे णं भंते ! गभगए समाणे उत्ताणए वा पासिल्लए वा अंबखुज्जए वा अच्छेज्ज वा चिट्ठज्ज वा निसीएज्ज वा तुयट्टेज्ज वा आसएज्ज वा सएज्ज का माऊए सुयमाणीए सुयइ जागरमाणीए जागरइ सुहिआए सुहिओ भवइ दुहिआए दुहिओ भवइ ? हंता गोयमा! जीवे णं गन्भगए समाणे उत्ताणए वा जाव दुक्खिआए दुक्खिओ भवइ ।।२८।। २. मवि याऽऽरियं सं० ॥ २. °ए एवं धम्म सं० ॥ ३. तम्मणे जाव तब्भावणा सं०॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकोणक . के अध्यवसाय वाला. उन्हीं में तत्पर, उन्हीं के लिए क्रिया करने वाला, उन्हीं भावनाओं से भावित, समय के इसी अन्तराल में काल (मृत्यु) को प्राप्त हो जाय (तो) नरक में उत्पन्न होता है । इसलिए हे गौतम ! इस प्रकार कहा जाता है-गर्भ में विद्यमान कोई जीव नरक में उत्पन्न होता है और कोई जीव उत्पन्न नहीं होता है । (गर्भस्थ जीव की देवलोकों में उत्पत्ति) (२७) हे भगवन् ! गर्भ में स्थित जीव क्या देवलोको में उत्पन्न होता है ? हे गौतम! कोई जीव (देवलोक में) उत्पन्न होता है कोई उत्पन्न नहीं होता है। हे भगवन् । ऐसा. किस कारण से कहते हैं कि कोई (जीक) उत्पन्न होता है (और) कोई (जीव) उत्पन्न नहीं होता है? हे गौतम! गर्भ में स्थित संज्ञी पंचेन्द्रिय एवं सब पर्याप्तियों से युक्त जीव वैक्रियलब्धि, वीर्यलब्धि, अवधिज्ञान-लब्धि के द्वारा तथा-- रूप श्रमण या ब्राह्मण के पास में एक भी आर्य एवं धार्मिक सुवचन सुनकर, धारण करके शीघ्र ही संवेग से उत्पन्न तीव्र धर्मानुराग से अनुरक्त होता है । वह धर्म का कामी, पुण्य का कामी, स्वर्ग का कामी, मोक्ष का कामी, धर्म का आकांक्षी, पुण्य का आकांक्षी, स्वर्ग का आकांक्षी, मोक्ष का आकांक्षी, धर्म का पिपासु, पुण्य का पिपासु, स्वर्ग का पिपासु व मोक्ष का पिपासु, उसी में चित्तवाला, उसी के अनुसार मन वाला, उसी के अनुसार लेश्या वाला, उसी के अनुसार अध्यवसाय वाला, उसी में प्रयत्नशील, उसी में तत्पर, उसी के प्रति समर्पित होकर क्रिया करने वाला, उसी भावना से भावित अगर उसी समय में मृत्यु को प्राप्त हो जाय तो देवलोक में उत्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम! इस प्रकार कहा जाता है कि कोई (जीव देवलोक में) उत्पन्न होता है, कोई जीव उत्पन्न नहीं होता है। (गर्भस्थ जीव का माता के समान स्वभाव) (२८) हे भगवन् ! क्या गर्भ में स्थित जीव सीधा लेटता है या पार्श्वशायी होता है, या वक्राकार होकर लेटता है या खड़ा होता है या बैठता है, सोता है, जागता है अथवा माता के सोने पर सोता है या माता के जागने पर जागता है, माता के सुखी होने पर सुखी होता है एवं दुःखी होने पर दुःखी होता है ? हे गौतम ! गर्भ में स्थित जीव सीधा लेटता है यावत् दुःखी होने पर दुःखी होता है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदुलोवाकिया 'थिरजायं पि हु रक्खइ, सम्म सारक्खई तओ जणणी। . संवाहई तुयट्टइ रक्खइ अप्पं च गन्भं च ।। २९ ।। अणुसुयइ सुयंतीए, जागरमाणीए जागरइ गम्भो। सुहियाए होइ सुहिओ, दुहियाए दुक्खिओ होइ॥ ३०॥ उच्चारे पासवणे खेले सिंघाणए वि से नस्थि । अट्ठीमिज-नह-केस-मंसु-रोमेसु . परिणामो ॥३१॥ आहारो परिणामो उस्सासो तह य चेव नीसासो। सव्वपएसेसु भवइ, कवलाहारो य से नत्थि ॥ ३२ ।। एवं बोंदिमइगओ गम्भे संवसइ दुक्खिओ जीवो। परमतिमिसंधयारे अमेज्झभरिए पएसम्मि ॥ ३३ ॥ - (पुरिसित्थि-नपुंसगाईणं उप्पत्ती) - आउसो! तओ नवमे मासे तीए वा पडुप्पन्ने वा अणागए वा चउण्हं माया अन्नयरं पयायइ । तं जहा-इत्थि वा इत्थिरवेणं १ पुरिसं वा पुरिसख्वेणं २ नपुंसगं वा नपुंसगरूवेणं ३ बिंबं वा बिबरूवेणं ४ ॥ ३४ ॥ अप्पं सुक्कं बहुं ओयं "इत्थीया तत्थ जायई । अप्पं ओयं बहुं सुक्कं पुरिसो तत्थ जायई ।। ३५ ।। दोण्हं पि रत्त-सुक्काणं 'तुल्लभावे नपुंसगो। इत्थीओयसमाओगे बिबं तत्थ पजायइ ॥३६॥ १. चिरजायं पि हु गम्भं सम्म सं० ॥ २. सुही, दुहि सं०॥ ३. °मतमसंघ° जे०॥४. पइभयम्मि सं०॥५. °त्थी तत्व पजायई सं०॥ ६.तुल्लयाए नपु० सं०॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुमचारिकप्रकीर्णक (२९) स्थिर रहे हुए गर्भ का माता रक्षण करती है, सम्यकप से परिपालन करती है (तत्पश्चात्) उसका वहन करती है, उसे सीधा रखती है और इस प्रकार गर्भ की तथा अपनी रक्षा करती है। (३०) गर्भस्थ जीव (माता के) सोने पर सोता है, जागने पर जागता है, सुखी होने पर सुखी होता है (और) दुःखी होने पर दुःखी होता है । (३१) उसे विष्ठा, मत्र, कफ, नासिका मल भी नहीं होते हैं और आहार अस्थि, अस्थिमज्जा, नख, केश, दाढ़ी-मूंछ के रोमों (के रूप) में परिणमित (हो जाता है)। (३२) (गर्भस्थ जीव का) आहार-परिणमन एवं उच्छ्वास और निःश्वास सभी (शरीर) प्रदेशों से होता है (और) वह कवलाहार नहीं (करता है)। (३३) इस प्रकार दुःखी जीव गर्भ में शरीर को प्राप्त कर अशुचि से भरे हुए सर्वाधिक अंधकार से युक्त प्रदेश में निवास करता है। .(पुरुष, स्त्री, नपुंसक आदि की उत्पत्ति) (३४) है आयुष्मन् ! तब नौवें महिने में माता उसके द्वारा उत्पन्न होने वाले गर्भ को चार में से किसी एक रूप में जन्म देती है। वे इस प्रकार हैं-स्त्री को स्त्री के रूप में, पुरुष को पुरुष के रूप में, नपुंसक को नपुंसक के रूप में और बिम्ब को बिम्ब (मांस-पिण्ड) के रूप में।। .(३५) शुक्र अल्प और ओज अधिक होता है (तो) स्त्री उत्पन्न होती है (और जब) ओज कम और शुक्र अधिक होता है (तो) पुरुष उत्पन्न होता है। (३६) जब ओज और शुक्र दोनों की मात्रा समान होती है तो नपुंसक उत्पन्न __ होता है (शुक्र के अभाव में) मात्र स्त्री के ओज़ की स्थिरता होने पर बिम्ब उत्पन्न होता है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुसवेयालियपहन्णय: ( गभस्स निक्खमणं) .. . अह णं पसवणकालसमयंसि सीसेण वा पाएहिं वा आगच्छइ 'सममागच्छइ तिरियमागच्छइ विणिघायमावज्जइ ॥३७॥ (उक्कोसो गब्भवासकालो) कोइ पुण पावकारी बारस संवच्छराई उक्कोसं । अच्छइ उ गब्भवासे असुइप्पभवे असुइयम्मि ॥३८॥ (गम्भवासस्स सरूवं विरूवया य) जायमाणस्स जं दुक्खं मरमाणस्स वा पुणो । तेण दुक्खेण सम्मूढो जाइ सरइ नऽप्पणो ॥३९॥ विस्सरसरं रसंतो तो सो जोणीमुहाउ निप्फिडइ । माऊए अप्पणो वि य वेयणमउलं जणेमाणो ॥४०॥ गम्भघरयम्मि जीवो कुंभीपागम्मि नरयसंकासे। "वुच्छो अमेज्झमज्झे असुइप्पभवे असुइयम्मि ॥४१॥ पित्तस्स य सिंभस्स य सुक्कस्स य सोणियस्स वि य मज्झे । मुत्तस्स पुरीसस्स य जायइ' जह वच्चकिमिउ व्व ॥४२॥ तं दाणि सोयकरणं केरिसर्ग होइ तस्स जीवस्स?। सुक्क-रुहिरागराओ जस्सुप्पत्ती . सरीरस्स ॥४३॥ एयारिसे सरीरे कलमलभरिए । अमेज्झसंभूए। निययं विगणिज्जंतं सोयमयं केरिसं तस्स ? ॥४४॥ [वाससयाउगस्स मणुयस्स दस दसाओ) आउसो ! एवं जायस्स जंतुस्स कमेण दस दसाओ एवमाहिज्जति । तं जहा बाला १ किड्डा २ मंदा ३ बला ४ य पन्ना ५ य हायणि ६ पवंचा ७। पब्भारा ८ मुम्मुही ९ सायणी य १० दसमा १० य कालदसा ॥४५॥ १. सम्ममा सं०, अयं पाठभेदो वृत्तिकृता उल्लिखितो व्याख्यातश्चाप्यस्ति । २. जाइं न सरइ अप्पणो सं०॥ ३. वीसरसरं सं० ॥ ४. वुत्थो अ° सं०॥ ५. जाओ जह सं०॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (गर्भ का निर्गमन) (३७) प्रसव समय में (शिशु) सिर से अथवा पैरों से बाहर निकलता है। यदि वह सीधा बाहर निकलता है (तो सकुशल जन्म लेता है, परन्तु यदि) वह तिरछा हो जाता है तो मरण को प्राप्त होता है। (उत्कृष्ट गर्भवासकाल) (३८) कोई पापात्मा अशुचि प्रसूत और अशुचि रूप गर्भवास में अधिक से अधिक बारह वर्ष तक रहता है । (गर्भवास का स्वरूप और विविध रूप) (३९) जन्म के समय और मृत्यु के समय (जीव) जिस दुःख को प्राप्त करता है उस दुःख से विमूढ़ बना हुआ (वह जन्म के समय) अपने पूर्वजन्मों का स्मरण नहीं कर पाता है। (४०) तब क्रन्दन करता हुआ तथा अपनी माता के शरीर को पीड़ा उत्पन्न करता हुआ वह योनि-मुख से बाहर निकलता है। (४१) गर्भगृह में जीव कुंभीपाक नरक के समान विष्ठा, मल, मूत्र आदि अशुचि से प्रभूत अशुचि स्थान में उत्पन्न होता है। (४२) जिस प्रकार विष्ठा में कृमि (समूह) उत्पन्न होता है उसी प्रकार पुरुष के पित्त, कफ, वीर्य, खून और मूत्र के बीच (जीव) उत्पन्न होता है। (४३) उस जीव का शुद्धिकरण कैसे हो सकता है जिसकी उत्पत्ति ही शुक्र रूधिर के समूह से हुई हो? (४४) अशुचि से उत्पन्न एवं हमेशा दुर्गन्धयुक्त विष्ठा से भरे हुए एवं सदैव शुचि की अपेक्षा करने वाले इस शरीर पर गर्व कैसा ? (सौ वर्ष की आयु के मनुष्य की दस दशाएँ) (४५) हे आयुष्मन् ! इस प्रकार उत्पन्न जीव की क्रम से दस दशाएँ कही गयी हैं, वे इस प्रकार हैं-१. बाला २. क्रीडा ३. मंदा ४. बला ५. प्रज्ञा ६. हायनी ७. प्रपञ्चा ८. प्रग्भारा ९. मुन्मुखी एवं १०. शायनी। (ये) जीवनकाल की दस अवस्थाएँ कही गयी हैं। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णय 'जायमित्तस्स जंतुस्स जा सा पढमिया दसा। न तत्थ सुक्ख दुवखं वा छुहं जाणंति बालया १ ॥४६॥ बीयं च दसं पत्तो नाणाकीडाहिं कीडई। न य से कामभोगेसु तिव्वा उप्पज्जए मई २ ॥४७॥ तइयं च दसं पत्तो पंच कामगुणे नरो। समत्थो भुंजिउं भोगे जइ से अत्थि घरे धुवा ३ ॥४८॥ चउत्थी उ बला नाम जं नरो दसमस्सिओ। समत्थो बलं दरिसेउं जइ सो भवे निरुवद्दवो ४ ॥४९॥ . पंचमी उ दसं पत्तो आणुपुव्वीइ जो नरो। समत्थो अत्थं विचितेउं कुडुंब चाभिगच्छई ५ ॥५०॥ छट्ठी उ हायणी नाम जं नरो दसमस्सिओ। विरज्जइ काम-भोगेसु, इंदिएसु य हायई ६॥५१॥ सत्तमी य पवंचा उ जं नरो दसमस्सिओ। निठुभइ चिक्कणं खेलं खासई य खणे खणे ७॥५२॥ संकुइयवलीचम्मो संपत्तो अमि दसं। नारीणं च अणिट्ठो उ जराए परिणामिओ ८॥५३॥ नवमी मुम्मुही नामं जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संते जीवो वसइ अकामओ ९ ॥५४॥ हीण-भिन्नसरो दीणो विवरीओ विचित्तओ। दुब्बलो दुक्खिओ सुयइ" संपत्तो दसमि दसं १० ॥५५॥ : १. सा० आदर्श इत आरभ्य गाथात्रयमित्थंरूपं विकृतं मूले आदृतं दृश्यते तथाहि जायमित्तस्स जंतुस्स जा सा पढमिया दसा। न तत्थ भुंजिउं भोए जइ से अस्थि घरे धुवा १ ।। बीयाए किड्डया नामं जं नरो दसमस्सिओ। किड्डारमणभावेण दुलहं गमइ नरभवं २ ॥४७॥ तइया य मंदया नाम, जं नरो दसमस्सिओ । मंदस्स मोहभावेणं इत्थीभोगेहि मुच्छिो ३ ॥४८॥ मया तु प्राचीनेष्वादशेषु सर्वेष्वप्युपलब्धो वृत्तिकृता व्याख्यातश्च सुव्यवस्थितः पाठो मूले आदृतोऽस्ति ।। २. सुहं दुक्खं वा न हु जाणंति सं० । एतत्साठभेदानु. सारेणैव वृत्तिकृता व्याख्यातमस्ति, किञ्च नायं पाठभेदः सम्यक् समीचीनोऽस्तीति ।। ३. ब्वीय जो सं० ॥ ४. °ज्जई य कामे, इंदि सा. वृ० ॥ ५. वसइ पु० ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (४६) जन्म होते ही जो जीव प्रथम अवस्था को प्राप्त होता है, उसमें वह अज्ञानता के कारण सुख, दुःख और क्षुधा को नहीं जानता है।' (४७) दूसरी अवस्था को प्राप्त वह नाना प्रकार की क्रीडाओं के द्वारा क्रीडा __ करता है। उसकी काम-भोगों (मैथुन-सुख) में तीन मति उत्पन्न नहीं होती है। (४८) जिस समय मनुष्य तीसरी अवस्था को प्राप्त होता है, (उस समय) वह पाँच प्रकार के विषय भोगों को भोगने के लिए निश्चय ही समर्थ होता है। (४९) चौथी बला नामक अवस्था के आश्रित मनुष्य किसी बाधा के उपस्थित न होने पर अपने बल प्रदर्शन में समर्थ होता है। . (५०) क्रम से जो मनुष्य पाँचवीं अवस्था को प्राप्त होता है, (वह) धन की चिन्ता के लिए समर्थ होता है (अर्थात् धन की चिन्ता करता है) एवं परिवार को प्राप्त होता है। (५१) छठी ह्रासमान अवस्था के आश्रित मनुष्य, इन्द्रियों में शिथिलता आने पर, कामभोगों के प्रति विरक्त होता है। (५२) सातवीं प्रपञ्चा नामक दशा के आश्रित मनुष्य स्निग्धं लार और कफ गिराने लगता है और बार-बार खाँसता रहता है। (५३) संकुचित हुई पेट की चमड़ी वाला आठवीं अवस्था को प्राप्त मनुष्य नारियों का अप्रिय हो जाता है और बुढ़ापे में परेणमन (करता है)। (५४) नवी मुन्मुख नामक दशा (है), जिस दशा के आश्रित (मनुष्य का) शरीर वृद्धावस्था से आक्रान्त हो जाता है और वह मनुष्य काम-वासना से रहित होकर रहता है। ((५५) दसवीं दशा को प्राप्त व्यक्ति की वाणी क्षीण हो जाती है और स्वर भिन्न हो जाता है । वह दीन, विपरीत-बुद्धि, भ्रान्त-चित्त, दुर्बल एवं दुःखद अवस्था को प्राप्त होता है। १. जन्म के पश्चात् प्रथम अवस्था में सुख, दुःख आदि संवेदनाएं तो होती है किन्तु यह सुख हैं, यह दुःख है, यह भूख है, ऐसा वह नहीं जानता है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णयं दसगस्स 'उबक्खेवो, वीसइवरिसो उ गिण्हई विज्ज। भोगा य तीसगस्सा, चत्तालीसस्स विन्नाणं ।।