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तंदुल वैचारिक प्रकीर्णक
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(९६) एक वर्ष में चार करोड़ सात लाख अड़तालीस हजार चार सौ
उच्छ्वास होते हैं ।
(९७-९८) सौ वर्ष की आयु में चार सौ सात करोड़ अड़तालीस लाख चालीस हजार उच्छ्वास जानना चाहिए। अतः रात दिन क्षीण होती हुई आयु के क्षय को देखो ।
( आयु की अपेक्षा से अनित्य का प्ररूपण )
(९९) रात दिन में तीस और माह में नौ सौ मुहूर्त्त प्रमादियों के नष्ट होते हैं, किन्तु अज्ञानी इसे नहीं जानते हैं ।
(१००) हेमन्त ऋतु में सूर्य पूरे तीन हजार छः सौ मुहूर्त आयु को नष्ट करता है । इसी तरह ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओं में भी होता है, ऐसा जानना चाहिए ।
(१०१) इस लोक में सामान्य सौ वर्ष की नष्ट होते हैं । इसी प्रकार बीस वर्ष हो जाते हैं ।
(१०२) (शेष ३० वर्ष की आयु के ) पिछले पन्द्रह वर्षों में (व्यक्ति को) शीत, उष्ण, मार्गगमन, भूख, प्यास, भय, शोक और नाना प्रकार के रोग होते हैं ।
(१०३) इस प्रकार पचासी वर्ष नष्ट हो जाते हैं, जो सौ वर्ष तक जीने वाले होते हैं वे (वास्तव में) पन्द्रह वर्ष ही जीते हैं और सौ वर्ष तक जीने वाले भी सब नहीं होते हैं ।
आयु में से पचास वर्ष निद्रा में बालपन और वृद्धावस्था में नष्ट
(१०४) इस प्रकार जो व्यतीत होते हुए निःस्सार मनुष्य जीवन में सामने आते हुए चारित्र धर्म का पालन नहीं करता है उसे बाद में पश्चाताप करना पड़ेगा ।
(१०५) इस कर्मभूमि में उत्पन्न होकर भी (कोई मनुष्य) : मोह के वशीभूत जिनेन्द्रों द्वारा प्रतिपादित धर्म-तीर्थ रूपी श्रेष्ठ मार्ग को एवं आत्मस्वरूप को नहीं जानता है ।
(१०६) (यह) जीवन नदी के वेग के समान चपल, यौवन फूल के समान ( म्लान होने वाला) और सुख भी अशाश्वत (है), ये तीनों शीघ्र ही भोग्य हैं ।
(१०७) जैसे मृग समूह को जाल परिवेष्टित कर लेता है उसी प्रकार यहाँ ( मनुष्य को ) जरामरण (वेष्टित करता है) । फिर भी मोह जाल से मूढ़ बने हुए (तुम) इसको नहीं देख रहे हो ।
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