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________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (अतराय बहुल जीवन से पुण्यकृत करुण उपदेश) (६४) हे आयुष्मान् ! पुण्य-कृत्यों को करने से प्रीति में वृद्धि होती है, प्रशंसा होती है, धन में वृद्धि होती है और कीर्ति में वृद्धि होती है, (इसलिए) हे आयुष्मान् ! यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि यहाँ पर बहुत समय, आवलिका, क्षण, श्वासोच्छ्वास, स्तोक, लव, मुहर्त्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, शतवर्ष, सहस्त्रवर्ष, लाख वर्ष, करोड़ वर्ष (अथवा) क्रोडा-क्रोड वर्ष (जीना है), जहाँ हम बहुत से शील, व्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास स्वीकार करके स्थिर रहेंगे। हे आयुष्मान् ! तब इस प्रकार का चिन्तन क्यों नहीं होता है कि निश्चय ही यह जीवन बहुत बाधाओं से युक्त है और इसमें बहुत से वात्त, पित्त, श्लेष्म, सन्निपात आदि विविध रोगांतक जीवन को स्पर्श करते हैं ? . ( यौगलिक, अर्हत्, चक्रवर्ती आदि की देह ऋद्धि) (६५) हे आयुष्मान् ! पूर्व काल में यौगलिक, अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण और विद्याधर आदि मनुष्य रोगों से दूर होने के कारण लाखों वर्षों तक जीवन-जीने वाले होते रहे हैं। (६६) वे मनुष्य अत्यन्त सौम्य, सुन्दर रूप वाले, उत्तम भोगों को भोगने वाले, उत्तम लक्षणों को धारण करने वाले, सर्वांग सुन्दर शरीर से युक्त (होते हैं)। उनके चरणतल और करतल लाल कमल के पत्तों की तरह लाल एवं कोमल (होते हैं)। (उनकी) अंगुलियाँ भी कोमल. (होती हैं)। (उनके) चरणतल पर्वत, नगर, मगर, सागर तथा चक्र आदि उत्तम और मंगल चिह्नों से युक्त (होते हैं)। पैर कछुए के समान सुप्रतिष्ठित, पैर की अंगुलियाँ अनुक्रम को प्राप्त सघन एवं छिद्ररहित, पैर के नाखून उन्नत पतले एवं कान्तियुक्त, पैरों के गुल्फ (टखने) सुश्लिष्ट एवं सुस्थित, जंघाएँ हरिणी एवं कुरुविन्द नामक तृण के समान वृत्ताकार, घुटने डिब्बे और उसके ढक्कन की संधि के समान, उरू हाथी की सूंड की तरह, गति श्रेष्ठ मदोन्मत्त हाथी के समान विक्रम और विलास से युक्त, गुह्य-प्रदेश उत्तम जाति के श्रेष्ठ घोड़े के समान (मल से अलिप्त), कटि-प्रदेश सिंह की कमर से भी अधिक गोलाकार, शरीर का मध्य भाग समेटी हुई तिपाई, मूसल, दर्पण और शुद्ध किये गये उत्तम सोने से निर्मित खड्ग की मूठ एवं वज के समान वलयाकार, नाभि गंगा के आवर्त एवं प्रदक्षिणावर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001142
Book TitleAgam 28 Prakirnak 05 Tandul Vaicharik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_tandulvaicharik
File Size6 MB
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