५६।। पन्नासयस्स चक्खं हायइ, सट्टिक्यस्स बाहुबलं । सत्तरियस्स उ भोगा, आसीकस्साऽऽयविन्नाणं ॥५७॥ नउई नमइ सरीरं, पुन्ने वाससए जीवियं चयइ । केत्तिओऽत्थ सुहो भागो ? दुहभागो य केत्तिओ?॥५८।। (क्ससु वसासु सुह-दुक्खविवेगेण धम्मसाहणोवएसो) जो वाससयं जीवइ सुही भोगे य भुंजई। तस्सावि 'सेविउं सेओ धम्मो य जिणदेसिओ ॥५९॥ . किं पुण सपच्चवाए जो नरो निच्चदुक्खिओ? । सुट्ट्यरं तेण कायन्वो धम्मो य जिणदेसिओ ॥६०॥ . नंदमाणो चरे धम्म 'वरं मे लटुतरं भवे'। अणंदमाणो वि चरे धम्म ‘मा मे पावतरं भवे' ॥६॥ न वि जाई कुलं वा वि विजा वा वि सुसिक्खिया। "तारे नरं व नारिं वा, सव्वं पुण्णेहि वड्ढई ॥६२।। पुण्णेहिं हायमाणेहिं पुरिसगारो वि हायई। पुण्णेहिं वडढमाणेहिं पुरिसगारो वि वड्ढई ॥६३।। १. अव० सं० ॥ २. °गस्स य चत्तालीसस्स बलमेव सा० ॥ ३. भोगा य सत्तरिस्स उ, आसीकस्सा° पु० । भोगा य सत्तरिस्स य, असीययस्सा सा० ॥ ४. सेवियं से° सं०॥ ५. तारेइ नर सं० ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलर्वचारिक प्रकीर्णक २१ (५६) दस वर्ष (तक) की उम्र दैहिक विकास की, बीस वर्ष तक की उम्र विद्या को ग्रहण करने की, तीस वर्ष तक की उम्र विषय सुख भोगने की और चालीस वर्ष तक की उम्र विशिष्ट ज्ञान की होती है । (५७) पचास वर्ष की आयु में आँख की दृष्टि क्षीण होने लगती है, साठ वर्ष की उम्र में 'बाहुबल क्षीण होने लगता है, सत्तर वर्ष की उम्र में विषय - सुख भोगने की सामर्थ्य क्षीण होने लगती है और अस्सी वर्ष की आयु में आत्म- चेतना भी क्षीण हो जाती है । (५८) नब्बे वर्ष की उम्र शरीर को झुका देती है। सौ वर्ष की आयु जीवन समाप्त हो जाता है (इस प्रकार ) यहाँ जीवन में कितना सुख का भाग है और कितना दुःख का भाग है (यह बतलाया गया है) । ( दस दशाओं में सुख-दुःख का विवेक और धर्म-साधना का उपदेश) (५९) जो सौ वर्ष सुखपूर्वक जीवित रहता है (अर्थात् जीता है) और भोगों को भोगता है, उसके लिए भी जिन-भाषित धर्म का सेवन करना श्रेयस्कर है। (६०) ( जो मनुष्य नित्य दुःख युक्त और कष्टपूर्ण अवस्था में ही जीवन जीता हो, उसके लिए क्या श्रेयष्कर है ? उत्तर में कहा गया कि उसके लिए जिनेन्द्रों द्वारा उपदेशित श्रेष्ठतर धर्म का पालन करना ही कर्त्तव्य है । (६१)(सांसारिक सुख भोगता हुआ (मनुष्य यह सोचकर ) धर्म का आचरण करे कि इससे मुझे भवान्तर में श्रेष्ठ सुख प्राप्त होगा । दुःखी होता हुआ भी ( मनुष्य यह सोचकर ) धर्म का आचरण करे कि भवान्तर दुःख को प्राप्त नहीं होऊँगा । में (६२), नर अथवा नारी को जाति, कूल, विद्या और सुशिक्षा भी (संसार--- समुद्र से) पार नहीं उतारते हैं, ये सभी तो शुभ कर्मों से ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं । (६३) शुभ कर्मों के क्षीण होने से पौरुष भी क्षीण हो जाता है और शुभ कर्मों के वृद्धि को प्राप्त होने पर पौरुष भी वृद्धि को प्राप्त होता है । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुल वेयालियइणयं ( अंतराय बहुले जीविए पुण्णकिच्चकरणोवएसो ) पुणाई खलु आउसो ! किच्चाई करणिजाई पोइकराई वन्नकराई धणकराई कित्तिकराई । नो य खलु आउसो ! एवं चिंतेयव्वं - एसिति खलु बहवे समया आवलिया खणा आणापाणु थोवा लवा मुहुत्ता दिवसा अहोरत्ता पक्खा मासा रिऊ अयणा संवच्छरा जुगा वाससया वाससहस्सा वाससय सहस्सा, वासकोडीओ वासकोडाकोडीओ, जत्थ णं अम्हे बहूई सीलाइ वयाइं गुणाई वेरमणाई पच्चक्खाणाई पोसहोववासाइं पडिवज्जिस्सामो पट्ठविस्सामो करिस्सामो, ता किमत्थं आउसो ! नो एवं चितेयन्वं भवइ ? - अंतराइयबहुले खलु अयं जीविए, इमे य बहवे वाइय- पत्तिय-सिभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायंका फुसंति जीवियं ॥ ६४ ॥ २२ ( जुगलिय- अरिहंत - चक्कवट्टिआईणं देहाइइड्ढीओ ) आसीय खलु आउसो ! पुव्वि मणुया ववगयरोगाऽऽयंका बहुवाससयसहस्सजीविणो । तं जहा - जुयलधम्मिया अरिहंता वा चकवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा चारणा विबाहरा ।। ६५ ।। ते णं मणुया अणतिवरसोम - चारुरूवा भोगुत्तमा भोगलक्खगधरा सुजायसव्वंगसुंदरंगा रत्तुप्पल- 'पउमकर-चरणको मलंगुलितला नग-गगरमगर-सागरचक्कंकधरंकलक्खणंकियतला सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा अणुपुव्विसुजाय-पीवरंगुलिया उन्नय-तणु-तब- निद्धनहा संठिय-सुसिलिट्ठगूढगोल्फा एणी - कुरुविंदावत्तवट्टाणुपुव्विजंघा " सामुग्गनिमग्गगूढजाणू गवससणसुजायसन्निभोरू वरवारणमत्ततुल्लविक्कम-विलासियगई सुजायवरतुरयगुज्झदेसा आइन्नहउ व्व निरुवलेवा पमुइयवरतुरग सोअइरेगवट्टिय कडी साहयसोणंद - मुसलदप्पण - निगरियवर कणगच्छरु सरिस - वरवइरवलियमज्झा १. राई घणकराई जसकराई कित्ति सं० पु० । वृत्तिकृता उपरिस्थापित एव पाठो व्याख्यातोऽस्ति ॥ २. एसंति सा० ॥। ३. अत्र श्रीमता वृत्तिकृता अतिवसोम इति अणतिवरसोम' इति च पाठद्वयं व्याख्यातमस्ति || ४. पत्तमंतक' पु० ।। ५ °विद-वत्त वट्टाणुपुन्नजंघा वृ० ।। ६. मत्तपदं वृत्तो व्याख्यातं नास्ति ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (अतराय बहुल जीवन से पुण्यकृत करुण उपदेश) (६४) हे आयुष्मान् ! पुण्य-कृत्यों को करने से प्रीति में वृद्धि होती है, प्रशंसा होती है, धन में वृद्धि होती है और कीर्ति में वृद्धि होती है, (इसलिए) हे आयुष्मान् ! यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि यहाँ पर बहुत समय, आवलिका, क्षण, श्वासोच्छ्वास, स्तोक, लव, मुहर्त्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, शतवर्ष, सहस्त्रवर्ष, लाख वर्ष, करोड़ वर्ष (अथवा) क्रोडा-क्रोड वर्ष (जीना है), जहाँ हम बहुत से शील, व्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास स्वीकार करके स्थिर रहेंगे। हे आयुष्मान् ! तब इस प्रकार का चिन्तन क्यों नहीं होता है कि निश्चय ही यह जीवन बहुत बाधाओं से युक्त है और इसमें बहुत से वात्त, पित्त, श्लेष्म, सन्निपात आदि विविध रोगांतक जीवन को स्पर्श करते हैं ? . ( यौगलिक, अर्हत्, चक्रवर्ती आदि की देह ऋद्धि) (६५) हे आयुष्मान् ! पूर्व काल में यौगलिक, अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण और विद्याधर आदि मनुष्य रोगों से दूर होने के कारण लाखों वर्षों तक जीवन-जीने वाले होते रहे हैं। (६६) वे मनुष्य अत्यन्त सौम्य, सुन्दर रूप वाले, उत्तम भोगों को भोगने वाले, उत्तम लक्षणों को धारण करने वाले, सर्वांग सुन्दर शरीर से युक्त (होते हैं)। उनके चरणतल और करतल लाल कमल के पत्तों की तरह लाल एवं कोमल (होते हैं)। (उनकी) अंगुलियाँ भी कोमल. (होती हैं)। (उनके) चरणतल पर्वत, नगर, मगर, सागर तथा चक्र आदि उत्तम और मंगल चिह्नों से युक्त (होते हैं)। पैर कछुए के समान सुप्रतिष्ठित, पैर की अंगुलियाँ अनुक्रम को प्राप्त सघन एवं छिद्ररहित, पैर के नाखून उन्नत पतले एवं कान्तियुक्त, पैरों के गुल्फ (टखने) सुश्लिष्ट एवं सुस्थित, जंघाएँ हरिणी एवं कुरुविन्द नामक तृण के समान वृत्ताकार, घुटने डिब्बे और उसके ढक्कन की संधि के समान, उरू हाथी की सूंड की तरह, गति श्रेष्ठ मदोन्मत्त हाथी के समान विक्रम और विलास से युक्त, गुह्य-प्रदेश उत्तम जाति के श्रेष्ठ घोड़े के समान (मल से अलिप्त), कटि-प्रदेश सिंह की कमर से भी अधिक गोलाकार, शरीर का मध्य भाग समेटी हुई तिपाई, मूसल, दर्पण और शुद्ध किये गये उत्तम सोने से निर्मित खड्ग की मूठ एवं वज के समान वलयाकार, नाभि गंगा के आवर्त एवं प्रदक्षिणावर्त Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ तंदुलवेयालियपइण्मयं गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुग-बोहिय" उक्कोसायंतपउमगंभीरवियडनाभी उज्जुय-समसहिय-सुजाय-जच्च-तणु -कसिणनिद्ध-आएनलडह-सुकुमाल-मउय-रमणिज्जरोमराई झस-विहगसुजाय-पीणकुच्छी झसोयरा पम्हवियडनाभा. संगयपासा सन्नयपासा सुंदरपासा सुजायपासा .मियमाइय-पीण-रइयपासा अकरंडुयकणगरुयग- निम्मल-सुजाय-निरुवहयदेहधारी पसत्थ-बत्तीसलक्खणधरा कणगसिला-यलुज्जलपसत्थसमतल-उवचिय-वित्थिन्नपिहुलवच्छा सिरिवच्छंकियवच्छा पुरवरफलिहवट्टियभुया 'भुयगोसरविउलभोगआयाणफलिह-उच्छूढदोहबाहू जुगसन्निभपीण-रइय-पीवरपउट्ठसंठिय-उवचिय-घण - थिर-सुबद्ध - सुवट्ट-सुसिलिट्ठ लट्ठपव्वसंधी रत्ततलोवचिय-मउय-मंसल-सुजाय-लक्खणपसत्यअच्छिद्दजालपाणी पोवर-वट्टिय-सुजाय-कोमलवरंगुलिया तंब-तलिण-सुइरुइरनिद्धनक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्कपाणिलेहा सोत्थियपाणिलेहा ससि-रवि-संख-चक्क-सोत्यियविभत्त-सुविरइयपाणिलेहा वरमहिसवराह-सीह-सदूल-उसभ-नागवरविउल-पडिपुन्न-उन्नय-मउदक्खंधा' चउरंगुलसुपमाण-कंबुवरसरिसगीवा अवट्ठिय-सुविभत्त-चित्तमंसू मंसलसंठिय-पसत्य-सद्लविउलहणुया . ओयवियसिलप्पवाल-बिंबफलसन्निभाटा' पंडुरससिसगलविमल-निम्मलसंख-गोखोरकुंद-दगरय-मुगालियाधवलदंतसेढी अखंडदंता अफुडियदंता अविरलता सुनिदंता सुजायदंता एगदंतसेढी विव अणेगदंता हुयवहनिद्धत-धोय-तत्ततवणि-जरत्ततल-तालु १. °यअक्कोसायं० सं० पु० । यविक्कोसा वृ० ।। २. °यगेस° पु० ॥ ३.४. सत्थिय° पु० ॥ ५. मउंद° सं० ॥ ६. °धरओट्ठा पंडर० सं०॥ ७. .°सुद्धदं सं० ॥ ८. °दंता से° वृपा० ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक तरंग के समूह के समान घुमावदार और सूर्य की किरणों से विकसित कमल की तरह गम्भीर और गूढ, रोमराजि ऋजु, समान रूप से सटी हुई, सुन्दर, स्वाभाविक, पतली, काली, स्निग्ध, प्रशस्त, लावण्ययुक्त, अतिकोमल, मृदु और रमणीय, कुक्षि मत्स्य और पक्षी के समान उन्नत, उदर मत्स्य के समान, नाभि कमल के समान विस्तीर्ण, स्निग्ध पार्श्व वाले, झुके हुए पार्श्व वाले, मनोहर पार्श्व वाले, सुन्दर रूप से उत्पन्न 'पाव वाले, अल्प रोम युक्त पार्श्व (वाले होते हैं) । (वे ऐसे) देह के धारक (होते हैं), (जिनकी) रीढ़ की हडडी मांस से भरी होने से नजर नहीं आती (है)। (वे) स्वर्ण के समान निर्मल, सुन्दर बनावट वाले और रोगादि के उपसर्ग से रहित और प्रशस्त बत्तीस लक्षणों से युक्त (होते हैं)। (उनके) वक्षस्थल सोने की शिला-तल के समान उज्जवल, प्रशस्त, समतल, पुष्ट, विशाल और श्रीवत्स चिह्न से चिह्नित, भुजाएँ नगर के द्वार की अर्गला के समान गोलाकार, बाह भुजंगेश्वर के विपूल शरीर एवं अपने स्थान से निकली हुई अर्गला के समान लटकती हुई, संधियाँ युग सन्निभ, मांसल, गूढ, हृष्ट-पुष्ट, संस्थित, सुगठित, सुबद्ध, नसों से कसी हुई, ठोस, स्थिर, वर्तुलाकार, सुश्लिष्ट, सुन्दर एवं दृढ़, हाथ रक्ताभ हथेलियों वाले, पुष्ट, कोमल, माँसल, सुन्दर बनावट वाले और प्रशस्त लक्षणों वाले, अंगलियां पुष्ट, छिद्ररहित, कोमल एवं श्रेष्ठ, नाखून तांबे जैसे रंग वाले, पतले, स्वच्छ, कान्ति युक्त, सुन्दर और स्निग्ध, हस्त-रेखाएँ चन्द्रमा-चिह्न, सूर्य-चिह्न, शंख-चिह्न, चक्र-चिह्न एवं स्वास्तिक आदि शुभ चिह्नों से युक्त, सूर्य, चन्द्रमा, शंख, चक्र, स्वास्तिक आदि से विभक्त एवं सुविरचित, कंधे श्रेष्ठ भैंसे, सुअर, 'सिंह, व्याघ्र, सांड़ एवं हाथी के कंधे के समान विपुल, परिपूर्ण, उन्नत और मृदु, गर्दन चार अंगुल सुपरिमित एवं शंख के समान श्रेष्ठ, दाढ़ी-मूंछ अवस्थित-एक सी रहने वाली तथा सुस्पष्ट, ठोढ़ी पुष्ट, मांसल, सुन्दर एवं व्याघ्र के समान विस्तीर्ण, अधरोष्ठ संशुद्ध मुंगे एवं बिम्बफल के समान लाल रंग वाले, दाँतों की पंक्ति चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल शंख, गौदुग्ध के फेन, कुन्दपुष्प, जलकण और मृणाल नाल की तरह श्वेत, दांत अखण्ड, सुडौल अविरल—एक दूसरे से सटे हुए, अत्यन्त स्निग्ध एवं सुन्दर, एक दन्त पंक्ति अनेक दाँतों वाली, तालु एवं जिह्वा तल अग्नि में तपाकर धोये हुए स्वच्छ सोने के समान, स्वर सारस पक्षी के समान मधुर, नवीन मेघ के गर्जन के समान गंभीर तथा क्रोञ्च पक्षी के घोष के Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णय जीहा 'सारसनक्थणि यमहुरगंभीर-कुचनिग्घोस-दुंदुहिसरा गरुलायय-उज्जुतुंगनासा अवदारिअपुंडरीयवयणा कोकासियधवलपुंडरीयपत्तलच्छा आनामियचावरुइल-किण्हचिहुरराइसुसंठिय - संगय - आयय - सुजायभुमया अल्लीण-पमाण,जुत्तसवणा सुसवणापीणमसलकवोलदेस-भागा अइरुग्गयसमग्ग-सुनिद्धचंदद्धसंठियनिडाला उडुवइपडिपुन्नसोमवयणा छत्तागारुत्त-- मंगदेसा घण-निचिय-सुबद्ध-लक्खणुन्नय-कूडागार [निभ-] निरुवमपिंडियऽग्गसिरा हुयवहनिद्धत-धोय-तत्ततवणिज्जकेसंतकेसभूमी सामलीबोंडघणनिचिच्छोडिय-मिउ-विसय-सुहुम-ल.