________________
तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक (६८) वे मनुष्य स्वभाव से सरल, प्रकृति से विनीत, स्वभाव से विकार--
रहित, प्रकृति से स्वल्प क्रोध-मान-माया-लोभ वाले, मुदु और मार्दव सम्पन्न, तल्लीन, सरल, विनीत, अल्प इच्छा वाले, अल्पसंग्रही, शान्त स्वभावी, असि-मसि-कृषि एवं व्यापार से रहित, गृहाकार वृक्ष की शाखाओं पर निवास करने वाले,' इप्सित विषयाभिलाषी, कल्पवृक्ष पर लगे हुए पृथ्वी फल एवं पुष्प का आहार करने वाले कहे गये हैं। ( सम्प्रतिकालीन मनुष्यों को देह, संहनन आदि की हानि और धर्म जन प्रशंसा)
. (६९) हे आयुष्मान् श्रमण ! पूर्वकाल में मनुष्यों के छः प्रकार के संहनन
होते थे, जो इस प्रकार हैं:-(१) वजऋषभनाराच संहनन (२) ऋषभनाराच संहनन (३) नाराच संहनन (४) अर्धनाराच संहनन (५) कीलिका संहनन (६) सेवात संहनन ।
हे आयुष्मान् ! सम्प्रति काल में मनुष्यों का सेवार्त संहनन ही होता है। (७०) हे आयुष्मान् ! पूर्व काल में मनुष्यों के छ: प्रकार के संस्थान होते
थे, जो इस प्रकार हैं:-(१) समचतुरस्र (२) न्यग्रोधपरिमण्डल (३) सादिक (४) कुब्ज (५) वामन (६) हुण्डक। किन्तु हे आयुष्मान् ! सम्प्रति काल में मनुष्यों का मात्र हुण्डक संस्थान ही
होता है। (७१) मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊँचाई और आयुष्य अवसर्पिणी काल
के दोष के कारण समय-समय क्षीण होती रहती है। (७२) उसी ( काल दोष) के कारण मनुष्यों के क्रोध, मद, माया, लोभ
एवं खोटे तोल-माप की प्रवृत्ति आदि सभी ( अवगुण ) बढ़ते हैं। (७३) उसी के अनुसार आज तुलायें विषम होती हैं और जनपदों में माप
तोल (भी) विषम होते हैं। राजकुल विषम होता है और वर्ष भी
विषम होते हैं। (७४) विषम वर्षों अर्थात् विषम काल में औषधि की शक्ति भी निस्सार हो
जाती है । इस समय में औषधि के दौर्बल्य के कारण मनुष्यों की आयु
अल्प हो जाती है। (७५) इस प्रकार कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की तरह ह्रासमान लोक में जो
धर्म में अनुरक्त मनुष्य हैं, वे ही अच्छी तरह जीवन जीते हैं। १. वृक्ष की शाखाएं प्रासाद की तरह आकृति वाली होती थी, वे उन पर
निवास करने वाले होते थे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org