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________________ भूमिका ३३ की अपेक्षा विकसित है और किसी सीमा तक परवर्ती भी । तंदुलवैचारिक नारी-चरित्र का किस रूप में चित्रण करता है इसकी चर्चा हम पूर्व में तंदुलवैचारिक की विषयवस्तु के विवरण के समय कर चुके हैं। ___यह तो निश्चित ही सत्य है कि तंदुलवैचारिक नारी-चरित्र को एक तरह से निन्दनीय रूप में प्रस्तुत करता है। नारी निन्दा की जो सामान्य प्रवृत्ति श्रमण परम्परा में पायी जाती है, तंदुलवैचारिक भी उससे मुक्त नहीं है। यह सत्य है कि तंदुलवैचारिक नारी जीवन के विकृत पक्ष को ही हमारे सामने प्रस्तुत करता है। नारी के पर्यायवाची विभिन्न शब्दों की नियुक्तियाँ भी उसमें इसी दृष्टिकोण के आधार पर की गयी हैं। किन्तु हमें इस सन्दर्भ में ग्रन्थकार के दृष्टिकोण का सम्यक् मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। वस्तुतः श्रमण परम्परा वैराग्य या निवृत्ति प्रधान है। उसका मूलभूत प्रयोजन व्यक्ति को सांसारिक जीवन से विमुख करके सन्यास की दिशा में प्रवृत्त करना है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि शरीर के पश्चात् मनुष्य की आसक्ति का मूलकेन्द्र स्त्री ही होती है। अतः जिस प्रकार ग्रन्थ में शारीरिक विकृतियों को उभार कर प्रस्तुत किया गया, उसी प्रकार इसमें नारी चरित्र की विकृतियों को भी उभार कर प्रस्तुत किया गया ताकि व्यक्ति का उनके प्रति जो रागभाव या आसक्ति है वह टूटे। नारी निन्दा के पीछे मूलभूत दृष्टि मनुष्य की कामासक्ति को समाप्त करना है। वहाँ नारी-निन्दा, निन्दा के लिए नहीं है, अपितु पुरुष में वैराग्य के जागरण के लिए है। जैन लेखकों ने अनेक स्थलों पर इस तथ्य को स्वीकार किया है कि जिस प्रकार स्त्री पुरुष को अपने मोह पाश में फंसाकर उसकी 'दुर्गति करती है, उसी प्रकार पुरुष भी नारी को अपनी वासनापूर्ति का माध्यम बनाकर उसके साथ दुर्व्यवहार करता है। वस्तुतः श्रमण परम्परा में नारी-निन्दा को उभर कर सामने आने का मुख्य कारण भारत की पुरुष प्रधान संस्कृति ही है। चूंकि पुरुष प्रधान संस्कृति में समस्त उपदेश पुरुष को ही सामने रखकर दिये जाते हैं, अतः यह स्वाभाविक था कि उसमें नारी-निन्दा को उभार कर सामने लाया गया। सूत्रकृतांग एवं तंदुलवैचारिक के अतिरिक्त अन्य प्राचीन आगम ग्रन्थों में भी हमें नारी-निन्दा के उल्लेख प्राप्त होते हैं, विशेष रूप से उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित में । ऋषिभाषित के गर्दभालीय अध्ययन में धर्म को पुरुष प्रधान कहा गया है। उसमें तो यहाँ तक कहा गया है कि वे ग्राम और नगर धिक्कार के योग्य हैं जहाँ नारी शासन करती है। वे पुरुष भी धिक्कार के पात्र हैं जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001142
Book TitleAgam 28 Prakirnak 05 Tandul Vaicharik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_tandulvaicharik
File Size6 MB
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