वखणपसत्य-सुगंधि-सुंदर-भुयमोयग-भिंगनील-कन्जल - पहट्ठभमरगणनिद्ध - निउरंबनिचिय -कुंचिय-पयाहिणावत्तमुद्धसिरया लक्खण वंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणपडिपुग्नसुजायसव्वंगसुंदरंगा ससिसोमागारा" कंता पियदंसणा सब्भावसिंगारचारुरूवा पासा-- ईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ।। ६६ ।। ते णं मणुया ओहस्सरा मेहस्सरा हंसस्सरा कोंचस्सरा नंदिस्सरा नंदिघोसा सीहस्सरा सीघोसा मंजुस्सरा मजुघोसा सुस्सरा सुस्सरघोसा' अणुलोमवाउवेगा कंकरगहणी. कवोयपरिणामा सउणिप्फोस-पिटुंतरो-- रुपरिणया पउमुप्पल' गंधसरिसनीसासा' सुरभिवयणा छवी निरायंका १०उत्तम - पसत्थाऽइसेस - निरुवमत - जल्लमल-कलंक सेय-रय-दोसवज्जिय-- सरीरा११ निरुवलेवा छायाउज्जोवियंगमंगा वनरिसहनारायसंघयणा समचउरंससंठाणसंठिया छधणुसहस्साइं उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता । ते णं मणुया२ दो छप्पन्नपिट्ठकरंडगसया पण्णत्ता समणाउसो ! ।। ६७ ।। १. सारसमहर° वृ०॥ २. गबाल चंदसंठिय° सं० ॥ ३. °वयपडि° पु०॥ ४. °सुहम° सं० ॥ ५. °गार-कंत-पिय° सं० ॥ ६. °स्सरनिग्घोसा सं० ।। ७. °णीपोस० सं० पु० ॥ ८. लसुरभिगंधनी सं० । लसुगंधिसरिसनी सा० ॥ ९. नीसाससुर° वृ०॥ १०. °पसत्थ-अहय-सम-निरुवहयवयणा जल्ल° सं० ॥ ११. °सरीरनिरु वृ० ॥ १२. °या बे छ सं० ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक २७. समान दुंदुभि युक्त, नाक गरूड़ की चौंच के समान लम्बी, सीधी और उन्नत, मख विकसित कमल के समान, आंखें पद्म कमल की तरह विकसित, धवल एवं पत्रल भौंहे थोड़ी नीचे झुकी हुई धनुष के समान सुन्दर, पंक्तियुक्त, काले मेघ के समान उचित मात्रा में लम्बी और सुन्दर, कान कुछ शरीर से चिपके हुए, प्रमाण युक्त, गोल और आसपास का भाग मांसल युक्त एवं पुष्ट, ललाट अर्ध चन्द्रमा के समान संस्थित, मुख परिपूर्ण चन्द्रमा के समान सौम्य, मस्तक छत्र के आकार. के समान उभरा हुआ, सिर का अग्रभाग मुद्गर के समान, सुदृढ़ नसों से आबद्ध, उन्नत लक्षणों से युक्त, एवं उन्नत शिखर युक्त सिर को. चमड़ी अग्नि में तपाये हुए स्वच्छ सोने के समान लाल रंग से युक्त, सिर के बाल शाल्मली (समल) वृक्ष के फल के समान धने, प्रमाणोपेत, बारीक,कोमल, सुन्दर, निर्मल, स्निग्ध, प्रशस्त लक्षणों से युक्त, सुगन्धित, सुन्दर, भुजभोजक रत्न, नीलमणी एवं काजल के समान काले. हर्षित भ्रमरों के झुण्ड की तरह समूह रूप, धुंधराले और दक्षिणावर्त.. (होते हैं) । (वे) उत्तम लक्षणों, व्यंजनों, गणों से परिपूर्ण प्रमाणोपेत. मान-उन्मान, सर्वांग सुन्दर, चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाले,. सुन्दर, प्रियदर्शी, स्वाभाविक शृंगार के कारण सुन्दर रूप वाले, प्रासाद गुणयुक्त, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप ( होते हैं)। (६७) वे मनुष्य अक्षरित स्वर वाले, मेघ के समान स्वर वाले, हंस के समान स्वर वाले, कौंञ्च पक्षी के समान स्वर वाले, नन्दी स्वर वाले, नन्दी घोष वाले, सिंह के समान स्वर वाले, सिंह-घोष वाले, दिशा-- कुमार देवों के घण्टे के समान स्वर एवं घोष वाले, उदधि कुमार देवों के घण्टे के समान स्वर एवं घोष वाले, शरीर में वायु के अनुकूल वेग. वाले, कपोत के समान स्वभाव वाले, शकुनि पक्षी के समान निर्लेप. मलद्वार वाले, पीठ एवं पेट के नीचे सुगठित दोनों पाव एवं उचित परिमाण जंघाओं वाले, पद्म कमल या नील कमल के समान. सुगन्धित मुख वाले, तेजयुक्त, निरोग, उत्तम, प्रशस्त, अत्यन्त श्वेत, अनुपम, जल्ल-मल्ल, दाग, पसीने एवं रज से रहित शरीर वाले, अत्यन्त स्वच्छ, प्रभा से उद्योतित अंग वाले, वज्रऋषभ-नाराच संहनन वाले, समचतुरस्रसंस्थान में संस्थित एवं छः हजार धनुष ऊँचाई वाले कहे गये हैं। हे आयुष्मान् श्रमण ! वे मनुष्य दो सौ छप्पन पीठ की हडिडयों से युक्त कहे गये हैं। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२८ तंदुलवेयालियपइण्मयं ते णं मणुया पगइभद्दया पगइविणीया पगइउवसंता पगइपयणुकोहमाण-माया-लोभा मिउ-मद्दवसंपन्ना अल्लीणा भद्दया विणीया अप्पिच्छा असन्नि-हिसंचया अचंडा असि-मसि-किसी-वाणिज्जविवज्निया विडिमंतरनिवासिणो इच्छियकामकामिणो गेहागाररुक्खकयनिलया पुढवि-पुप्फफलाहारा, ते णं मणुयगणा पण्णत्ता ॥६८।। ... (संपइकालीणमणुयाणं देह-संघयणाइहाणी धम्मियजणपसंसा य) आसी य समणाउसो! पुब्वि मणुयाणं छविहे संघयणे । तं जहावज्जरिसहनारायसंघयणे १ रिसहनारायसंघयणे २ नारायसंघयणे ३ अद्धनारायसंघयणे ४ 'कीलियासंघयणे ५ छेवट्ठसंघयणे ६ । संपइ खलु आउसो ! मणुयाणं छेवढे संघयणे वट्टइ.॥६९।। आसी य आउसो ! पुच्चि मणुयाणं छविहे संठाणे । तं जहा–समचउरंसे १ नग्गोहपरिमंडले २ 'सादि ३ खुज्जे ४ वामणे ५ हुंडे ६ । संपइ खलु आउसो ! मणुयाणं हुंडे संठाणे वट्टइ ।।७।। संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च मणुयाणं । अणुसमयं परिहायइ ओसप्पिणिकालदोसेणं ॥७१।। कोह-मय-माय-लोभा उस्सन्नं वड्ढए मणुस्साणं । कूडतुल कूडमाणा तेणऽणुमाणेण सव्वं ति ॥७२।। . विसमा अज्ज तुलाओ, विसमाणि य जणवएसु माणाणि । विसमा रायकुलाई, तेण उ विसमाइं वासाइं ।।७३।। विसमेसु य वासेसुं हुंति असाराई ओसहिबलाई । ओसहिदुब्बल्लेण य आउं परिहायइ नराणं ।।७४॥ एवं परिहायमाणे लोए चंदु व्व कालपक्खम्मि । जे धम्मिया "मणुस्सा सुजीवियं जीवियं तेसि ।।७५।। १. खीलिया° सं० ।। २. साति सं० ॥ ३. °ए य मणुयाणं सा० ॥ ४. चंदो व्व सं० ।। ५. मणूसा सा० पु० ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (६८) वे मनुष्य स्वभाव से सरल, प्रकृति से विनीत, स्वभाव से विकार-- रहित, प्रकृति से स्वल्प क्रोध-मान-माया-लोभ वाले, मुदु और मार्दव सम्पन्न, तल्लीन, सरल, विनीत, अल्प इच्छा वाले, अल्पसंग्रही, शान्त स्वभावी, असि-मसि-कृषि एवं व्यापार से रहित, गृहाकार वृक्ष की शाखाओं पर निवास करने वाले,' इप्सित विषयाभिलाषी, कल्पवृक्ष पर लगे हुए पृथ्वी फल एवं पुष्प का आहार करने वाले कहे गये हैं। ( सम्प्रतिकालीन मनुष्यों को देह, संहनन आदि की हानि और धर्म जन प्रशंसा) . (६९) हे आयुष्मान् श्रमण ! पूर्वकाल में मनुष्यों के छः प्रकार के संहनन होते थे, जो इस प्रकार हैं:-(१) वजऋषभनाराच संहनन (२) ऋषभनाराच संहनन (३) नाराच संहनन (४) अर्धनाराच संहनन (५) कीलिका संहनन (६) सेवात संहनन । हे आयुष्मान् ! सम्प्रति काल में मनुष्यों का सेवार्त संहनन ही होता है। (७०) हे आयुष्मान् ! पूर्व काल में मनुष्यों के छ: प्रकार के संस्थान होते थे, जो इस प्रकार हैं:-(१) समचतुरस्र (२) न्यग्रोधपरिमण्डल (३) सादिक (४) कुब्ज (५) वामन (६) हुण्डक। किन्तु हे आयुष्मान् ! सम्प्रति काल में मनुष्यों का मात्र हुण्डक संस्थान ही होता है। (७१) मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊँचाई और आयुष्य अवसर्पिणी काल के दोष के कारण समय-समय क्षीण होती रहती है। (७२) उसी ( काल दोष) के कारण मनुष्यों के क्रोध, मद, माया, लोभ एवं खोटे तोल-माप की प्रवृत्ति आदि सभी ( अवगुण ) बढ़ते हैं। (७३) उसी के अनुसार आज तुलायें विषम होती हैं और जनपदों में माप तोल (भी) विषम होते हैं। राजकुल विषम होता है और वर्ष भी विषम होते हैं। (७४) विषम वर्षों अर्थात् विषम काल में औषधि की शक्ति भी निस्सार हो जाती है । इस समय में औषधि के दौर्बल्य के कारण मनुष्यों की आयु अल्प हो जाती है। (७५) इस प्रकार कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की तरह ह्रासमान लोक में जो धर्म में अनुरक्त मनुष्य हैं, वे ही अच्छी तरह जीवन जीते हैं। १. वृक्ष की शाखाएं प्रासाद की तरह आकृति वाली होती थी, वे उन पर निवास करने वाले होते थे। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० तंदुलवेयालियपइण्णयं (वाससयाउयमणुयस्स वाससयविभागा आहारपमाणाइ य) आउसो ! से जहानामए केइ पुरिसे व्हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल-पायच्छित्ते सिरंसिण्हाए कंठमालकडे आविद्धमणि-सुवण्णे अहयसुमहग्यवत्थपरिहिए चंदणोक्किण्णगायसरीरे सरससुरहिगंधगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावन्नग-विलेवणे कप्पियहारऽद्धहार-तिसरय-पालंबपलंबमाणकडिसुत्तयसुकयसोहे पिणद्धगेविज्जे अंगुलेज्जगललियंगयललियकयाभरणे नाणामणि-कणग-रयणकडग-तुडियथंभियभुए अहियरूवसस्सिरीए कुंडलुजोवियाणणे मउडदित्तसिरए 'हारुच्छयसुकय-रइयवच्छे पालंबपलंबमाण-सुकयपडउत्तरिज्जे मुद्दियापिंगलंगुलिए नाणामणिकणग-रयणविमलमहरिह -निउणोविय-मिसिमिसित-विरइय- सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-ल?आविद्धवीरवलए। किं बहुणा ? कप्परुक्खए चेव अलंकिय-विभूसिए सुइपए भवित्ता . अम्मा-पियरो अभिवादएज्जा । तए णं तं पुरिसं अम्मा-पियरो एवं वएजा-जीव पुत्ता ! वाससयं ति । तं पिआई तस्स नो बहुयं भवइ कम्हा ? ॥७६।। ७६॥ वाससयं जीवंतो वीसं जुमाइं जीवइ, वीसं जुगाइं जीवंतो दो : अयणसयाई जीवइ, दो अयणसयाई जीवंतो छ उउसयाई जीवइ, छ उउसयाई जीवंतो बारस माससयाई जीवइ, बारस माससयाइं जीवंत्तो चउवीसं . पक्खसयाई जीवह, चउवीसं पक्खसयाई जीवंतो, छत्तीसं राइंदिअसहस्साई जीवइ, छत्तीसं राइंदियसहस्साई जीवंतो दस असीयाई मुहत्तसयसहस्साइं जीवइ दस असीयाइं मुहुत्तसयसहस्साई जीवंतो चत्तारि ऊसासकोडिसए सत्त य कोडीओ अडयालीसं च सयसहस्साइं चत्तालीसं च ऊसाससहस्साइं जीवइ, चत्तारि य ऊसासकोडिसए जाव चत्तालीसं च ऊसाससहस्साइं जीवंतो अद्धत्तेवीसं तंदुलवाहे भुंजइ ॥७७।। १. हारोत्थय सं० ॥ २. रिउस सं० ॥ ३.४, आसीयाई सं०॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (मनुष्य को सौ वर्ष वायु, सौ वर्ष विभाग __ और आहार परिमाण आदि) (७६) हे आयुष्मन् ! वह यथानाम का कोई पुरुष स्नान करके, देवताओं की पूजा करके, कौतुक-मंगल और प्रायश्चित करके, सिर से स्नान करके, गले में माला पहनकर, मणियों और स्वर्णाभूषों को धारण करके, नवीन और बहुमूल्य-वस्त्र धारण करके, चन्दन से उपलिप्त शरीर वाला होकर, स्निग्ध, सुगंधित गौशीर्ष चन्दन से अनुलिप्त शरीर वाला . . होकर, शुद्ध मालाओं और विलोपन से युक्त हो, सुन्दर हार, अर्द्ध हार, ... तीन लड़ी वाले हार, लटकाते हुए सुन्दर कटिसूत्र (कन्दौरा) से शोभा यमान होकर, वक्षस्थल पर ग्रैवेयक, अंगुलियों में सुन्दर मुद्रिकायें और भजाओं पर अनेक प्रकार को मणियों और रत्नों से जडित बाजबन्द से विभूषित होकर, अत्यधिक शोभा से युक्त, कुण्डलों से प्रकाशित (उद्योतित) मुखवाला, मुकुट से दीप्त मस्तक वाला, विस्तृत हार की छाया जिसके वक्षस्थल को सुख प्रदान कर रही हो, लम्बे सुन्दर वस्त्र के उत्तरीय को धारण कर अंगुठियों से पीत वर्ण की अँगुलियों वाला, विविध मणि, स्वर्ण, विशुद्ध रत्न युक्त, बहुमूल्य, प्रकाश-युक्त, सुश्लिष्ट, विशिष्ठ, मनोहर, रमणीय और वीरत्व का सूचक कड़ा धारण कर अधिक क्या कहना ? कल्पवृक्ष के समान, अलंकृत, विभूषित एवं पवित्र होकर अपने माता-पिता को प्रणाम करता है। तब उस पुरुष के माता-पिता ने इस प्रकार कहा हे पुत्र ! शतायु हो । किन्तु उसकी आयु (सौ वर्ष की) होती है (तो ही वह सौ वर्ष जीता है अन्यथा नहीं) आयु से अधिक कैसे जी सकता है। . (७७) सौ वर्ष जीता हुआ वह बीस युग जीता है। बीस युग जीता हुआ वह दो सौ अयन जीता है । दो सौ अयन जीता हुआ वह छः सौ ऋतु जीता है। छः सौ ऋतुओं को जीता हुआ वह बारह सौ महिने जीता है। बारह सौ महिने जीता हुआ वह चौबीस सौ पक्ष जीता है। चौबीस सौ पक्ष जीता हुआ वह छत्तीस हजार रात-दिन जीता है। छत्तीस हजार रात-दिन जीता हुआ, वह दस लाख अस्सी हजार मुहूर्त जीता है। दस लाख अस्सी हजार मुहूर्त जीता हुआ वह चार सौ सात करोड़ अड़तालीस लाख चालीस हजार श्वासोश्वास जीता है। चार सौ करोड़ श्वासोश्वास यावत् चालीस हजार श्वासोश्वास जीता हुआ वह साढे बाईस तंदुलवाह' खाता है। १. अन्न का एक परिमाण विशेष जिसको व्याख्या आगे को गयी है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ संदुलवेयालि यपइण्णयं ___ कहमाउसो ! अद्धत्तेवीसं तंदुलवाहे भुंजइ ? गोयमा ! दुब्बलाए खंडियाणं बलियाए छडियाणं खइरमुसलपच्चाहयाणं ववगयतुस-कणियाणं अखंडाणं अफुडियाणं फलगसरियाणं 'इक्विक्कबीयाणं अद्धत्तेरसपलियाणं' पत्थएणं। से वि य णं पत्थए मागहए । कल्लं पत्थो १ सायं पत्थो २ । चउसट्टितंदुलसाहस्सीओ मागहओ पत्यो। बिसाहस्सिएणं कवलेणं बत्तीसं कवला पुरिसस्स आहारो, अट्ठावीसं इत्थियाए, चउवीसं पंडगस्स। एवामेव आउसो ! एयाए गणणाए दो असईओ पसई, दो पसईओ य सेइया होइ, चत्तारि सेइयाओ कुलओ, चत्तारि कुलया पत्थो, चत्तारि पत्था आढगं, सट्ठी आढगाणं जहन्नए कुंभे, असीई आढयाणं मज्झिमे कुंभे, आढगसयं उकोसए कुंभे, अट्टेव य आढगसयाणि वाहे । एएणं वाहप्पमाणेणं अद्धत्तेबीसं संदुलवाहे भुंजइ ।।