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तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक बीभत्स रूप को देख करके यह जानना चाहिए कि यह शरीर अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, सड़न-गलन और विनाश धर्मा तथा पहले या बाद में अवश्य ही नष्ट होने वाला है। यह आदि और अन्त वाला है । सब मनुष्यों की देह ऐसी ही होती है। यह (शरीर) ऐसे ही स्वभाव वाला है।
(शरीर आदि का अशुभत्त्व) (११७) माता की कुक्षि में शुक्र और शोणित में उत्पन्न उसी अपवित्र रस को
पीने के लिए (यह जीव) नौ मास तक (गर्भ में) रहता है। (११८) योनिमुख से बाहर निकला हुआ, स्तन पान से वृद्धि को प्राप्त हुला,
स्वभाव से ही अशुचि और मल युक्त इस शरीर को कैसे धोया जाना
शक्य हैं ? (अर्थात् इसे स्नान आदि से कैसे शुद्ध किया जा सकता है ?) (११९) हा, दुःख ! अशुचि में उत्पन्न जिससे वह प्राणी बाहर निकला है,
काम क्रीड़ा में आसक्ति के कारण उसी अशुचि योनि-द्वार में रमण करता है।
(स्त्री शरीर विरक्ति उपदेश) (१२०) तब अशुचि से युक्त स्त्री के कटि भाग का हजारों कवियों के द्वारा
अधान्त भाव से क्यों वर्णन किया जाता है ? (तब उत्तर में कहते
हैं कि) इस प्रकार वे स्वार्थवश मूढ़ हो रहे हैं। (१२१) वे बेचारे राग के कारण (यह कटिभाग) अपवित्र मल की थैली है,
यह नहीं जानते हैं। इसी कारण (उस कटि भाग को) विकसित नील
कमल के समूह के समान मानकर उसका वर्णन करते हैं। (१२२) और कितना वर्णन करें, प्रचुर मेद युक्त, परम अपवित्र, विष्ठा की
राशि और घृणा योग्य शरीर में मोह नहीं करना चाहिए। (१२३) सैकड़ों कृमि-कूलों से युक्त, अपवित्र मल से व्याप्त, अशुद्ध, अशाश्वत, ... सार रहित, दुर्गन्ध युक्त स्वेद और मल से मलिन, इस शरीर में
(तुम) निर्वेद को प्राप्त करो। (१२४) (यह शरीर) दाँत के मल, कान के मल, नासिका के मल (श्लेष्म)
और मुख की प्रचुर लार से युक्त है) इस प्रकार के बीभत्स एवं घृणित शरीर के प्रति कैसा राग? .. ..
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