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________________ तंदुलवैचारिकप्रकोणक (१७०) मृत्यु हो जाने पर पुत्र साथ छोड़ जाते हैं, मित्र भी साथ छोड़ जाते हैं, पत्नी भी साथ छोड़ जाती है, किन्तु सु-उपार्जित धर्म ही मरण के समय साथ नहीं छोड़ता है। (धर्म-प्रभाव) (१७१) धर्म रक्षक है, धर्म शरण है, धर्म ही गति और आधार है। धर्म का अच्छी तरह आचरण करने से अजर-अमर स्थान की प्राप्ति होती है। (१७२) धर्म प्रीतिकर, कीर्तिकर, दीप्तिकर, यशकर, रतिकर, अभयकर, निवृत्तिकर और मोक्ष प्राप्ति में मदद करने वाला है। (१७३) सुकृत धर्म के द्वारा ही (मनुष्य को) श्रेष्ठ देवताओं के अनुपम रूप, भोग-उपभोग, ऋद्धि और ज्ञान-विज्ञान का लाभ प्राप्त होता है। (१७४) देवेन्द्र का पद और चक्रवर्ती का पद, राज्य इच्छित भोग-ये सभी धर्माचरण के फल हैं और निर्वाण भी इसी का फल है। (उपसंहार) (१७५) यहाँ सौ वर्ष की आयु वाले मनुष्य के आहार, उच्छ्वास, संधि, शिरा, रोमकूप, पित्त, रुधिर, वीर्य की गणित की दृष्टि से परिगणना की गयी है। (१७६) जिसका गणना के द्वारा अर्थ प्रकट कर दिया है ऐसे खरीर की (आयु के) वर्षों को सुन करके उस मोक्ष रूपी कमल के लिए (प्रयत्न) __करो) जिसके सम्यकत्व रूपी हजारों पत्ते हैं। (१७७) यह शरीर जन्म, जरा, मरण और वेदना से भरी हुई गाड़ी है इसको पा करके वही करो जिससे सभी दुःखों से छूट जाओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001142
Book TitleAgam 28 Prakirnak 05 Tandul Vaicharik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_tandulvaicharik
File Size6 MB
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