७८॥ ते य गणियनिट्टिा चत्तारि य कोडिसया सट्टि चेव य हवंति कोडीओ। असिइं च तंदुलसयसहसा हवंति ति मक्खायं ॥७९॥ ॥४६०८०००००० ।। तं एवं अद्धत्तेवीसं तंदुलवाहे भुंजतो अद्धछठे मुग्गकुंभे भुंजइ, अदछ? मुग्गकुंभे भुजतो चउवीसं जेहाढगसयाई भुंजइ, चउवीसं हाढगसयाई भंजतो छत्तीसं लवणपलसहस्साई भुंजइ, छत्तीसं लवणपलसहस्साई भुजंतो छप्पडसाडगसयाइं नियंसेइ, दोमासिएणं परिअट्टएणं मासिएणवापरियट्टएणं बारस पडसाडगसयाइ नियंसेइ । एवामेव आउसो ! वाससयाउयस्स सव्वं गणियं तुलियं मवियं नेह-लवण-भोयण-ऽच्छायणं पि । -एयं गणियपमाणं दुविहं भणियं महरिसीहिं-। जस्सऽस्थि तस्स गणिज्जइ, जस्स नत्थि तस्स किं. गणिज्जइ ?॥८॥ १. एक्केक्क° सं० ।। २. पलिएणं पत्थएणं सं० ॥ ३. °स्स एवं गणियं सं० ॥ ४.।--। एतच्चिह्नमध्यवर्ती पाठः सं० नास्ति । ional Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (७८) हे आयुष्मान् ! वह साढे बाईस तंदुलवाह कैसे खाता है ? हे गौतम ! दुर्बल स्त्री के द्वारा खण्डित, बलवान स्त्री के द्वारा सूप आदि से छटक, खैर के मूसल से कूट कर भूसी और कंकर से रहित कर, अखण्डित एवं परिपूर्ण चावलों के साढे बारह पलों का एक प्रस्थ होता है। वह प्रस्थक मागध भी कहा जाता है। दो बार (चावल खाता है)। (१) सुबह एक प्रस्थ (२) सांयकाल एक प्रस्थ' । एक मागध या प्रस्थक में चौसठ हजार चावल (होते हैं)। दो हजार चावल के दानों के एक कवल के द्वारा पुरुष का आहार बत्तीस कवल, स्त्री का अठाईस कवल और नपुंसक का चौबीस कवल होता है। इस प्रकार हे आयुष्मान् ! यह गणना इस प्रकार है-दो असती की एक प्रसृति, दो प्रसृति की एक सेतिका, चार सेतिका का एक कुंडव, चार कुडव का एक प्रस्थक, चार प्रस्थक का एक आढक, साठ आढक का एक जघन्य कुम्भ, अस्सी आढक का मध्यम कुम्भ, सौ आढक का उत्कृष्ट कुम्भ और आठ सौ आढक का एक वाह होता है। इस वाह प्रमाण से पुरुष साढे बाईस वाह तंदुल खाता है। इस गणित के अनुसार :(७९) (एक वाह में) चार सौ साठ करोड़ और अस्सी लाख चावल के वाने होते हैं । इस प्रकार कहा गया है। (८०) इस प्रकार साढे बाईस वाह तन्दुल खाता हुआ, वह साढे पाँच कुंभ मूंग खाता है, साढे पाँच कुंभ मूंग खाता हुआ वह चौबीस सौ आढक घृत और तेल खाता है, चौबीस सौ आढक स्नेह खाता हुआ वह छत्तीस हजार पल नमक खाता है, छत्तीस हजार पल नमक खाता हुआ वह दो मास में बदलने पर छः सौ धोती (कपड़ा) पहनता है । अगर एक मास में बदलता है (नई धारण करता है), तो बारह सौ धोती. (कपड़ा) पहनता है। इस प्रकार हे आयुष्मान् ! सौ वर्ष की आयु के (मनुष्यों के लिए) स्नेह, नमक, भोजन और वस्त्र का यह , सब गणित या माप-तोल है। यह गणित परिमाण भी महर्षियों के द्वारा दो प्रकार का कहा गया है। जिसके (सब कुछ खाने-पीने पहनने को) है उसकी गणना की जाती है। जिसके (ये सब) नहीं है, उसकी क्या गणना की जाय? १. प्रस्थक या मागध के प्रमाण से प्रतिदिन प्रातः के भोजन के लिए एक प्रस्थक एवं शाम के भोजन हेतु एक प्रस्थक अन्न की आवश्यकता होती है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ तंदुलवेयालियपइण्णयं ववहारगणिय दिह्र 'सुहुमं निच्छयगयं मुणेय व्वं । जइ एयं न वि एवं विसमा गणणा मुणेयव्वा ।।८१॥ (समयाइकालपमाणसरूव) कालो परमनिरुद्धो अविभज्जो तं तु जाण समयं तु । समया य असंखेज्जा हवंति उस्सास-निस्सासे ॥८२॥ हट्ठस्स अणवगल्लस्स निरुवकिट्टस जंतुणो। एगे ऊसास-नीसासे एस पाणु त्ति वुच्चइ ।।८।। सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरिए एस मुहुत्ते वियाहिए || एगमेगस्स णं भंते ! मुहुतस्स केवइया ऊसासा वियाहिया ? गोयमा ! तिन्नि सहस्सा सत्त य सयाइं तेवरिं च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणिओ सव्वेहि अणंतनाणीहिं ॥५॥ दो नालिया मुहुत्तो, सट्टि पुण नालिया अहोरतो। पन्नरस अहोरत्ता पक्खो, पक्खा दुवे मासो ॥८६।। (कालपमाणनिवेययडियाजंतविहाणविही) दाडिमपुप्फागारा लोहमई नालिया उ कायव्वा । तीसे तलम्मि छिदं, छिद्दपमाणं पुणो वोच्छं ॥८॥ *छण्णउइ पुच्छवाला तिवासजयाए गोति (? भि) हाणीए । "अस्संवलिया उज्जुय नायव्वं नालियाछिदं ॥८॥ १. सुहम सं०॥ २. पक्खो, मासो दुवे पक्खा सं० ॥ ३. °मती ना सं०॥ ४. छण्णउतिमूलवालेहि तिवस्सजाताय गोकुमारीय । उज्जुगतपिडितेहि तु कातन्वं णालियाछिड्डु ॥१०॥ इतिस्वरूपा ज्योतिष्करण्डके दृश्यते । अत्र श्री मलयगिरिपादैः गोकुमारीयस्थाने गयकुमारीए इति पाठः उज्जुगत स्थाने उज्जुकत इति च पाठ आदृतोऽस्ति । तथा ज्योतिष्करण्डकमूलप्रत्यन्तरेषु उज्जुगतपिडितेहि तु स्थाने उज्जुकयाऽसंवलिया इति पाठभेदो दृश्यते ॥ ५. असंवलिया उज्जा य नाय° सा० पु०॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक ३५ (८१) पहले व्यवहार गणित को देखा गया। दूसरी सूक्ष्म और निश्चयगत गणित जाननी चाहिए। यदि इस प्रकार न हो तो गणना विषम जाननी चाहिए।' (समय आदि काल परिमाण का स्वरूप) (८२) सर्वाधिक सूक्ष्म काल, जिसका विभाजन नहीं किया जा सके उसे समय जानना चाहिए। एक उच्छ्वास निःश्वास में असंख्यात समय होते हैं। (८३) हष्ट-पुष्ट, ग्लानिरहित और कष्ट रहित पुरुष का जो एक उच्छ्वास निःश्वास होता है, उसे ही प्राण कहते हैं। (८४) सात प्राणों का एक स्तोक (काल), सात स्तोकों का एक लव और सतहत्तर लवों का एक मुहूर्त कहा गया है। (८५) हे भगवन् ! एक मुहूर्त में कितने उच्छ्वास कहे गये हैं ? हे गौतम । (एक मुहर्त में) तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वास (होते है)। सभी अनन्तज्ञानियों के द्वारा यही मुहूर्त (परिमाण) बताया गया है । (८६) दो घड़ी का एक मुहर्त, साठ घड़ी का एक दिन-रात, पन्द्रह दिन रात का एक पक्ष और दो पक्षों का एक महिना (होता है)। (काल परिमाण निवेदक घटिका यन्त्र विधान विधि) (८७) अनार के पुष्प की आकृति वाली लोहमयी घड़ी बना करके उसके तल में छिद्र करना चाहिए । पुनः उस छिद्र प्रमाण को कहूँगा। (८८) तीन वर्ष के गाय के बच्चे के पूंछ के छियानवें बाल जो सीधे हो और मुड़े हुए नहीं हो वेसा (उस आकार का) घड़ी का छिद्र होना चाहिए। १. पूर्व में जिस गणित से सौ वर्ष आयु वाले पुरुष के भोजन और वस्त्र की गणना की गयी है, वह व्यवहार गणित है । दूसरी सूक्ष्म गणित होती है, जब इसके अनुसार गणना की जाती है, तब व्यवहार गणित की गणना नहीं रहती। दोनों की गणना परस्पर भिन्न जाननी चाहिए । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३६ तंदुलवेयालियपइण्णयं 'अहवा उ पुंछवाला दुवासजायाए गयकरेणूए । दो वाला उ अभग्गा नायव्वं नालियाछिदं ॥८९॥ अहवा सुवण्णमासा चत्तारि सुवट्टिया घणा सूई । चउरंगुलप्पमाणा, कायव्वं नालियाछिदं ।।९०॥ उदगस्स नालियाए भवंति दो आढगा उ परिमाणं । 'उदगं च भाणियव्वं जारिसयं तं पुणो वोच्छं ।।९१॥ "उदगं खलु नायव्वं, कायव्वं दूसपट्टपरिपूयं । मेहोदगं पसन्नं सारइयं वा गिरिनईए ॥१२॥ (वरिसमझे मास-पक्ख-राइंदियपमाणं) 'बारस मासा संवच्छरो उ, पक्खा य ते चउव्वीसं । तिन्नेव य सट्ठसया हवंति राइंदियाणं च ॥१३॥ (राइंदिय मासवरिस-चरिससयमज्झे ऊसासमाणं) एगं च सयसहस्सं तेरस चेव य भवे सहस्साई । एग ‘च सयं नउयं हवंति राइंदिऊसासा ॥९४|| तेत्तीस सयसहस्सा पंचाणउई" भवे सहस्साइं। सत्त य सया अणूणा हवंति मासेण ऊसासा ॥१५॥ १. अहवा दुवस्सजायाय गयकुमारीय पुंछवालेहिं । बिहि बिहिं गुणेहि तेहिं तु कातव्वं गालियाछिड्डं ॥१९॥ इतिरूपा गाथा ज्योतिष्करण्डके । एतत्प्रत्यन्तरेषु पुनः-अधवा दुवस्सजाताए गयकणेरूए पुंछसंभूया । दो वाला ओभग्गा कायव्वं नालियाछिदं ॥१९॥ इत्याकारः पाठभेद उपलभ्यते ॥ २. °कणेस्वे सं० ॥ ३. अधवा सुवण्णमासेहि चतुहि चतुरंगुला कया सूयो । णालियतलम्मि तीय तु कातन्वं णालियाछिड्डें ॥२०॥ इतिप्रकारा गाथा ज्योतिष्क रण्डके वर्त्तते । अपि चैतत्प्रत्यन्तरेष्वियं गाथा सुवट्टियास्थाने सुकुट्टिता इत्येतन्मात्रपाठभेदेन तन्दुलवैतालिकसमानाऽपि दृश्यते ।। ४. सवट्टियासं०॥ ५. नायव्वं सा० वृ०॥ ६. उदगं च इच्छितव्वं जारिसगं तं च वोच्छामि इतिरूपमुत्तरार्द्ध ज्योतिष्करण्डके गा० ३४ ।। ७. एयस्स तु परिकम्म कायव्वं ज्योति० गा० ३५ ।। ८. नदीणं सं० ज्योति० गा० ३५ ॥ ९. संवच्छरो उ बारस मासा, पक्खा ज्योति० गा० ३८ ॥ १०. °व सया सट्ठा ह° ज्योति० गा० ३८ ॥ ११. °णउयं भ° सं० ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (८९) अथवा दो वर्ष के हाथी के बच्चे के पूंछ के दो बाल जो टूटे हुए नहीं हो, उस आकार का घड़ी का छिद्र होना चाहिए। (९०) अथवा चार मासे सोने की एक गोल और कठोर सुई, जिसका परि माण चार अंगुल का हो, उसके समान घड़ी का छिद्र करना चाहिए। (९१) (उस) घड़ी में पानी का परिमाण दो आढ़क होना चाहिए। पुनःवह पानी जैसा बताया गया है, उसे कहता हूँ। (९२) पानी को कपड़े के द्वारा छान कर प्रयोग करना चाहिए। (वह पानी) मेघ का स्वच्छ जल हो या शरदकालीन पर्वतीय नदी का (हो), ऐसा जानना चाहिए। (वर्ष के मास, पक्ष और रात-दिन का परिमाण) (९३) बारह माह का एक वर्ष होता है), एक वर्ष में चौबीस पक्ष और तीन सौ साठ रात दिन होते हैं। (दिन, रात, मास, वर्ष और सौ वर्ष के उच्छ्वास परिमाण) (९४) एक रात दिन में एक लाख तेरह हजार एक सौ नब्बे उच्छ्वास होते हैं। (९५) एक माह में तैतीस लाख पंचानवे हजार और पूरे (अन्यून) सात सौ उच्छ्वास होते हैं। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइंण्णयं चत्तारि य कोडीओ सत्तेव य हुंति सयसहस्साई । अडयालीस सहस्सा चत्तारि सया य वरिसेणं ॥९६।। चत्तारि य कोडिसया सत्त य कोडीओ हुंति अवराओ। अडयाल सयसहस्सा चत्तालीसं सहस्सा य ॥९७॥ वाससयाउस्सेए उस्सासा एत्तिया मुणेयव्वा ।। पिच्छह आउस्स खयं अहोनिसं झिज्जमाणस्स ॥९८॥ (आउअवेक्खाए अणिच्चयापरूवणा) राइदिएण तीसं तु मुहुत्ता, नव सया उ मासेणं । हायंति पमत्ताणं, न य णं अबुहा वियाणंति ॥९९।। तिन्नि सहस्से सगले छ च सए उडुवरो हरइ आउ। हेमते गिम्हासु य वासासु य होइ नायव्वं ॥१०॥ वाससयं परमाउ एत्तो पन्नास हरइ निदाए। एत्तो वीसइ हायइ बालत्ते वुड्ढभावे य ॥१०१॥ सी-उण्ह-पंथगमणे खुहा पिवासा भयं च सोगे य । नाणाविहा य रोगा हवंति तीसाइ' पच्छद्धे ॥१०२॥ एवं पंचासीई नट्ठा, पन्नरसमेव जीवंति । जे होंति वाससइया, न य सुलहा वाससयजीवी ॥१०३।। एवं निस्सारे माणुसतणे जीविए अहिवडते । न करेह चरणधम्मं, पच्छा पच्छाणुतप्पिहिह ॥१०४।। घुटुम्मि सयं मोहे जिणेहिं वरधम्मतित्थमग्गस्स । अत्ताणं च न याणह इह जाया कम्मभूमीए ।।१०५॥ 'नइवेगसमं चवलं च जीवियं, जोव्वणं च कुसुमसमं । सोक्खं च जमनियत्तं तिन्नि वि तुरमाणभोजाई ॥१०६।। एयं खु जरा-भरणं परिक्खिवइ वग्गुरा व मिगजूहं । न य णं पेच्छह पत्तं सम्मूढा मोहजालेणं ॥१०७।। १. सइस सं०॥ २. "त्रिंशतः पश्चाद्धे, कोऽर्थः ? शेषत्रिंशतो मध्यात् पञ्चदशवर्षाणि" इति वृत्तिकृतः ।। ३. °णुतप्पिहहा सा० पु० । °गुताहेहा बमू॥४. नयवे° सं.॥ - Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुल वैचारिक प्रकीर्णक ३९ (९६) एक वर्ष में चार करोड़ सात लाख अड़तालीस हजार चार सौ उच्छ्वास होते हैं । (९७-९८) सौ वर्ष की आयु में चार सौ सात करोड़ अड़तालीस लाख चालीस हजार उच्छ्वास जानना चाहिए। अतः रात दिन क्षीण होती हुई आयु के क्षय को देखो । ( आयु की अपेक्षा से अनित्य का प्ररूपण ) (९९) रात दिन में तीस और माह में नौ सौ मुहूर्त्त प्रमादियों के नष्ट होते हैं, किन्तु अज्ञानी इसे नहीं जानते हैं । (१००) हेमन्त ऋतु में सूर्य पूरे तीन हजार छः सौ मुहूर्त आयु को नष्ट करता है । इसी तरह ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओं में भी होता है, ऐसा जानना चाहिए । (१०१) इस लोक में सामान्य सौ वर्ष की नष्ट होते हैं । इसी प्रकार बीस वर्ष हो जाते हैं । (१०२) (शेष ३० वर्ष की आयु के ) पिछले पन्द्रह वर्षों में (व्यक्ति को) शीत, उष्ण, मार्गगमन, भूख, प्यास, भय, शोक और नाना प्रकार के रोग होते हैं । (१०३) इस प्रकार पचासी वर्ष नष्ट हो जाते हैं, जो सौ वर्ष तक जीने वाले होते हैं वे (वास्तव में) पन्द्रह वर्ष ही जीते हैं और सौ वर्ष तक जीने वाले भी सब नहीं होते हैं । आयु में से पचास वर्ष निद्रा में बालपन और वृद्धावस्था में नष्ट (१०४) इस प्रकार जो व्यतीत होते हुए निःस्सार मनुष्य जीवन में सामने आते हुए चारित्र धर्म का पालन नहीं करता है उसे बाद में पश्चाताप करना पड़ेगा । (१०५) इस कर्मभूमि में उत्पन्न होकर भी (कोई मनुष्य) : मोह के वशीभूत जिनेन्द्रों द्वारा प्रतिपादित धर्म-तीर्थ रूपी श्रेष्ठ मार्ग को एवं आत्मस्वरूप को नहीं जानता है । (१०६) (यह) जीवन नदी के वेग के समान चपल, यौवन फूल के समान ( म्लान होने वाला) और सुख भी अशाश्वत (है), ये तीनों शीघ्र ही भोग्य हैं । (१०७) जैसे मृग समूह को जाल परिवेष्टित कर लेता है उसी प्रकार यहाँ ( मनुष्य को ) जरामरण (वेष्टित करता है) । फिर भी मोह जाल से मूढ़ बने हुए (तुम) इसको नहीं देख रहे हो । