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तंदुलवेयालियपइण्णयं 'नारी से शासित होते हैं (२२/१) किन्तु यह सब स्पष्ट रूप से पुरुष प्रधान संस्कृति का ही परिणाम है। हमें ऐसा नहीं लगता कि तंदुलवैचारिक स्त्री को नीचा दिखाने के लिए ही नारी-निन्दा कर रहा है । वस्तुतः उसने तो मनुष्य को अध्यात्म और वैराग्य की दिशा में प्रेरित करने के लिए ही यह समग्र विवेचन किया है। यदि हम इसी दृष्टि से ग्रन्थ व ग्रन्थकार के सन्दर्भ में मूल्यांकन करेंगे तो ही सत्य के अधिक निकट होंगे। वैसे जैन परम्परा में नारी की क्या भूमिका है और उसका कितना महत्त्व है, इसकी चर्चा हमने अपने लेख 'जैनधर्म में नारी की भूमिका' (श्रमण-अक्टुम्बरदिसम्बर १९९०) में की है। इस सन्दर्भ में पाठकों से उसे वहाँ देख लेने की अनुशंसा करते हैं । अतः तंदुलवैचारिक के कर्ता पर मानव जीवन, मानवशरीर और नारी जीवन के विकृत पक्ष को उभारने का आक्षेप लगाने के पूर्व हमें इस तथ्य को समझ लेना होगा कि ग्रन्थकार का मूल प्रयोजन शरीर निन्दा या नारी-निन्दा नहीं है अपितु व्यक्ति की देहासक्ति और भोगासक्ति को समाप्त कर उसे आध्यात्मिक और नैतिक विकास की प्रेरणा देना है।
सागरमल जैन उदयपुर
सुभाष कोठारी २ मार्च १९९१
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