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तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक
की तरह उत्ताण हस्त, (४५) नरक के समान डरावनी, (४६) गर्दभ की तरह दुःशील वाली, (४७) दुष्ट घोड़े की तरह दुर्दमनीय, (४८) बालक के समान क्षण में प्रसन्न और क्षण में रुष्ट होने वाली, (४९) अन्धकार की तरह दुष्प्रवेश, (५०) विषलता को तरह आश्रय के अयोग्य, (५१) कुर्वे में आक्रोश से अवगाहन करने वाले दुष्ट मगर की तरह, (५२) चारित्र से भ्रष्ट आचार्य की तरह प्रशंसा के अयोग्य, (५३) किंपाकफल की तरह पहले अच्छी लगने वाली और बाद में कटु फल देने वालो, (५४) बालक को ललचाने वाली खाली मुट्ठी की तरह निस्सार, (५५) मांसपिंड को ग्रहण करने की तरह उपद्रव पैदा करने वाली, (५६) जले हुए तृण की पूली की तरह नहीं छूटे हुए मान और दग्ध शील वाली, (५७) अरिष्ट की तरह दुलंघनीय, (५८) कपट-कार्षापण (खोटे सिक्के) की तरह समय पर शील को ठगने वाली, (५९) क्रोधी की तरह कष्ट से रक्षित, (६०) अत्यन्त विषाद वाली, (६१) निन्दित, (६२) दुरुपचारा, (६३) अगंभीर, (६४) अविश्वसनीय, (६५) अनवस्थित, (६६) दुःख से रक्षित, (६७) दुःख से पालित, (६८) अरतिकर, (६९) कर्कश, (७०) दृढ़ वैर वाली (७१) रूप और सौभाग्य से उन्मत्त, (७२) साँप की गति की तरह कुटिल हृदय वाली, (७३) अटवी में यात्रा करने और उसमें ठहरने की तरह भय उत्पन्न कराने वाली, (७४) कुल, परिवार और मित्र में फूट डालने वाली, (७५) दूसरे के दोषों को प्रकाशित करने वाली, (७६) कृतघ्न, (७७) वीर्य का नाश करने वाली, (७८) कोल की तरह एकान्त में हरण करने वाली, (७९) चंचल और (८०) अग्नि से रक्त वर्ण हुए घड़े के समान रक्ताभ अधरों से राग उत्पन्न कराने
वाली होती हैं। (१५६) पुनः वे स्त्रियाँ (८१) अन्तरंग में भग्नशत हृदय वाली, (८२)
बिना रस्सी का बन्धन, (८३) बिना वृक्ष का जंगल, (८४) अग्निनिलय, (८५) अदृश्य वैतरणी, (८६) असाध्य बीमारी, (८७) बिना वियोग के ही प्रलाप करने वाली, (८८) अनभिव्यक्त उपसर्ग, (८९) रति क्रीड़ा में चित्त-विभ्रम करने वाली, (९०) सर्वांग जलाने वाली, (९१) बिना मेघ के ही वज्रपात करने वाली, (९२) जल शून्य प्रवाह के समान और समुद्र के समान निरन्तर गर्जन (रव) करने वाली (होती हैं)।
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