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलधेयालियपइण्णय . (सरीरसहवं) - आउसो ! जंपि य इमं सरीरं इटुं पियं कंतं मणुगं मणामं मणाभिरामं थेज्जं वेसासियं सम्मयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं, रयणकरंडओ विव सुसंगोवियं, चेलपेडा विव सुसंपरिवुडं, 'तेल्लपेडा विव सुसंगोवियं ‘मा णं उण्हं मा णं सीयं मा णं खुहा मा णं पिवासा मा णं चोरा मा णं वाला मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं वाइय-पित्तिय-सिभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायंका फुसंतु'त्ति कटु । एवं पि याई अधुवं अनिययं असासयं 'चओवचइयं विप्पणासधम्म, पच्छा व पुरा व अवस्स विप्पचइयव्वं ॥१०८।। एयस्स वि याइं आउसो ! अणुपुग्वेणं अट्ठारस य पिटकरंडगसंधीओ, बारस पंसुलिकरंडया, छप्पंसुलिए कडाहे, बिहत्थिया कुच्छी, चउरंगुलिआ गीवा, चउपलिया जिब्भा, दुपलियाणि अच्छीणी, चउकवालं सिरं, बत्तीसं दंता, सत्तंगुलिया जीहा, अधुट्टपलियं हिययं, पणुवीसं पलाइं कालेज्ज । दो अंता पंचवामा पण्णत्ता, तं जहा--"थुल्लते य तणुअंते य । तत्थ णं जे से "थुल्लते तेणं उच्चारे परिणमइ, तत्थ णं जे से तणुयंते तेणं पासवणे परिणमइ । दो पासा पण्णता, तं जहा--वामे पासे दाहिणे पासे य । तत्य गं'से 'वामे पासे से सुहपरिणामे, तत्थ णं जे से दाहिणे पासे से दुहपरिणामे । आउसो ! इमम्मि सरीरए सटुं संधिसयं, सत्तुत्तरं मम्मसयं, तिन्नि अट्ठिदामसयाई, नव ण्हारुयसयाई, सत्त सिरासयाई, पंच पेसीसयाई, नव धमणीओ, नवनउइं च रोमकूवसयसहस्साइं विणा केस-मंसुणा, सह केस-मंसुगा अपुट्ठाओ रोमकूवकोडीओ ॥१०९॥ १.. तेल्लकेला विव सं० वृपा० ॥ २. चयाव° वृ०॥ ३. °गसंधिणो बारस पासुलियकरडया, छप्पंसु° सं० ।। ४-५. थूलते सा० ।। ६. वामपासे पु० ॥ ७. दाहिणपासे पु० ॥ ८, दामाण सया० सं० ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुल वैचारिक प्रकीर्णक [ शरीर स्वरूप ] भूख, (१०८) हे आयुष्मान् ! यह शरीर, इष्ट, प्रिय, कान्त, मनोज्ञ, मनोहर, मनाभिराम दृढ़ विश्वसनीय, सम्मत, अभीष्ट, प्रशंसनीय, आभूषणों एवं रत्नकरण्डक के समान अच्छी तरह से गोपनीय, कपड़े को पेटी एवं तेल पात्र की तरह अच्छी तरह से रक्षणीय, सर्दी, गर्मी, प्यास, चोर, दंश, मशक, वात, पित्त, कफ, सन्निपात आदि रोगों के संस्पर्श से बचाने योग्य माना जाता है । ( किन्तु यह शरीर वस्तुतः) अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत वृद्धि एवं ह्रास को प्राप्त, विनाशशील है अतः पहले या बाद में, इसका अवश्य ही परित्याग करना होगा । (१०९) हे आयुष्मान् ! इस शरीर में पीठ की हड्डियों में क्रमशः अठारह संधियाँ हैं । ( उनमें से ) करण्डक के आकार की बारह पसली की हड्डियाँ होती हैं । (शेष ) छः हड्डियाँ मात्र पार्श्व भाग को घेरती हैं जो कड़ा कही जाती हैं। मनुष्य की कुक्षि एक वितस्ति' परिमाण युक्त और गर्दन चार अंगुल परिमाण की होती है । उसकी जीभ चार पल, आँख दो पल की होती है, हड्डियों के चार खण्डों से युक्त सिरोभाग होता है । उसके बत्तीस दाँत, सात अंगुल परिमाण जीभ, साढ़े तीन पल का हृदय, पच्चीस पल का कलेजा होता है । उसकी होती हैं । जो पाँच वाम परिमाण की कही गयी है । दो आँ इस प्रकार है-स्थूल आँत और पतली आँत । उसमें से जो स्थूल आंत है उससे मलनिस्सरित होता है और उसमें जो सूक्ष्म आँत है उससे मूत्र निस्सरित होता है। दो पार्श्व कहे गये है एक वाम पार्श्व दूसरा दक्षिण पाखं । इसमें से जो बाँया पार्श्व है वह सुख परिणाम वाला है और जो दाँया पार्श्व है वह दुःख परिणाम वाला है (अर्थात् बाँया पार्श्व सुखपूर्वक अन्न पचाता है और दाँया दुःखपूर्वक) । हे आयुष्मान् ! इस शरीर में एक सौ साठ संधियाँ हैं । एक सौ सात मर्मस्थान हैं, एक दूसरे से जुड़ी हुई तीन सौ हड्डियाँ हैं, नौ सौ नसें (स्नायु) हैं, सात सौ शिराएँ (नस) हैं, पाँच सौ मांस पेशियाँ हैं, - नौ धमनियाँ हैं, दाढ़ी मूंछ के रोमों के अतिरिक्त निन्यानवें लाख रोमकूप होते हैं, दाढी मूंछ के रोमों सहित साढ़े तीन करोड़ रोमकूप होते हैं । १. बारह अंगुल का परिणाम विशेष । २. लगभग ५० ग्राम का एक पल होता है । ४१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णय आउसो ! इमम्मि सरीरए सटुं सिरासयं नाभिप्पभवाणं उड्ढागामिणीणं सिरमुवागयाणं जाओ रसहरणीओ त्ति वुच्चंति जाणं सि निस्वघातेणं चक्खु-सोय-घाण-जीहाबलं भवइ, जाणं सि उवधाएणं चक्खु-सोय-घाणजीहाबलं उवहम्मइ । आउसो ! इमम्मि सरीरए सटुं सिरासयं नाभिप्पभवाणं अहोगामिणीणं पायतलमुवगयाणं, जाणं सि निरुवघाएणं जंघाबलं हवइ, 'जाणं चेव से उवघाएणं सीसवेयणाअद्धसीसवेयणामत्थयसूले अच्छीणि अंधिज्जति । आउसो! इमम्मि सरीरए सटुं सिरासयं नाभिप्पभवाणं तिरियगामिणीणं हटतलमुवगयाणं, जाणं सि निस्वघाएणं बाहुबलं हवइ, ताणं चेव से उवघाएणं पासवेयणा 'पोट्टवेयणा कुच्छिवेयणा कुच्छिसूले.. भवइ। आउसो ! इमस्स जंतुस्स सटुं सिरासयं नाभिप्पभवाणं अहोगामिणीणं गुदपविट्ठाणं, जाणं सि निरुवघाएणं मुत्त-पुरीस-वाउकम्मं पवत्तइ, ताणं चेव उवघाएणं मुत्त-पुरीस-वानिरोहेणं अरिसाओ खुब्भंति 'पंडुरोगो भवइ ॥११०॥ आउसो ! इमस्स जंतुस्स पणवीसं सिराओ "सिंभधारिणीओ, पणवीसं सिराओ 'पित्तधारिणीओ, दस सिराओ "सुक्कधारिणीओ, सत्त सिरासयाइं पुरिसस्स, तीसूणाई इत्थीयाए, वीसूणाई पंडगस्स ।।१११॥ ___ आउसो ! इमस्स जंतुस्स रुहिरस्स आढयं, बसाए अद्धाढयं, “मत्थुलिंगस्स पत्थो, मुत्तस्स आढयं, पुरीसस्स पत्थो, पित्तस्स कुलवो, सिंभस्स कुलवो, सुक्कस्स अद्धकुलवो । जं जाहे 8 भवइ तं ताहे अइप्पमाणं भवइ ।।११२॥ १. ताणं सं० ।। २. अंधीयंति पु० । ३. पोट्टवेयणा स्थाने वृत्तिकृता पुट्टिवेय णापाठो व्याख्यातोऽस्ति ।। ४. पेंडरोगो पभवइ सं० ।। ५-७. धारणी सं० ।। ८. °त्थुलुग° सा० ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (११०) हे आयुष्मान् ! इस शरीर में १६० शिराएँ नाभि से निकलकर मस्तिष्क की ओर जाती हैं जिन्हें रसहरणी कहते हैं। ऊर्ध्वगमन करने वाली (उन शिराओं से) चक्ष , श्रोत, घ्राण, जिह्वा को क्रियाशीलता प्राप्त होती है और इनके उपघात से चक्षु, श्रोत, प्राण,, जिह्वा की क्रियाशीलता नष्ट हो जाती है। हे आयुष्मान् ! इस शरीर में १६० शिराएँ नाभि से निकल कर नीचे की ओर जाती हुई पैर के तल तक पहुँचती है, इनसे जंघा को क्रिया-शीलता प्राप्त होती है। इन शिराओं के उपघात से सिर में पीड़ा, अद्धसिर में पीड़ा, मस्तक में शूल और आँखें अन्धी हो जाती हैं। हे आयुष्मान् ! इस शरीर में १६० शिराए नाभि से निकल कर तिरछी जाती है. जो हाथ तल तक पहुंचती है। इनके निरूपधात से बाहु को क्रिया-- शीलता प्राप्त होती है और इनके उपघात से पार्श्व वेदना, पृष्ठ वेदना, कुक्षिपीड़ा और कुक्षिशूल होता है। हे आयुष्मान् ! इस. मनुष्य की १६० शिराएँ नाभि से निकलकर नीचे की ओर जाकर गुदा में मिलती हैं। इनके निरूपधात से मल, मूत्र और वायु उचित मात्रा में होते हैं और इनके उपघात से मूत्र, मल और बायु के निरोध से (मनुष्य) बबासीर से क्षुब्ध हो जाते हैं और पीलिया नामक रोग हो जाता है। (१११) हे आयुष्मान् ! इस मनुष्य के कफ को धारण करने वाली २५: शिराएँ, पित्त को धारण करने वाली २५ शिराएँ और वीर्य को धारण करने वाली १० शिराएँ (होती हैं)। पुरुष के ७०० शिराएँ, स्त्री के तीस कम (अर्थात् ६७०) और नपुंसक के बीस कम (अर्थात् ६८० शिराएँ होती हैं)। (११२) हे आयुष्मान् ! इस मनुष्य के (शरीर में) रक्त का वजन एक आढक,' वसा का आधा आढक, मस्तुलिङ्ग का (फुस्फुस) एक-प्रस्थ, मूत्र का एक आढक, पुरीस का एक प्रस्थ, पित्त का एक कुडव', कफ का एक कुड़व, शुक्र का आधा कुडव (परिमाण होता है)। इनमें जो दोषयुक्त होता है उसमें वह परिप्रमाण अल्प भी होता है। . Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलक्यालियपइण्णय ___पंचकोटे पुरिसे, छक्कोट्ठा इत्थिया । नवसोए पुरिसे, इक्कारससोया इत्थिया। पंच पेसीसयाई पुरिसस्स, तीसूणाई इत्थियाए, वीसूणाई पंडगस्स ॥११३।। [सरीरस्स असुंदरत्तं अभंतरंसि कुणिमं जो (जइ) परियत्तेउ बाहिरं कुज्जा। तं असुई दठूणं सया वि जणणी दुगुंछेज्जा ॥११४॥ माणुस्सयं सरीरं पूईयं मंस सुक्क हड्डेणं । . परिसंठवियं . सोभइ अच्छायण-गंध-मल्लेणं ॥११५॥ इमं चेव य सरीरं सीसघडीमेय-मज्ज-मंस-ट्ठिय-मत्थुलिंग-सोणियवालुंडय-चम्मकोस-नासिय-सिंघाणय-धीमलालयं अमणुण्णगं3 सीसघडीभंजियं गलंतनयणकण्णोटू-गंड-तालुयं अवालुया -खिल्लचिक्कणं चिलि'चिलियं" दंतमलमइलं बीभच्छदरिसणिज्ज अंसलग-बाहुलग-अंगुली-अंगुट्ठगनहसंधिसंघायसंधियमिणं बहुरसियागारं नाल-खंधच्छिरा-अणेगण्हारुबहुधमणीसंधिनद्ध पागडउदर-कवाले कक्खनिक्खुडं कक्खगकलियं दुरंतं अट्ठि'धमणिसंताणसंतयं, सव्वओ समंता परिसवंतं च रोमकूवेहि, सयं असुई, सभावओ परमदुब्भिगंधि, कालिज्जय-अंत-पित्त-जर-हियय-फोप्फस-फेफस'पिलिहोदर-गुज्झ-कुणिम-नवछिड्ड-थिविथिविथिवितहिययं दुरहिपित्त'सिंभ-मुत्तोसहायतणं, सव्वतो दुरंतं, गुज्झोरु-जाणु-जंघा-पायसंघायसंधियं असुइ कुणिमगंधि; एवं चितिज्जमाणं बीभच्छदरिसणिज्ज अधुवं अनिययं असासयं सडण-पडण-विद्धसणधम्मं, पच्छा व पुरा व अवस्सचइयव्वं, निच्छयओ सुठ्ठ जाण, एयं आइ-निहणं, एरिसं सबमणुयाण देहं । एस परमत्थओ सभावो ॥११६।। १. पूइयमं मंस° वृ० । पूईयमंसं व कडुयभंडेणं सं० ।। २. °त्थुलुंग° सा० ।। ३. °ण्णगऊहगं सीस° सं० ।। ४. °या-खेल-खि° सं० ॥ ५. °लियदंतमलमइलं किंकारियं बीभ° सं० पु० ॥ ६. °धिबद्धं सा० ७. °वाडं कक्ख° सं० पु० ॥ ८. °दुग्गंधि सा० ॥ ९. हियय-गोप्फस सं० पु० ॥ १०. °ड्ड-थिविधिवंतहि सं० पु० ॥ · Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक ४५: (११३) पुरुष के शरीर में पाँच कोष्ठक और स्त्री में छः कोष्ठक (होते हैं)। पुरुष में नौ स्रोत (निस्सरण छिद्र) और स्त्री में ग्यारह स्रोत (होते हैं)। पुरुष के पाँच सौ पेशियाँ, स्त्री के तीस कम, (अर्थात् ४७०) नपुंसक के बीस कम (अर्थात् ४८० पेशियाँ होती हैं)। शरीर की असुन्दरता] (११४) यदि (शरीर के) भीतरी मांस को परिवर्तित करके बाहर कर दिया जाय तो उस अशुचि को देखकर स्वयं की माता भी घृणा करने लगेगी। (११५) मनुष्य का शरीर मांस, शुक्र और हड्डी से अपवित्र है परन्तु यह वस्त्र, गन्ध और माला द्वारा आच्छादित होने से शोभित होता है। (११६) यह शरीर खोपड़ी, चर्बी, मज्जा, मांस, अस्थि, मस्तुलिंग, रक्त, वालुण्डक (शरीर के अन्दर का एक अंग) चर्मकोश, नासिका-मल और विष्ठा आदि का घर (है)। यह खोपड़ी, नेत्र, कर्ण, ओष्ठ, कपोल, तालु आदि के अमनोज्ञ मलों से युक्त हैं । होठों का घेरा अत्यन्त लार से चिकना, (मुख) पसीने से युक्त और दांत मल से मलिन, देखने में बीभत्स (घृणास्पद) है। हाथ, अंगुलियाँ, अंगुठा और नखों की संधियों से यह जुड़ा हुआ (है) । यह अनेक तरलखावों का घर है। यह शरीर कंधे की नसें, अनेक शिराओं एवं बहुत सी सन्धियों से बंधा हुआ है। (शरीर में),कपाल (फूटे हुए घड़े) के समान,प्रकट पेट सूखे वृक्ष के कोटर के समान व केशयुक्त अशोभनीय कुक्षि प्रदेश है, हड्डियों और शिराओं के समूह से युक्त इसमें सर्वत्र और सब ओर से रोमकूपों से स्वभाव से ही अपवित्र और घोर दुर्गन्ध युक्त पसीना निकलता रहता है । (इसमें) कलेजा, आँतड़ियां, पित्त, हृदय, फेफड़ा, प्लीहा, फुप्फुस, उदर, ये गुप्त मांसपिण्ड और (मलनावक) नौ छिद्र होते हैं। इसमें थिव-थिव की आवाज (के रूप में धड़कने वाला) हृदय (होता है)। यह दुर्गन्ध युक्त पित्त, कफ, मूत्र और औषधी का निवास स्थान (है) । गुह्य प्रदेश, घुटने, जंघा व पैरों के जोड़ से जुड़ा (यह शरीर) मांसगन्ध से युक्त अपवित्र एवं नश्वर है। इस प्रकार विचार करते हुए एवं इसके १. एक आढक लगभग ३ किलो ५०० ग्राम का होता है। २. एक प्रस्थ लगभग ९०० ग्राम का होता है।। ३. एक कुडव भी लगभग ९०० ग्राम का होता है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "४६ तंदुलवेयालियपइण्णयं [सरीरादिस्स असुभत्तं] सुक्कम्मि सोणियम्मि य संभूओ जणणिकुच्छिमज्झम्मि । तं चेव अमेज्झरसं नव मासे धुंटिउ संतो ॥११७॥ जोणीमुहनिप्फिडिओ थणगच्छीरेण वढिओ जाओ। पमईअमेज्झमइओ किह देहो धोइउ सक्को ? ॥११॥ हा ! असुइसमुप्पन्नया य, निग्गया य तेण चेव य बारेणं । सत्तथा मोहपसत्तया, रमति तत्थेव असुइदारयम्मि ॥११९॥ (इत्थीसरीरनिव्वेओवएसो) किह ताप घरकुडीरी कईसहस्सेहिं अपरितंतेहिं । वन्निज्जा · असुइबिलं जघणं ति सकज्जमूढेहिं ? ॥१२०॥ रापंथ म जाणती य वराया कलमलस्स निदमणं । सा जं परिणंदंती फुल्लं नीलप्पलपणं व ॥१२॥ 'कित्तियमित वण्णे ? अमिज्झमइयम्मि वच्चसंघाए । रागो हु न कायम्वो विरागमूले सरीरम्मि ॥१२२॥ किमिकुलसयसंकिण्णे असुइमचोक्खे असासयमसारे । सेयमलपोच्चडम्मी निव्वेयं वच्चह सरीरे ॥१२३॥ दंतमल-कण्णगृहग-"सिंघाणमले य लालमलबहुले । एयारिसबीभच्छे दुगुंछणिज्जम्मि को रागो? ॥१२४॥ १. घोटिओ सं° सं०॥ २. माउ सं०॥ ३. °इयं सक्का सं०॥ ४. हा! असुइसमुप्पन्ना य निग्गया जेण चेव दारेण । सत्ता मोहपसत्ता रमंति तत्थेव असुइदारम्मि ।। इतिरूपा गाथा सा० वृ०॥ ५. तो णं परियंदंती सं० ॥ ६. केत्तियमेत्तो छिन्नो ? अमेज्झ° सं० ।। ७. चाणग पित्तलालमलबहुले । एयारिसअसुईदुब्बलम्मि असुइम्मि को रागो ? ॥सं० ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक बीभत्स रूप को देख करके यह जानना चाहिए कि यह शरीर अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, सड़न-गलन और विनाश धर्मा तथा पहले या बाद में अवश्य ही नष्ट होने वाला है। यह आदि और अन्त वाला है । सब मनुष्यों की देह ऐसी ही होती है। यह (शरीर) ऐसे ही स्वभाव वाला है। (शरीर आदि का अशुभत्त्व) (११७) माता की कुक्षि में शुक्र और शोणित में उत्पन्न उसी अपवित्र रस को पीने के लिए (यह जीव) नौ मास तक (गर्भ में) रहता है। (११८) योनिमुख से बाहर निकला हुआ, स्तन पान से वृद्धि को प्राप्त हुला, स्वभाव से ही अशुचि और मल युक्त इस शरीर को कैसे धोया जाना शक्य हैं ? (अर्थात् इसे स्नान आदि से कैसे शुद्ध किया जा सकता है ?) (११९) हा, दुःख ! अशुचि में उत्पन्न जिससे वह प्राणी बाहर निकला है, काम क्रीड़ा में आसक्ति के कारण उसी अशुचि योनि-द्वार में रमण करता है। (स्त्री शरीर विरक्ति उपदेश) (१२०) तब अशुचि से युक्त स्त्री के कटि भाग का हजारों कवियों के द्वारा अधान्त भाव से क्यों वर्णन किया जाता है ? (तब उत्तर में कहते हैं कि) इस प्रकार वे स्वार्थवश मूढ़ हो रहे हैं। (१२१) वे बेचारे राग के कारण (यह कटिभाग) अपवित्र मल की थैली है, यह नहीं जानते हैं। इसी कारण (उस कटि भाग को) विकसित नील कमल के समूह के समान मानकर उसका वर्णन करते हैं। (१२२) और कितना वर्णन करें, प्रचुर मेद युक्त, परम अपवित्र, विष्ठा की राशि और घृणा योग्य शरीर में मोह नहीं करना चाहिए। (१२३) सैकड़ों कृमि-कूलों से युक्त, अपवित्र मल से व्याप्त, अशुद्ध, अशाश्वत, ... सार रहित, दुर्गन्ध युक्त स्वेद और मल से मलिन, इस शरीर में (तुम) निर्वेद को प्राप्त करो। (१२४) (यह शरीर) दाँत के मल, कान के मल, नासिका के मल (श्लेष्म) और मुख की प्रचुर लार से युक्त है) इस प्रकार के बीभत्स एवं घृणित शरीर के प्रति कैसा राग? .. .. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदुलवेयालियपइण्णयं को सडण-पड़ण-विकिरण-विद्ध सण-चयण-मरणधम्मम्मि । देहम्मि' अहीलासो कुहिय-कठिणकट्ठभूयम्मि ? ॥१२५।। कोग-सुणगाण भक्खे किमिकुलभत्ते य वाहिभत्ते य । देहम्मि मच्चुभत्ते सुसाणभत्तम्मि को रागो ? ॥१२६।। असुई अमेज्झपुन्नं कुणिम-कलेवरकुडिं परिसवंति । आगंतुयसंठवियं नवछिद्दमसासयं. जाण ॥१२७॥ पेच्छसि मुहं सतिलयं 'सविसेसं रायएण अहरेणं । सकडक्खं सवियारं तरलच्छि जोव्वणत्थीए ॥१२॥ पिच्छसि बाहिरमटुं, न पिच्छसी उज्झरं कलिमलस्स। मोहेण' नच्चयंतो सीसघडीकजियं पियसि ।।१२९।। सीसघडीनिग्गालं जं निळूहसी दुगुंछसी जं च । तं चेव रागरत्तो मूढो अइमुच्छिओ पियसि ।।१३०।। पूइयसीसकवालं पूइयनासं च पूइदेहं च । पूइयछिड्डविछिडं पूइयचम्मेण य पिणद्ध ॥१३१।। १ अंजणगुणसुविसुद्ध हाणुव्वट्टणगुणेहिं सुकुमालं। .... पुप्फुम्मीसियकेसं जणेइ११ बालस्स तं रागं ॥१३२।। जं सीसपूरओ त्ति य पुप्फाइं भणंति मंदविन्नाणा । पुप्फाई चिय ताई सीसस्स य पूरयं "सुणह ॥१३३॥ १. °म्मि य अभिला° सं० ॥ २. को काक-सुणगभक्खे पु० ॥ ३. वृत्तिकृता भच्छभत्ते पाठौ वृत्तौ स्वीकृतोऽस्ति, मच्चुमते इति पाठस्तु पाठान्तरतया न्यस्तोऽस्ति ॥ ४. सबंतं सं० ॥ ५. °ठवणं नछिडम° सं० ॥ ६.. सविकारं राइएण सं० ॥ ७. °यालं तरलच्छं जो° सं० ।। ८. पेच्छह बाहिरमट्टन पेच्छहा उ° सं० ॥ ९. °ण बुब्बयंतो सं० ॥ १०. अन्नज्जगुणसुबद्धं सं० । अंजणगुणसुविबद्धं पु० ॥ ११. जणयइ बा° सं० । जगई बा° पु० ॥ १२. मुणह सा० पु०॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदुलवैचारिकप्रकीर्णक (१२५) सड़न, गलन, विनाश, विध्वंसन, दुःखकर एवं मरण धर्मा सड़े हुए काष्ठ के समान इस शरीर की कौन अभिलाषा (रखेगा) ? (१२६) (यह शरीर) कौओं, कुत्तों, कीड़े मकोड़ों, मछलियों और श्मशान में रहने वाले (गिद्ध आदि प्राणियों) का भोज्य तथा व्याधियों से ग्रस्त है, ऐसे शरीर में कौन राग (करेगा) ? (१२७) (यह शरीर) अपवित्र, विष्ठा से पूरित तथा मांस और हड्डियों का घर है। इससे मल स्राव होता रहता है। माता पिता के रजबीर्य से उत्पन्न, नौ छिद्रों से युक्त (इस शरीर को) अशाश्वत जानो। (विशेष-पति या पत्नी जीवन में आते हैं, अतः वे आगन्तुक हैं और उनके द्वारा गर्भ संस्थापित है, अतः वह गर्भ से निर्मित शरीर आगन्तुक संस्थापित कहा गया है।) (१२८) (तुम) तिलक से युक्त, विशेष रूप से रक्ताभ ओठों वाली युवती के मुख को विकार भाव से एवं कटाक्ष सहित चंचल नेत्रों से देखते हो। (१२९) (तुम उनके) बाह्य रूप को देखते हो किन्तु भीतर स्थित दुर्गन्धित मल को नहीं देखते हो । मोह से ग्रसित होकर नाचते हो और कपाल के अपवित्र रस (लार-श्लेष्मादि) को (चुम्बन आदि से) पीते हो। (१३०) कपाल से उत्पन्न रस (लार और श्लेष्म), जिसको (तुम स्वयं) थूकते हो (और) घृणा करते हो, उसी को अनुराग ने रत होकर अत्यन्त आसक्ति से पीते हो। (१३१) शीर्ष-कपाल अपवित्र है, नाक अपवित्र है, विविध अंग अपवित्र है, छिद्र विछिद्र भी अपवित्र है, (यहाँ तक कि यह शरीर भी) अपवित्र चर्म से ढका हुआ है। (१३२) अञ्जना से निर्मल, स्नान-उद्वर्तन से संस्कारित, सुकुमाल पुष्पों से सुशीभित केशराशि से युक्त (स्त्री का मुख) अज्ञानी को राग उत्पन्न करता है। . . (१३३) अज्ञान बुद्धि वाले जिन फूलों को मस्तक का आभूषण कहते हैं वे केवल फूल ही है । मस्तक का आभूषण (क्या है, उसे) सुनो! Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदुलवेयालियपहाणयं मेदो वसा य रसिया 'खेले सिंघाणए य छुभ एयं । अह सीसपूरओ भे नियगसरीरम्मि साहीणो ।।१३४।। सा किर दुप्पडिपूरा वच्चकुडी दुप्पया नवच्छिद्दा । उक्कडगंधविलित्ता बालजणोऽइमुच्छियं गिद्धो ॥१३५।। जं पेम्मरागरत्तो अवयासेऊण गृह-मुत्तोलि । दंतमलचिक्कणंगं सीसघडीकंजियं पियसि ।।१३६।। दंतमुसलेसु गहणं गयाण, मंसे य ससय-मीयाणं । वालेसु य चमरीणं, चम्म-नहे दीवियाणं च ॥१३७॥ पूइयकाए य इहं "चवणमुहे निच्चकालवीसत्थो ।। आइक्खसु सब्भावं किम्ह सि गिद्धो तुमं मूढ ! ? ॥१३८।। दंता वि अकज्जकरा, वाला वि विवड्ढमाणबीभच्छा। चम्म पि य बीभच्छं, भण किम्ह सि तं गओ रागं ? ॥१३९।। सिंभे पित्ते मुत्ते गृहम्मि वसाए दंतकुंडीसुं। भणसु किमत्थं तुझं असुइम्मि वि वढिओ रागो? ॥१४०॥ जंघट्टियासु ऊरू पइट्टिया, तट्टिया १०कडीपिट्ठी। "कडिपट्ठिवेढियाई अट्ठारस पिट्टिअट्ठीणि ॥१४१।। दो अच्छिअट्टियाइं, सोलस गीवट्रिया मुणेयव्वा । पिट्ठीपइट्ठियाओ बारस किल पंसुली हुंति ॥१४२।। १२अट्ठियकढिणे सिर-हारुबंधणे मंस-चम्मलेवम्मि । विट्ठाकोट्ठागारे को वच्चघरोवमे रागो ? ||१४३।। जह नाम वच्चकूवो निच्चं 'भिणिभिणिभिणतंकायकली । किमिएहि १"सुलुसुलायइ सोएहि य पूइयं वहइ ॥१४॥ १. खेलो सिंघाणओ य थुहओ य सं० ॥२. °च्छिओ गि° पु० ॥ ३. °सु गेही गयाण मंसे य सस-मियाईणं सं० ॥ ४. दीवियाईणं ॥१३७ ।। सं॥ ५. नवण° पु० । नत्थण° सं०॥ ६. °लबीभच्छे सं० ॥ ७. °ए अंत° सं०॥ ८. °मठें तुझं असुयम्मि सं० ॥ ९. जंपिडियासु सं० पु०॥ १०. कडीअट्ठी सं० ॥ ११. कडिअद्विविछि (? च्चि) या सं० ॥ १२. °कडणे सि° सं । °कठोरसि पु० ॥ १३. भणंत° वृ० ॥ १४. °यवलो सं० ॥ १५. सुलसु° सा० पु० ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (१३४) चर्बी, वसा, रसिका (पीव), कफ, श्लेष्म, मेद-ये सिर के भूषण है, ये निज शरीर के स्वाधीन है । अर्थात् वह इन्हीं से निर्मित है। (१३५) (यह शरीर) भूषित होने के अयोग्य है, विष्ठा का घर है, दो पैर __ और नौ छिद्रों से युक्त है, तीव्र दुर्गन्ध से भरा हुआ है । (जिसमें) अज्ञानी मनुष्य अत्यन्त मूर्छित और आसक्त होता है। (१३६) कामराग से रंगे हुए (तुम) गुप्त अंगों को प्रकट करके दाँतों के चिकने मल का और शीर्ष घटिका (खोपड़ी) से निसृत काजि अर्थात् विकृत रस को पीते हो। (१३७) हाथियों का दंत-मसलों के लिए, खरगोश और मृगों का मांस के लिए, चमरी-गाय का बालों के लिए और चीते का चर्म और नाखून के लिए ग्रहण किया जाता है (अर्थात् सबका शरीर कुछ न कुछ काम आता है, किन्तु मनुष्य का शरीर किसी के काम का नहीं है)। (१३८) हे मूर्ख ! यह शरीर दुर्गन्ध युक्त और मरण स्वभाव वाला है । इसमें नित्य विश्वास करके तुम क्यों आसक्त हो रहे हो? इसका स्वभाव तो कहो? (१३९) दाँत भी किसी कार्य के नहीं हैं, बढ़े हुए बाल भी घृणा के योग्य हैं, चर्म भी बीभत्स है फिर कहो ! तुम किसमें राग रखते हो ? (१४०) कफ, पित्त, मूत्र, विष्ठा, वसा, दाढ़ों आदि (अपवित्र वस्तुओं में) कहो ! किसके लिए तुम्हारे द्वारा राग किया जा रहा है । (१४१) जंघा की हड्डियों के ऊपर ऊरू स्थित है और उसके ऊपर कटि भाग स्थित है। कटि के उपर पृष्ठ-भाग स्थित है। पृष्ठ भाग (पीठ) में १८ हड्डियाँ होती हैं। (१४२) दो आँख की हड्डियाँ, सोलह गर्दन की हड्डियाँ जाननी चाहिए। पीठ में बारह पसलियाँ स्थित होती हैं। ... (१४३) शिरा और स्नायुओं से बँधा कठोर हड्डियों का यह ढाँचा, मांस और चमड़े में लिपटा हुआ है। (यह शरीर). विष्ठा का घर है । ऐसे मल के घर में कौन राग करेगा? . (१४४) जैसे विष्ठा के कुंए के समीप कौए मँडराते रहते हैं, उसमें कृमियों के द्वारा सुल-सुल शब्द होता रहता है. और स्रोतों से दुर्गन्ध निकलती रहती है (मृत होने पर शरीर की भी यही दशा होतो है)। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ 'तंदुलवेयालियइणयं उद्धियनयणं खगमुहविकट्टियं विप्पइन्नबाहुलयं । अंतविकट्टियमाल सीसघडीपागडियघोरं ।। १४५ ।। भिणिभिणिभितस विसप्पियं "सुलुसुतमंसोडं । मिसिमिसिभिसंत किमियं 'थिविथिविथिवयंतबीभच्छं ||१४६ ॥ पागडियपासुलीयं विगरालं सुक्कसंधिसंघायं । पडियं निव्वेवणयं सरीरमेयारिसं 'जाण ॥ १४७॥ । वच्चाओ असुतरे नवह सोएहिं परिगलंतेहि । आमगमल्लगरुवे निव्वेयं वच्चह सरीरे ॥ १४८॥ दो हत्था दो पाया सीसं उच्वंपियं कबंधम्मि | 'कलमलकोट्टागारं परिवहसि दुयादुयं वच्चं ॥ १४९ ॥ तं च किर रूववंतं वच्चंतं परगंघेहिं सुगंधय मन्नतो रायमग्गमोइन्नं । अप्पणो गंधं ॥ १५० ॥ पाडल - चंपय-मल्लिय- ''अगुरुय चंदण तुरुक्कवामीसं । गंध समोयरंत मन्नतो अप्पणी गंधं ॥ १५१ ॥ "सुहवाससुरहिगंधं च ते मुहं अगुरुगंधियं अंगं । केसा पहाणसुगंधा, कयरो ते अप्पणो गंधो ? ।। १५२ ।। अच्छिमलो कन्नमलो खेलो सिंघाणओ य पूओ य । असुई मुत्त-पुरीसो, एसो ते अप्पणो गंधो ॥ १५३ ॥ १. कड्ढियं सा० पु० ॥ २. कड्डिय° सा० पु० । ३. घडिया सं० ॥ ४. °भणंत° वृ० ।। ५. सुलसुलंत सा० । सुललित" पु० ॥ ६. ० थिवियं ० पु० वृ० ॥ ७ निच्चेयणयं वृ० ॥ ८. जाणे वृपा० ॥ ९. कलिम सा० ॥ १०. गुरू चं० सं० ॥ ११. मुहवाससुरहिगंधं वातसुहं सा० । लिपिविकारजोऽयमशुद्धः पाठभेदः । १२. अत्र वृत्तिकता वातसुहं इति लिपिविकारजः पाठो व्याख्यातोऽस्ति ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदुलवैचारिकप्रकीर्णक (१४५) (मृत शरीर के ) नेत्र को पक्षी चोंच से काटते हैं, लता की तरह भुजा फैली रहती है, आँत बाहर निकाल ली जाती है और खोपड़ी भयंकर (दिखाई पड़ती) है। (१४६) मृत शरीर पर मक्खियाँ भिन-भिन शब्द करती रहती है। सड़े हए मांस से सुल-सुल की आवाज निकलती रहती है, उसमें उत्पन्न कृमि समूह से मिस-मिस की आवाज और आँतड़ियों से थिव-थिव शब्द होता रहता है। इस प्रकार यह बहुत ही बीभत्स दिखाई देता है। (१४७) (मरने के बाद) प्रकट पसलियों वाले विकराल, सूखी सन्धियों से . यक्त, चेतना रहित शरीर की अवस्था को जानो। .. . (१४८) नव-द्वारों से अशुचि को निकालने वाले, गले हुए कच्चे घड़े के समान इस शरीर के प्रति निर्वेद (वैराग्य) भाव धारण करो। (१४९) दो हाथ, दो पैर और सिर धड़ से जुड़े हुए हैं। यह मलिन मल का कोष्ठागार है। इस विष्ठा को तुम क्यों ढोते फिरते हो। (१५०) ऐसे रूपवाले (शरीर को) राजपथ पर अवतीर्ण देखकर (प्रसन्न होते हो) और पर-गन्ध (अन्यपदार्थों की गन्ध) से सुगन्धित गंध को अपनी गन्ध मानते हो। (१५१) (यह मनुष्य) गुलाब, चम्पा, चमेली, अगर, चन्दन एवं तरूष्क की गन्ध को अपनी गन्ध मानता हुआ प्रसन्न होता है। (१५२) तेरा मुख मुखवास की गंध से सुवासित है, अंग प्रत्यंग अगर की गन्ध से युक्त है। केश स्नानादि के समय लगाये गये सुगंधित द्रव्यों से सुगंधित है, तो बताओ तुम्हारी अपनी गन्ध क्या है ? . (१५३) हे पुरुष ! आँखों का मल, कान का. मल, नासिका का मल, श्लेष्म, अशुचि और त्र-ये ही तो तेरी अपनी गंध है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ तंदुलवेयालियपइण्णय (इत्थिसरीर-सभावाइ पडुच्च वेरग्गोवएसो) जाओ चिय इमाओ इत्थियाओ अणेगेहिं 'कइवरसहस्सेहिं विविहपासपडिबहिं कामरागमोहिएहि वन्नियाओ ताओ विय एरिसाओ, तं जहा-पगइविसमाओ पियरूसणाओ कतियवचडुप्परून्नातो अथक्कहसिय-भासिय-विलास-चीसंभ-पचू (च) याओ अविणयवातोलीओ मोहमहावत्तणीओ-विसमाओ पियवयणवल्लरीओ कइयवपेमगिरितडीओ अवराहसहस्सघरिणीओ ४, पभवो सोगस्स, विणासो बलस्स, सूणा पुरिसाणं, नासो लज्जाए, संकरो अविणयस्स, निलओ नियडीणं १० 'खाणी वइरस्स, सरीरं सोगस्स, भेओ मजायाणं, "आसओ रागस्स, निलओ दुचरियाणं १५, माईए 'सम्मोहो, खलणा नाणस्स, चलणं सीलस्स, विग्धो धम्मस्स, अरी साहूण २०, दूसणं आयारपत्ताणं, आरामो कम्मरयस्स, फलिहो मुक्खमग्गस्स, भवणं दारिद्दस्स २४ ॥१५४।। अवि आई ताओ आसीविसो विव कुवियाओ, मत्तगओ विव मयणपरव्वसाओ, वग्घी विव दुहिययाओ, तणच्छन्नकूवो विव अप्पगासहिययाओ, मायाकारओ विव उवयारसयबंधणपओत्तीओ, आयरियसविधं पिव दुग्गेज्झसब्भावाओ ३०, फुफुया विव अंतोदहणसीलाओ, नग्गयमग्गो विव अणवट्ठियचित्ताओ, अंतोट्टवणो विव कुहियहिययाओ, कण्हसप्पो विव अविस्ससणिज्जाओ, संघारो विव छन्नमायाओ, संझब्भरागो विव मुहुत्तरागाओ, समुद्दवीचीओ विव "चलस्सभावाओ, मच्छो विव दुप्परियत्तणसीलाओ, वानरो विव १२चलचित्ताओ, मच्चू विव निव्विसेसाओ ४०, १. कयवर° पु० ॥ २. °गमोहेहिं सा० पु० ॥ ३. DKएतच्चिह्नमध्यवर्ती पाठो न व्याख्यातो वृत्तौ ॥ ४. अवक्कहसिय-भासिय-विलास-वीसंभभूयाओ सा० ॥ ५. °वातुली° सा० पु० ॥ ६. खणी वृ० । खाणी नरयस्स सं० ॥ ७. आसाओ वृ० । आसओ इति वृपा० ॥८. समूहो वृ० । ९. यायं तायो सं०॥ १०. आयरिसबिंब पिव सा० पु० ॥ ११-१२. चवल° सं० ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदुलवैचारिकप्रकीर्णव (स्त्री शरीर-स्वभाव की उपेक्षा और वैराग्य का उपदेश) (१५४) काम-राग और मोहरूपी विविध पाशों से बँधे हुए, हजारों श्रेष्ठ कवियों के द्वारा इन स्त्रियों की (प्रशंसा में) बहुत कुछ कहा गया है। (वस्तुतः वे ऐसी नहीं हैं) उनका स्वरूप तो इस प्रकार का . स्त्रियाँ (१) स्वभाव से कुटिल, (२) प्रिय वचनों की लता, (३) प्रेम करने में पहाड़ की नदी की तरह कुटिल, (४) हजारों अपराधों की स्वामिनी, (५) शोक उत्पन्न कराने वाली, (६) बल का विनाश करने वाली, (७) पुरुषों के लिए वधस्थान, (८) लज्जा का नाश करने वाली, (९) अविनय की राशि, (१०) पाखण्ड का घर, (११) शत्रुता की खान, (१२) शोक का शरीर अर्थात् शोक की धारक, (१३) मर्यादा को तोड़ने वाली, (१४) राग का घर, (१५) दुराचारियों का निवासस्थान, (१६) सम्मोहन की माता, (१७) ज्ञान को नष्ट करने वाली, (१८) ब्रह्मचर्य को नष्ट करने वाली, (१९) धर्म में विघ्न रूप, (२०) साधुओं की शत्रु, (२१) आचार सम्पन्न के लिए कलंक रूप, (२२) कर्म रूपी रज का विश्राम गृह, (२३) मोक्ष मार्ग की अर्गला और, (२४) दारिद्रता का आवास है। (१५५) वे स्त्रियाँ (२५) कुपित होने से जहरीले सर्प के समान, .(२६) काम के वशीभूत होने से मदमत्त हाथी की तरह, (२७) .दुष्ट हृदया होने से व्याघ्री की तरह, (२८) कालिमा युक्त हृदय होने से तण से आच्छादित कूप के समान, (२९) जादूगर के .. समान सैकड़ों उपचार से आबद्ध कर लेने वाली, (३०) दुर्गाह्य सद्भाव होने पर भी आदर्श की प्रतिमा, (३१) शील को जलाने में वनकण्डे की आग की तरह, (३२) अस्थिर चित्त होने से पर्वत-मार्ग की तरह अनवस्थित, (३३) अन्तरंग व्रण (धाव) के समान कुटिल हृदय, (३४) काले सर्प की तरह अविश्वसनीय, (३५) छल छम युक्त होने से प्रलय की तरह, (३६) संध्या की लालिमा की तरह क्षणिक प्रेम करने वाली, (३७) समुद्र की तरंगों की तरह चपल स्वभाव वाली, (३८) मछली की तरह दुष्परिवर्तनीय, (३९) चंचलता में बन्दर की तरह, (४०) मृत्यु की तरह कुछ भी शेष नहीं रखने वाली, (४१) काल की तरह क्रूर, (४२) वरुण की तरह (काम) पाश रूपी हाथ वाली, (४३) पानी की तरह निम्नानुगामिनी, (४४) कृपण Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ तंदुलवेयालियपइण्णयं कालो विव निरणुकंपाओ, वरुणो विव पासहत्थाओ, सलिलमिव निन्नगामिणीओ, किविणो विव उत्ताणहत्थाओ, नरओ विव उत्तासणिन्जाओ. खरो विव दुस्सीलाओ, दुटुस्सो विव दुद्दमाओ, बालो इव मुहुत्तहिययाओ, अंधकारमिव दुप्पवेसाओ, विसवल्ली विव अणल्लिाणज्जाओ ५०, दुगाहा इव वावी अणवगाहाओ, ठाणभट्ठो विव इस्सरो अप्पसंसणिजाओ, किंपागफलमिव मुहमहुराओ, रित्तमुट्ठी विव बाललोभणिज्जाओ, मंसपेसोगहणमिव सोवद्दवाओ. जलियचुडली विव अमुच्चमाणडहगसीलाओ, अरिष्टुमिव दुल्लंघणिन्जाओ, कूडकरिसावणो विव कालविसंवायणसीलाओ, चंडसीलो विव दुक्खरक्खियाओ, अइविसायाओ ६० दुगुंछियाओ 'दुरुवचाराओ अगंभीराओ अविस्ससणिजाओ अणवत्थियाओ दुक्खरक्खियाओ दुक्खपालियाओ अरतिकराओ कक्कसाओ दढवेराओ ७० रूव-सोहग्गमउम्मत्ताओ भुयगगइकुडिलहिययाओ कंतारगइट्ठाणभूयाओ कुल-सयण-मित्तभेयणकारियाओ परदोसपगासियाओ कयग्घाओ बलमोहियाओ एगंतहरणकोलाओ चंचलाओ 'जाइयभंडोवगारो विव मुहरागविरागाओ ८० ॥१५५|| .. अवि याइं लाओ 'अंतरं भंगसयं, अरज्जुओ पासो, अदारुया अडवी, अणालस्सनिलओ, अइक्खा वेयरणी, अनामिओ वाही, अवियोगो विप्पलावो, अरुको उपसग्गो, रइवंतो चित्तविन्भमो, सव्वंगओ दाहो ९०, 'अणब्भपसूया वनासणी, असलिलप्पवाहो° समुद्दरओ ९२ ।। १५६ ।। १. दुरूव० सं० । दुरुव-चराओ सा० ॥ २. °गतिट्ठाणभूतातो सं० ॥ ३. कइग्घाओ सं० ॥ ४. °तहिरन्नको° सं० ॥ ५. जोइभंडोवरागो विव वृ० । जोइभंडो विव उवरागाओ वृपा० । जच्चभंडोवरागो विवि सापा० ॥ ६. अंतरंगभंग° सं० वृपा० ॥ ७. अतिक्खवे° सं० । अइक्खवे° वृ०॥ ८. °त्तब्भमो वृ०॥ ९. अणब्भया व वृ०। अणब्भया असणी इति अप्पसूया वज्जाऽसणी इति अप्पसूया वज्जा सुणी इति च पाठभेदत्रयं वृत्तौ ।। १०. 'लप्पलावो सं० वृपा० ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक की तरह उत्ताण हस्त, (४५) नरक के समान डरावनी, (४६) गर्दभ की तरह दुःशील वाली, (४७) दुष्ट घोड़े की तरह दुर्दमनीय, (४८) बालक के समान क्षण में प्रसन्न और क्षण में रुष्ट होने वाली, (४९) अन्धकार की तरह दुष्प्रवेश, (५०) विषलता को तरह आश्रय के अयोग्य, (५१) कुर्वे में आक्रोश से अवगाहन करने वाले दुष्ट मगर की तरह, (५२) चारित्र से भ्रष्ट आचार्य की तरह प्रशंसा के अयोग्य, (५३) किंपाकफल की तरह पहले अच्छी लगने वाली और बाद में कटु फल देने वालो, (५४) बालक को ललचाने वाली खाली मुट्ठी की तरह निस्सार, (५५) मांसपिंड को ग्रहण करने की तरह उपद्रव पैदा करने वाली, (५६) जले हुए तृण की पूली की तरह नहीं छूटे हुए मान और दग्ध शील वाली, (५७) अरिष्ट की तरह दुलंघनीय, (५८) कपट-कार्षापण (खोटे सिक्के) की तरह समय पर शील को ठगने वाली, (५९) क्रोधी की तरह कष्ट से रक्षित, (६०) अत्यन्त विषाद वाली, (६१) निन्दित, (६२) दुरुपचारा, (६३) अगंभीर, (६४) अविश्वसनीय, (६५) अनवस्थित, (६६) दुःख से रक्षित, (६७) दुःख से पालित, (६८) अरतिकर, (६९) कर्कश, (७०) दृढ़ वैर वाली (७१) रूप और सौभाग्य से उन्मत्त, (७२) साँप की गति की तरह कुटिल हृदय वाली, (७३) अटवी में यात्रा करने और उसमें ठहरने की तरह भय उत्पन्न कराने वाली, (७४) कुल, परिवार और मित्र में फूट डालने वाली, (७५) दूसरे के दोषों को प्रकाशित करने वाली, (७६) कृतघ्न, (७७) वीर्य का नाश करने वाली, (७८) कोल की तरह एकान्त में हरण करने वाली, (७९) चंचल और (८०) अग्नि से रक्त वर्ण हुए घड़े के समान रक्ताभ अधरों से राग उत्पन्न कराने वाली होती हैं। (१५६) पुनः वे स्त्रियाँ (८१) अन्तरंग में भग्नशत हृदय वाली, (८२) बिना रस्सी का बन्धन, (८३) बिना वृक्ष का जंगल, (८४) अग्निनिलय, (८५) अदृश्य वैतरणी, (८६) असाध्य बीमारी, (८७) बिना वियोग के ही प्रलाप करने वाली, (८८) अनभिव्यक्त उपसर्ग, (८९) रति क्रीड़ा में चित्त-विभ्रम करने वाली, (९०) सर्वांग जलाने वाली, (९१) बिना मेघ के ही वज्रपात करने वाली, (९२) जल शून्य प्रवाह के समान और समुद्र के समान निरन्तर गर्जन (रव) करने वाली (होती हैं)। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुल वेयालियपइण्णयं अवि याइं तासि इत्थियाणं अणेगाणि नामनिरुत्ताणि-पुरिसे कामरागप्पडिबद्धे नाणाविहेहिं उवायसयसहस्सेहिं वह बंधणमाणयंति पुरिसाणं नो अन्नो एरिसो अरी अस्थि त्ति नारीओ, तं जहा-नारीसमा न नराणं अरीओ नारीओ १ । नाणाविहेहि कामेहि सिप्पयाइएहिं पुरिसे मोहंति त्ति महिलाओ २ । पुरिसे मत्ते करेंति त्ति पमयाओ ३ । महंतं कलिं जणयंति त्ति महिलियाओ ४ । पुरिसे हावभावमाइएहि रमंति त्ति रामाओ ५। पुरिसे अंगाणुराए करेंति त्ति अंगणाओ ६। नाणाविहेसु जुद्धभंडणसंगामाऽडवीसु मुहारणगिण्हण-सीरहदुक्ख-क्लेिसमाइएसु पुरिसे लालति त्ति ललणाओ ७ । पुरिसे जोग-निओएहि वसे ठाविति त्ति जोसियाओ ८ । पुरिसे नाणाविहेहिं भावेहि "णिति त्ति वणियाओ ९॥ १५७ ।। काई पमत्तभावं, काई पणयं सविब्भमं, काई ससई सासि व्व. ववहरंति, काई सत्तु दव, रोरो व काई पयएसु पणमंति, काई उवणएसु उवणमंति, 'काई कोउयनम्मं ति काउं सुकडक्खनिरिविखएहिं सविलासमहुरेहिं उवहसिएहि उवगूहिएहिं "उवसद्देहिं गुरुगदरिसणेहिं भूमिलिहण" बिलिहणेहिं चआरुहण-नट्टणेहि य बालयउवगृहहिं च १२अंगुलीफोडण-- थणपीलणकडितडजायणाहिं तन्नणाहिं च ॥ १५८ ॥ अवि याइं ताओ पासो व ववसितुं जे, पंको व्व खुप्पिउं जे, मच्चु ब्व मारेउं जे, अगणि व्व डहिउं जे, असि व्व छिजिउं जे ॥ १५९ ॥ १. ल्याईहिं मोहिति ति सं० ।। २. °माईहिं सं० ।। ३. वख-भुवख-कि° सं०। क्ख-सुक्ख-कि° पु० ॥ ४. ठावयंति सं० ॥ ५. विणेति त्ति सं० ॥ ६. सस व्व साभि व्व सं० ॥ ७. सत्तू व सं० ॥ ८. काओ सं० ॥ ९. अवगू° पु० ॥ १०. उच्चस° सं० ॥ ११. °ण-वियंभणेहिं सं० पु० ॥ १२.. अंगुलीताडण- थण° वृपा० ।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवंचारिकप्रकोणक (१५७) यहाँ उन स्त्रियों की अनेक नाम नियुक्तियाँ को जाती हैं। लाखों उपायों द्वारा और नाना प्रकार से पुरुषों की कामास क्ति को बढ़ाने वाली तथा उसे वध और बंधन का भाजन बनानेवाली नारी के समान पुरुष का कोई अन्य अरि ( शत्रु ) नहीं है इसलिए उसकी नारी आदि नियुक्तियाँ इस प्रकार हैं :-उसके समान पुरूष का दूसरा कोई अरि (शत्रु) नहीं है इसलिए वह 'नारी' कही जाती है। नाना प्रकार के कर्मों और शिल्प से पुरूषों को मोहित करती है इसलिए 'महिला' है। पुरुष को मत्त करती है इसलिए वह प्रमदा' है। महान् कलह को उत्पन्न कराती है इसलिए 'महिलिका' और हाव-भाव द्वारा पुरुष को रमण कराती है इसलिए वह 'रामा' कही जाती है। पुरुष को अपने अंगों में राग उत्पन्न कराती है इसलिए वह अङ्गना है। अनेक प्रकार के युद्ध, कलह, संग्राम, अटवी में भ्रमण, बिना प्रयोजन ऋण लेना, सर्दी गर्मी के दुःख और क्लेश उठाना आदि कार्यों में वह पुरुष को प्रवृत्त करती. है इसलिए वह 'ललना' कही जाती है। योग-नियोग द्वारा पुरुष को. वश में करने के कारण 'योषित' तथा नाना प्रकार के भावों, द्वारा पुरुष की वासना को उद्दीप्त करती है इसलिए उसे 'वनिता' कहा जाता है। (१५८) कोई स्त्री प्रमत्त भाव को, कोई प्रणय-विभ्रम को और कोई श्वास रोगी की तरह शब्द व्यवहार करती है। कोई शत्रु की तरह होती है और कोई रो-रो कर पैरों में प्रणाम करती है। कोई स्तुति को करती है, कोई कुतुहल, हास्य, और कटाक्षपूर्वक देखती है । कुछ स्त्रियाँ विलासयुक्त मधुर वचनों से, कुछ मुस्कानयुक्त चेष्टाओं के द्वारा, कुछ आलिंगन द्वारा, कुछ सीत्कार के शब्द द्वारा, कुछ गुह्यांगों के प्रदर्शन के द्वारा, कुछ भूमि पर लिखकर अथवा चिह्न बनाकर, कुछ बास पर चढ़कर नृत्य के द्वारा, कुछ बालक के आलिङ्गन के द्वारा और कुछ अंगुलियों के स्फोटन, स्तनमर्दन और कटितट पीड़न आदि के द्वारा पुरुषों को आकृष्ट करती हैं। (१५९) और ये स्त्रियाँ बाधा डालने में पाश की तरह, फँसाने के लिए कीचड़ की तरह, मारने के लिए मृत्यु की तरह, जलाने के लिए अग्नि की तरह, छिन्न-भिन्न करने में तलवार की तरह होती हैं। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णयं असि-मसिसारिच्छीणं कंतार-कवाड-चारयसमाणं । घोर-निउरंबकंदरचलंत-बीभच्छभावाणं ॥१६०॥ दोससयगागरीणं अजससयविसप्पमाणहिययाणं । कइयवपन्नत्तीणं ताणं अन्नायसीलाणं ॥१६१॥ अन्नं रयंति, अन्नं रमंति, अन्नस्स दिति 'उल्लावं । अन्नो कडयंतरिओ, अन्नो य पडतरे ठविओ ॥१६२॥ गंगाए वालुयं, सायरे जलं, हिमवतो य परिमाणं । उग्गस्स तवस्स गई, गब्भुप्पत्तिं च विलयाए ॥१६३॥ सीहे कुटुंबयारस्स पोट्टलं, "कुक्कुहाइयं अस्से । जाणंति बुद्धिमंता, महिलाहिययं न जाणंति ॥१६४।। एरिसगुणजुत्ताणं ताणं "कइ इव असंठियमणाणं । न हु भे वीससियव्वं महिलाणं जीवलोगम्मि ॥१६५।। निद्धन्नयं च खलयं, 'पुप्फेहि विवज्जियं च आरामं । निदुद्धियं च घेणुं, लोए वि अतेल्लियं पिंडं ॥१६६।। जेणंतरेण निमिसंति लोयणा, तक्खणं च विगसंति । तेणंतरेण 'हिययं चित्त (? चित) सहस्साउलं होइ ॥१६७।। (उवएसाणरिहजणा) । जड्डाणं 'वड्डाणं निविण्णाणं च निव्विसेसाणं । संसारसूयराणं कहियं पि निरत्थयं होई ॥१६८॥ (पुत्त-पियाईणमताणतं) किं पुत्तेहिं ? पियाहि व ? अत्थेण व पिंडिएण बहुएणं? जो मरणदेस-काले न होइ आलंबणं किंचि ॥१६९।। १. उल्लायं वृपा० ।। २. चवलवाए सं० ॥ ३. कुंडबुया° वृ० ॥ ४. °क्कुयाइ सं० पु० ॥ ५. कत्थइ असंथियम सं०॥ ६. पुप्फेहि निपुफियं च सं०॥ ७. °ए च्चिय ते सं० ॥ ८. °ययं वियारसहसाउलं सापा० ॥ ९. वुढाणं सा० ॥१०. °ण विढप्पिएम ब°सा० ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (१६०) (स्त्रियाँ ) तलवार के समान ( तीक्ष्ण ), स्याही के समान ( कालिमायुक्त), गहन वन के समान ( भ्रमित करने वाली ), कपाट और कारागार के समान ( बन्धन कारक) और प्रवाहशील अगाध जल के समान भयदायक होती है। (१६१) ये स्त्रियाँ सैकड़ों दोषों की गगरी, अनेक प्रकार से अपयश को फैलानेवाली, कुटिल हृदयवाली और कपटपूर्ण विचार वाली होती हैं । इन स्त्रियों के स्वभाव को मतिमान भी नहीं जान सकते हैं। (१६२) वे किसी अन्य को आकर्षित करती हैं, किसी अन्य के साथ रमण करती हैं और किसी दूसरे को आवाज देती हैं। अन्य किसी को पर्दे में और किसी अन्य को वस्त्रों में छिपाकर रखती हैं। . (१६३-१६४) गंगा के बालु-कण, सागर का जल, हिमालय का परिमाण,. उग्र तप का फल, गर्भ से उत्पन्न होने वाले बालक, सिंह की पीठ के बाल, पेट में रहे हुए पदार्थ और घोड़े के चलने की आवाज को बुद्धिमान मनुष्य जान सकते हैं किन्तु महिलाओं के हृदय को नहीं जान सकते हैं । (१६५) इस प्रकार के गुणों से युक्त इन स्त्रियों का बन्दर के समान चंचल मन संसार में विश्वास करने योग्य नहीं होता है। .... (१६६) लोक में जैसे धान्य विहीन खल, पुष्पों से रहित बगीचा, दूध से रहित गाय, तेल से रहित तिलहन (निरर्थक ) है उसी तरह स्त्रियाँ भी सुखहीन होने से निरर्थक हैं। (१६७) जितने समय में आँख मूंदकर खोली जाती हैं, उतने समय में स्त्रियों का हृदय एवं चित्त हजार बार व्याकुल हो जाता है । : ( उपदेश के अयोग्य मनुष्य ) . (१६८) मूर्ख, वृद्ध, विशिष्ट ज्ञान से हीन, निविशेष संसार में शूकर के समान नीच प्रवृत्ति वालों को कुछ भी कहना निरर्थक है। (पिता पुत्र आदि को अशरणता ) (१६९) पुत्र, पिता और बहुत संग्रह किये हुए उस धन से क्या लाभ ? जो मरने के समय किंचित् भी सहारा नहीं दे सके। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलक्यालियपइण्णय पुत्ता चयंत्ति, मित्ता चयंति, भज्जा वि णं मयं चयइ। तं मरणदेस-काले न चयइ सुबिइज्जओ' धम्मो ॥१७०।। (धम्ममाहप्पं) धम्मो ताणं, धम्मो सरणं, धम्मो गई पइट्ठा य । धम्मेण सुचरिएण' य गम्मइ अजरामरं ठाणं ॥१७१॥ पीईकरो वण्णकरो भासकरो जसकरो रइकरो य । अभयकर निव्वुइकरो पारत्तबिइज्जओ धम्मो ॥१७२॥ अमरवरेसु अणोवमरूवं भोगोवभोगरिद्धी य। विन्नाण-नागमेव य लब्भइ सुकएणः धम्मेणं ॥१७३।। देविंद-चक्कवट्टित्तणाई रज्जाई इच्छिया भोगा। एयाई धम्मलाभप्फलाई, जं चावि . नेव्वाणं ॥१७४।। (उवसंहारो) आहारो उस्सासो संधिछिराओ य रोमकूवाई। पित्तं रुहिरं सुक्कं गणियं गणियप्पहाणेहिं ॥१७५।। एयं सोउ सरीरस्स वासाणं गणियपागडमहत्थं । मोक्खपउमस्स" ईहह . सम्मत्तसहस्सपत्तस्स ॥१७६॥ एयं सगडसरीरं 'जाइ-जरा-मरण-वेयणाबहुलं । तह उत्तह काउ जे जह मुच्चह सव्वदुक्खाणं ॥१७७॥ ॥ तंदुलवेयालीपइणयं सम्मतं ॥ सुविअज्जिओ वृ० ॥ २. °एणं ग° सं० पु० ॥ ३. °करो य अभयकरो। निवुहकरो य सययं पार° सापा० ॥ ४. °वा य सं० पु०॥ ५. °स्स इहई स पु.॥ ६. वाहि-जरा° सं० पु० ॥ ७. तंदुलयं नाम पइन्न स० सं०॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवैचारिकप्रकोणक (१७०) मृत्यु हो जाने पर पुत्र साथ छोड़ जाते हैं, मित्र भी साथ छोड़ जाते हैं, पत्नी भी साथ छोड़ जाती है, किन्तु सु-उपार्जित धर्म ही मरण के समय साथ नहीं छोड़ता है। (धर्म-प्रभाव) (१७१) धर्म रक्षक है, धर्म शरण है, धर्म ही गति और आधार है। धर्म का अच्छी तरह आचरण करने से अजर-अमर स्थान की प्राप्ति होती है। (१७२) धर्म प्रीतिकर, कीर्तिकर, दीप्तिकर, यशकर, रतिकर, अभयकर, निवृत्तिकर और मोक्ष प्राप्ति में मदद करने वाला है। (१७३) सुकृत धर्म के द्वारा ही (मनुष्य को) श्रेष्ठ देवताओं के अनुपम रूप, भोग-उपभोग, ऋद्धि और ज्ञान-विज्ञान का लाभ प्राप्त होता है। (१७४) देवेन्द्र का पद और चक्रवर्ती का पद, राज्य इच्छित भोग-ये सभी धर्माचरण के फल हैं और निर्वाण भी इसी का फल है। (उपसंहार) (१७५) यहाँ सौ वर्ष की आयु वाले मनुष्य के आहार, उच्छ्वास, संधि, शिरा, रोमकूप, पित्त, रुधिर, वीर्य की गणित की दृष्टि से परिगणना की गयी है। (१७६) जिसका गणना के द्वारा अर्थ प्रकट कर दिया है ऐसे खरीर की (आयु के) वर्षों को सुन करके उस मोक्ष रूपी कमल के लिए (प्रयत्न) __करो) जिसके सम्यकत्व रूपी हजारों पत्ते हैं। (१७७) यह शरीर जन्म, जरा, मरण और वेदना से भरी हुई गाड़ी है इसको पा करके वही करो जिससे सभी दुःखों से छूट जाओ। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. परिशिष्ट तंदुलवैचारिक-प्रकीर्णक की गाथानुक्रमणिका __ गध/पघसंस्था १०८ ३४ १५३ 1१६ १७५ ३२ गध/पटसंख्या *आउसो! जंपि य इमं अच्छिमलो कन्नमलो *आउसो! तो नवमे अट्ठसहस्सा तिन्नि उ *आउसो ! से जहानामए अट्ठियकढिणे सिर-हारु १४३ *आसी य आउसो! अणुसुयइ सुयंतीए *आसी य खलु अन्नं रयंति अन्नं १६२ *आसी य समणाउसो! अप्पं सुक्कं बहुं आहारो उस्सासो अभंतरंसि कुणिमं ११४ आहारो परिणामो अमरवरेसु अणोवम १७३ "अवि आई ताओ आसिविसो। १५५ इत्थीए नाभिहेट्ठा *अवि याई ताओ अंतरं ___ *इयं चेव य सरीरं *अवि याइं ताओ पासो १५९ *इमो खलु अम्मा *अवि याइं तासि इत्यियाणं १५७ असि मसिसारिच्छीणं १६० उच्चारे पासवणे असुई अमेझपुन्न १२७ उदगस्स णालिगाए "अह णं पसवणकालसमयंसि उदगं खलु नायव्व अहवा उ पुंछवाला उद्धियनयणं अहवा सुवण्णमासा उस्सासा निस्सासा अंजण गुण सुविसुद्ध १३२ आ एए उ अहोरत्ता *माउसो! इमम्मि सरीरए ११० *एगमेगस्स णं भंते ! *आउसो ! इमस्स जंतुस्स १११ एयं च सयसहस्सं *माउसो! इमस्स जंतुस्स ११२ *एयस्स वि याई *आउसो ! एवं जायस्स - ४५ एवं खु जरामरणं ३७ १४५ ८ . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंदुलवेयालियपइण्णयं गद्य/पद्यसंख्या १७७ चत्तारि य कोडि गच/पद्यसंख्या एयं सगडसरीरं एयं सोउ सरीरस्स एयारिसे सरीरे एरिस गुण जुत्ताणं एव परिहायमाणे एवं निस्सारे एवं पंचासोई एवं बोंदिमइगओ ४४ छण्णउद १६५ छट्ठी तु हायणी ७५ जड्डाणं वड्डाणं जत्तियमेत जह नाम वच्चकूवो १४४ जंघट्ठियासु २५ जं पेम्मरागरत्तो जं सीसपूरओ १३३. १५८ ___ *जाओ चिय इमाओ १५४ १२६ जायमाणस्स ८२ जायमित्तस्स १२२ *जोवस्स णं भंते ! *जीवे णं भंते! २१,२२,२६,२७,२८ १२० जेणंतरेण निमिसति ६० जोणिमुहनिप्फि ११८ जो वाससयं जीवइ ३८ *कइ गं भत्ते ! *कहमाउसो ! अद्धत्त वोस *काई पमत्तभावं काग-सुणगाण कालो परमनिरुद्धो कित्तियमेत्तं वण्णे ! किमिकुलसयसंकिण्णे किह ताव घरकुडीरी कि पुण सपनाए कि पुत्तेहिं । कोई पुण पावकारी को सडन-परण कोसायारं जोगी कोह-मय-माय १२३ १२५ ४८ . ० ० 19 गब्भघरयम्मि मंगाए वालुयं १५० तइयं च दसं तस्स फलबिट तस्स य हिट्ठा *तं एवं अद्वत्तेवीसं १६३ तं च किर रूववंतं तं दाणि सोयकरण १०५ तिन्नी सहस्से निन्नेव य कोडीओ ४९ ते णं मणुया ७९ ते णं मणुया १६. *ते णं मणुया घुट्ठम्मि सयं मोहे पउत्थी उ बला चत्तारि य कोडि पत्तारि य कोडि ६७ ६८ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गड/पद्यसंख्या ११३ तेत्तीस सयसहस्सा *तो पढमे मासे थिरजायं पि हु ५० १४७ १५१ १२९ . गाथानुक्रमणिका गद्य/पद्यसंख्या - ९५ *पंचकोठे पुरिसे १९ पंचमी उ दसं पागडियपासुलीयं २९ पाडल-चंपय पिच्छसि मुह ५६ पित्तस्स य सिंभस्स १२४ पीइकरो वण्णकरो १३७ *पुण्णाई खलु १३९ पुण्णेहिं हायमाणेहिं पुत्ता चयंति पूइयकाए य १७४ पूइयसीस १४२ पेच्छसि मुहं ४२ १७२ दसगस्स उवक्खे वो दंतमल-कण्ण दंसमुसलेसु दंतावि अकज्जकरा दाडिमपुप्फागारा वाहिणकुच्छी देविंद चक्कवट्टि दो अच्छिअट्ठि दोण्हं पि रत्त दो नालिया मुहुत्तो दोन्नि अहोरत्तसए दोससय गागरीण दो हत्या दो पाया ६४ ६३ १७० १३८ १३१ १२८ १२ बारस चेव मुहुत्ता बारसमासा बीयं च दस १६१ ३- २६६६६६६.253338435 भिणिभिणिभिणंत धम्मो ताणं धम्मो १७१ १०६ माणुस्सयं सरीरं मेदो वसा य १३४ रत्तुक्कडा य. १५. नइवेगसमं चवलं नउई नमइ नवमी मुम्मुही न वि जाई कुलं नंदमाणो चरे नाभीए ताओ निजरियजरा निद्धन्नयं य न राइंदिएण तीसं रागेण न जाणंति १२१ व १४८ वच्चाओ असुइ ववहारगणिय १३ *वाससयं जीवंतो ५७ वाससयं परमाउं पणप्पणा य परेण पन्नासयस्स ওও Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "वाससयाउय "वाससयाउस्सेए विसमा अज्ज "विसमेसु य "विस्सरसरं तंदुल वेयालियपइण्णय गज/पसंख्या १४ सिमे पित्ते ९८ सी उण्ह पंथग ७३ सीसघडी निग्गाल सीहे कुंडंब सुक्कम्मि सोणियम्मि सुणह गणिए सुहवास सुरहि गजपचसंख्या १४० १०२ १३० १६४ ११७ M स १५२ सत्त पाणूणि से 'सत्तमी य पवंचा सत्ताहं कललं संकुइयवलो चम्मो संघयणं संठाणं 'सा किर दुष्पडि. १८ हट्ठस्स अणवग५३ हा ! असुइसमुन्नया ७१ हीण भिन्न-सरो Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान-परिचय आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान आचार्य श्री नानालाल जी म० सा० के १९८१ के उदयपुर वर्षावास की स्मृति में जनवरी १९८३ में स्थापित किया गया। संस्थान का मुख्य उद्देश्य जैन विद्या एवं प्राकृत के विद्वान तैयार करना, अप्रकाशित जैन साहित्य का प्रकाशन करना, जैन विद्या में रुचि रखने वाले विद्यार्थियों को अध्ययन की सुविधा प्रदान करना, जैन संस्कृति की सुरक्षा के लिए जैन आचार दर्शन और इतिहास पर वैज्ञानिक संस्करण तैयार कर प्रकाशित करवाना एवं जैन विद्या-प्रसार की दृष्टि से संगोष्ठियां, भाषण, समारोह आयोजित करना है। यह श्री अ० भा० सा० जैन संघ की एक मुख्य प्रवृत्ति है। संस्थान राजस्थान सोसायटीज एक्ट १९५८ के अन्तर्गत रजिस्टर्ड है एवं संस्थान को अनुदान रूप में दी गयी धनराशि पर आयकर अधिनियम को धारा ८० (G) और १२ (A) के अन्तर्गत छूट प्राप्त है। जैन धर्म और संस्कृति के इस पुनीत कार्य में आप इस प्रकार सहभागी बन सकते हैं (१) व्यक्ति या संस्था एक लाख रुपया या इससे अधिक देकर परम संरक्षक सदस्य बन सकते हैं । ऐसे सदस्यों का नाम अनुदान तिथिक्रम से संस्थान के लेटरपैड पर दर्शाया जाता है। (२) ५१,००० रुपया देकर संरक्षक सदस्य बन सकते हैं। (३) २५००० रुपया देकर हितैषी सदस्य बन सकते हैं । (४) ११००० रुपया देकर सहायक सदस्य बन सकते हैं। (५) १००० रुपया देकर साधारण सदस्य बन सकते हैं। (६) संघ, ट्रस्ट, बोर्ड, सोसायटी आदि जो संस्था एक साथ २०,००० रुपये का अनुदान प्रदान करती है वह संस्थान परिषद की संस्था सदस्य होगी। (७) अपने बुजुर्गों की स्मृति में भवन-निर्माण हेतु व अन्य आवश्यक यंत्रादि हेतु अनुदान देकर आप इसकी सहायता कर सकते हैं। (८) अपने घर पर पड़ी प्राचीन पांडुलिपियां, आगम-साहित्य व अन्य उपयोगी साहित्य को प्रदान कर सकते हैं। आपका यह सहयोग ज्ञान-साधना के रथ को प्रगति के पथ पर अग्रसर करेगा। fain Education International ,